“रंगो का उत्सव”
प्रेम रंग फागुन रंगे, प्रीत कुसुभ वसंत”
सफेद कैनवस पर रंगो का उत्सव होली,,
अलसी की बात पर नखरीली सरसों की हंसी होली
प्रकृति ने जब मृदंग बजाया, कांटे भी खिल उठे वसंत थिरका फागुन जोर से मुस्काया,
ऐसा ही कुछ आसपास अपने होने लगता है सर्द मौसम आने का वादा करके जाने लगता है और गर्माहट आहट देती है तब फागुन मास आता है संग आता है रंगो का उत्सव होली।
होली एक उत्सव क्या कहता है!? कहता है जब किसान की फसल पककर खड़ी होती है और इस खुशी के मंज़र को देख, इस मनोरम वातावरण मे उसके परिवार जन, उसकी पत्नी,बच्चे,माता-पिता भाई-बहन सजते हैं सवरते हैं ,सज सवर गीत गाते हैं नाचते हैं चारों ओर खुशहाली रहती है, तब होली का पर्व उत्सव बन जाता है।
चूड़ी बहरी कलाइयां खनके बाजूबंद, फागुन लिखे कोपल पर
रस से भीगे छंद”
बरबस ही उस चित्रकार की रचना को शुक्रिया देता है यह मन क्योंकि कुछ ऐसा मंजर दिखता है आसमान में कि परिंदों का एक झुंड ऊंचाइयों पर उड़ रहा होता है और नीले आसमान में छाया हुआ सा एक बादल अकेले टहल रहा होता है| सब कुछ बदल जा रहा होता है प्रकृति में जैसे कह रहा हो वह मासूम कहर कोहरा, “अब धूप सुनहरी आ गई और कांटों में भी खिला बसंत”।
फागुन मास में रेगिस्तान की तपती जमीन पर कटीले पौधों में भी गुलाबी पीले लाल फूल खिल उठते हैं और कटीले कैक्टस की सुंदरता में भी निखार आ जाता है यह नवजीवन नहीं तो और क्या है !?
“धूप हंसी बदली हंसी, हंसी पलाशी शाम
पहन मूंगेया कंठेया, टेसू हँसा ललाम”
पलाश के वृक्ष के फूल बहुत ही आकर्षक होते हैं मुंगे रंग की इसके आकर्षक फूलों के कारण ही इसे जंगल की आग भी कहा जाता है। प्राचीन काल में होली के रंग इन्हीं फूलों से बनाए जाते थे। रंगों से ही जीवन में एक नया बदलाव देखने मिलता है रंग हमारे तनाव को सोखते हैं ऐसे में जब फागुन का रंग सब पर चढ़ता है तब
“फीके सारे पढ़ पिचकारी के रंग,
अंग अंग फागुन रचा सांसे हुए मृदंग”
हिंदी खड़ी बोली के पहले कवि कहे जाने वाले अमीर खुसरो अपने आध्यात्मिक गुरु हजरत निजामुद्दीन औलिया के लिए सूफियाना अंदाज में कहते हैं,
“आज रंग है री मा रंग है री
तेरे महबूब के घर रंग है री
ओ मेरे महबूब के घर रंग है री”
त्यौहार कैलेंडर में लाल खाचे से झांकती तारीखे नहीं, ठीक से देखिए प्रकृति की आनंदमई पुकार है उसका बदलाव है सुष्म घटनाओं का मेल है, मन के द्वार खोलिए और जानिए हमारा जीवन प्रकृति के एक रूप है-
“इधर कशमकश प्रेम की उधर प्रीत मगरूर
जो भीगे वह जानता फागुन के दस्तूर”
सचमें फागुन के रंग न्यारे हैं दिखते हैं हवाओं में आम के पेड़ पर बौर, पीली सरसों से बसंती धरा तो कहीं सुनहरी गेहूं की बालियां रंगीले फागुन के आने की आहट देता है।
वैसे तो यह सारा मनोरम दृश्य हमें अपने गांव में देखने मिलता है जब गांव की मिट्टी पर रंगों से भरी बाल्टी का पानी पड़ता है और सोंधी मिट्टी की खुशबू उड़ती है तब सारारारा होली है, होता है। इस आनंद के मास में गाए जाने वाले गीतों को फाग कहते हैं।
“सृष्टि ने श्रृंगार किया है
बसन्त बहारें छायी।
हर मन में उत्साह जगा है
कली-कली मुसकायी॥
हर नजर सजा सजा संगीत
सँवरती प्रीत
सजी हर ओर रंगोली
गोरी चल खेलें होली”,
फागुन मायने प्रेम और जहां प्रेम वहां कृष्ण जहां कृष्ण वहां राधा सांवली सलोनी संग राधा की होली और संग गोपियों की ठिठोली ऐसा है होली का उत्सव। लोग कहते हैं उत्सव की छांव में रुकने का समय कहां अगर देखें तो हम क्या करते हैं?
त्यौहार आता नहीं कि बाजार के सामानों से हम घर भर लेते हैं विश्वास कीजिए प्रसन्नता की चाबी केवल धन नहीं क्या यह संभव है कि भीतर कोई उत्सव ना हो और उत्सव का वह दिन संभव हो जाए!? यकीनन जब हम रंग बिखेरते हैं तो उल्लास का विस्तार करते हैं।
“पृथ्वी मौसम वनस्पति, भंवरे तितली धूप
सब पर जादू कर गई यह फागुन की धूल।
– श्वेता मेहरोत्रा
Facebook Comments