प्रेम और वासना
एक बौद्ध भिक्षु रास्ते से गुजर रहा है। वह भिक्षु युवा हैं,,तन सुंदर है।एक नगर वधू ने उसे रास्ते से गुजरते हुए देखा, वह भिक्षु से मोहित हो गई।
उन दिनों नगर वधू का सम्मान होता था। उस समय मगध (बिहार) राज्य में सब से सुंदर युवती होती थी उसे नगर वधू के रूप में पसंद किया जाता था। नगर वधू का चुनाव किया जाता था। और नगर वधू अपने को गौरवान्वित महसूस करती थी। उसे वेश्या जैसी नहीं मानते थे।
उस समय एक मान्यता थी कि स्वरूपवान सुंदर स्त्री एक व्यक्ति की नहीं होनी चाहिए। इसलिए इस को पत्नी नहीं बनने देंगे। इतनी सुंदर स्त्री सब की ही हो सकती है।इसलिए, वह नगर-वधू कही जाती थी। यह नगर-वधू थी और उस ने अपने महल से नीचे झांक कर देखा और वह शानदार भिक्षु
अपनी मस्ती में चला जा रहा है। वह मोहित हो गई।
वह भिक्षु के पीछे भागी। उसने जाकर भिक्षु का चीवर पकड़ लिया और कहा कि ‘रुको, सम्राट मेरे महल पर दस्तक देते हैं। लेकिन, सभी को मैं मिल नहीं पाती हूं। लेकिन, आज़ पहला मौका है,मैं किसी के द्वार पर दस्तक दे रही हूं। तुम आज रात मेरे पास रुक जाओ’।
भिक्षु शीलवान था, जागृत था।वह जानता था कि काम तृष्णा से क्या हानि होती है? वह जीवन मुक्ति के राह पर आरूढ़ था। संसार के लुभावने आकर्षण उसे पथच्युत नहीं कर सकता था। उसके मन में करूणा जागी उस नगर वधू पर। भिक्षु की आंखों में आंसू आ गए।
आश्चर्यजनक अनुभव था उस नगर वधू के लिए। उस नगर वधू ने पूछा कि भिक्षु, आपकी आंख में आंसू क्यों ?’भिक्षु ने कहा – बहन ! ‘इसलिए कि तुम जो मांगती हो, वह मांगने जैसा भी नहीं है।
तुम्हारे अज्ञान को, तुम्हारे अंधेरे को देखकर दु:खी होता हूं।
बहन ! आज तो तुम युवा हो, सुंदर हो। आज रात तुम्हारे घर अगर मैं न भी रुका तो कुछ तुम्हें गंवाना नहीं होगा। नगर के बहुत युवक प्यासे हैं तुम्हारे पास रुकने को। लेकिन, जब कोई तुम्हारे द्वार पर न आए, तब मैं आऊंगा’। यह मेरा वादा है।
उस दिन मुझे मना नहीं करना। मैं जरूर आऊंगा। अभी मेरी कोई जरूरत भी नहीं है। लेकिन, जिस दिन कोई न होगा तब मैं आऊंगा। ज्यादा देर नहीं लगेगी। आज तुम सुंदर हो,कल कुरूप हो जाएगी। तब लोग तुम्हें नगर के बाहर फेंक देंगे और जिस दिन कोई न होगा उस दिन मैं आऊंगा। मुझे भी तुम से प्रेम है लेकिन, प्रेम प्रतीक्षा कर सकता है।
उस नगर वधू की समझ में कुछ न आया क्योंकि वह वासना से वशीभूत थी, वासना में अंधी थी।
वह कुछ नहीं समझ पाती थी। क्योंकि,करुणा के पास आंखें हैं, वासना के पास कोई आंखें नहीं होती है।
भिक्षु अपने रास्ते चल पड़ा।
बीस वर्ष बीतने के बाद, एक अंधेरी रात है,अमावस की रात है और एक स्त्री नगर के बाहर और तड़प रही है। क्योंकि, नगर वालोंने उसे बाहर फेंक दिया था। वह कोढ़ ग्रस्त हो गई थी।
यह वही नगर वधू थी जिसके द्वार पर, सम्राट दस्तक देते थे, नगर के युवा प्रेम पाने के लिए और वासना की तृप्ति के लिए तांता लगाते थे। अब दस्तक देने वाले कोई नहीं है। अब उसके शरीर से बदबू आती है। तब वहीं बौद्ध भिक्षु आ गया। उस अंधेरी रात में सिर्फ एक भिक्षु उसके सिर के पास बैठा हुआ है। वह करीब-करीब बेहोश पड़ी है।बीच-बीच में उसे थोड़ा-सा होश आता है। तब भिक्षु कहता है- ‘सुन, बहन मैं आ गया हूं। अब भीड़ जा चुकी है।
अब कोई तेरा चाहने वाला न रहा है। लेकिन, मैं तुझे अब भी चाहता हूं और मैं कुछ तुझे देना चाहता हूं। जो जीवन को निश्चित ही तृप्ति से भर देता है। उस दिन तूने मांगा था, लेकिन उस दिन तू ले न पाती
और जो तू मांगती थी वह मैं देने योग्य नहीं था। उस भिक्षु ने उस दु:खी, कुरूप हुई रोगग्रस्त नगर वधू को उपदेश दिया। वह सुनती रही, समझती रही, वह जागृत हो गई, धम्म तरंगों से पल्लवित हो गई, धन्य हो गई।
बुद्ध की शरण ली, धम्म की शरण ली, संघ की शरण ली। वह उस रात दीक्षित हुई। वह भिक्षुणी हुई और अंत में निर्वाण प्राप्त करके संसार से विदा हुई। धन्य है उस बौद्ध भिक्षु को जिसने काम तृष्णा पर विजय प्राप्त कर करूणा से उस नगर वधू को धम्म पथ पर लाकर उसका कल्याण किया।
यह बोध कथा है। अनुकरणीय है। आज के वासना से भरे संसार में अत्यंत आवश्यक है।
बुद्ध ने कहा- “कामेसुमिच्छाचारा वेरमणी”- यह शील का पालन करने वाले व्यक्ति अनेक अनिष्टों से बच जाते हैं।
– डॉ नन्दरतन महाथेरो , कुशीनगर
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