जब मन वासंती हो जाए
होली और होरहा-ये दो भोजपुरी समाज को एक अलग रंग और सुगंध देते हैं। एक ऐसा स्वाद जो ग्रहण करता है, वही जानता है।
होली में तरुणाई है, अमराई है, दखिनाई है। दखिनाई मतलब दखिनैया पवन की बहुरंगी मस्त चाल। मस्ती भरे इस मौसम में घ्राणेंद्रियों में ईख के पन्नों से भुने होरहे की गंध आत्मा में समा जाती है।
चने का होरहा, केराव (मटर) का होरहा। इसके साथ गन्ने के कच्चे रस में दही। हो गया न होली की असली मस्ती का इंतजाम। साथ में गुझिया, भांग तो खैर हैं ही। किंतु डर यह है कि ये सारी चीजें आधुनिकता की दौड़ में शायद गायब होती जाएं।
केवल मदिरा को होली समझने की दुस्सह कठिनता पर्वों-त्योहारों को बहुत सीमित बना देती है। हम जैसा समझ बैठते हैं, होली उस तरह सिर्फ मस्ती और उल्लास का अवसर ही नहीं है। यह दरअसल किसान के लिए प्रकृति के साथ रंग और स्वाद का आनंद लेने का महत्वपूर्ण पर्व है।
प्रकृति को सुजला, सुफला और श्यामला कहा गया है। जितना हम उससे लेते हैं, उससे अधिक कृतज्ञतापूर्वक हमें उसे देना चाहिए। हम प्रकृति से सिर्फ लेते ही क्यों रहें! त्योहार हमें कुछ देना भी सिखाते हैं। पर्व-त्योहार हमें दोहन से रोकते हैं। हम हर चीज हिसाब से खर्च करें, तभी जीवन का आनंद है।
हंसी और उल्लास की भी एक सीमा है। वह मर्यादा की हद तक रहे। होली में हम पानी का भी उपयोग करें, न कि दुरुपयोग। इस अवसर पर खास तौर पर यह याद रखें कि देश के अनेक हिस्सों में पीने तक के लिए पानी नहीं है। बुंदेलखंड के अनेक किसान पानी की किल्लत के कारण पलायन कर चुके हैं।
होली वर्गों, जातियों, संप्रदायों और विचारधाराओं के बाड़े तोड़ देती है। यही वह समय है, जब रिश्तों की जटिलता में ढीलापन आता है। कोई भी किसी को भी गुलाल और रंग लगा सकता है। एक उत्सवधर्मी वातावरण में प्रेमपूर्ण उन्माद। इसमें कसैलापन घुलने लगता है। यह भी कह सकते हैं कि साल भर में प्रतीक्षा की जाती है कि बिगड़े संबंध होली में मीठे कर लिए जाएंगे। तो होली लोगों को जोड़ती है, जीवन को सुस्वादु बनाती है।
संबंधों की खूबसूरत ऊष्मा का नाम हैः होली। गरीब से गरीब आदमी भी इस त्योहार में अपने को भूलकर, अपने दुखों को भूलकर सबको गले लगाता है-यहि द्वारे मंगलाचार होरी होरी है।’ चारों तरफ खिले फूल, उन्मुक्त वातावरण, झूमती डालियां वसंत और होली को नई आभा देते है। दूर-दराज से लोग मिलने आते हैं। इस मौसम में महानगरों का ठसपन भी कुछ टूटता है। ढोल-मजीरे, हारमोनियम की संगत के साथ होरी-गायन लगातार चलता रहता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में इस दौरान कुछ शिष्ट नाच भी किए जाते हैं।
वसंत अपने आप में सुंदरता का एक पूर्ण स्वरूप है। जहां प्रकृति के अंग-प्रत्यंग में उल्लास-उमंग हो, प्रीति के अकथ आख्यान हों, जहां संधि-तत्व हों यानी जाड़े और गर्मी का बीचों-बीच, वहां आस्वाद से भी परे जाने की तृप्ति होती है। इस मौसम में प्रकृति में भी एक नयापन दिखता है और हमारे-आपके जीवन में भी।
होलिका दहन के जरिये हम विगत वर्ष की गंदगियों को जला देते हैं, कटु संबंधों को आग के हवाले कर देते हैं। होड़ लग जाती है कि लकड़ी कहां-कहां से लाकर होलिका दहन में रखें। मगर जलाने के लिए खेत-खलिहान और पुराने फर्नीचर से लकड़ी ले ही लेते हैं। साफ है कि अतिरेक से बचना चाहिए। यह नहीं कि जलाने का मौसम है, तो कुछ भी जला दें। वह सब भी, जो हमारे जीवन के लिए महत्वपूर्ण है।
यानी होली कटुता को खत्म करने और नएपन को अंगीकार करने का त्योहार है। होलिका दहन के बाद आती है रंगों की बौछार। फगुनाई की सरसराहट। शीतल ऊष्मा से एक नई किस्म की ताजगी। लेकिन गोबर, कोलतार, पेंट वगैरह त्योहार को धूमिल करते हैं। फूलों के रंग बनाएं।
यदि प्राकृतिक रंगों को संबल दें, तो पारिस्थितिकी भी अनुकूल रहेगी, संस्कृति भी। प्रेम और कोलाहल के बीचों-बीच है- होली। यह आप पर है कि किधर झुकते हैं। होली को प्रेम से सराबोर करिए। लोगों के ह्र्दय को जीतिए। कोई जोर जबर्दस्ती नहीं। ऋतु को वासंती आपका मन बनाता है। इसलिए अपने मन को वासंती बनाइए। आखिर आगे चैता भी तो गाना है।
– प्रो. रवींद्र नाथ श्रीवास्तव ‘परिचय दास’
नव नालंदा महाविहार सम विश्वविद्यालय ( संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार), नालंदा
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