गलवान घाटी और भारत-चीन विवाद
भारत-चीन का मुद्दा फ़िलहाल सुलग सा रहा है. उस घाटी की कहानी बेहद दिलचस्प है| उस घाटी की शोध काश्मीर के रहने वाले और लद्दाख में जन्मे गुलाम रसूल गलवानी ने की थी |जो कि एक बारह वर्ष का चरवाहा था |
रसूल गलवान ने वर्ष 1890-92 के दरमियाँ इस घाटी की खोज की थी| उस समय रसूल गलवान बारह साल के करीब रहे होंगे| सन् 1892-93 में सर यंग हसबैंड ने व्यापार वास्ते सिल्क रूप के नए-नए रास्ते खोजने की कोशिश के तहत एक अभियान चलाया था| रसूल गलवान भी उसी अभियान का हिस्सा थे | क्योंकि रसूल गलवान और उनके पिता पुराने चरवाहे थे इस इलाके के| जब सर यंग हसबैंड की टीम गलवान घाटी में यह अभियान के तहत भटक गई तो रसूल गलवान ने ही उन्हें रास्ता दिखाया था और टीम को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने में मदद की थी|
रसूल गलवान कई बार उस सुनसान घाटी का दौरा कर चुके थे और उन्हें गलवान नाला के बारे में भी पता था| क्योंकि वे अक्सर इस घाटी, नदी और इस नाले से गुज़रे थे| ब्रिटिश हुकूमत ने इस नदी, घाटी व नदी का नाम रसूल गलवान नाम के आधार पर नामकरण कर दिया| तब से यह इलाका गलवान घाटी के नाम से जाना जाता है|
गलवान ने एक के बाद एक सीढ़ियां चढ़ीं और लेह में ब्रिटिश जॉइंट कमिश्नर के चीफ असिस्टेंट बन गए | करीब 35 साल तक उन्होंने ब्रिटिश, इटैलियन और अमेरिकन एक्सप्लोरर्स के साथ या तो मिशन को लीड किया, या साथ रहे| इन्हीं ट्रिप्स पर गलवान ने अंग्रेजी सीखी और अपनी आत्मकथा लिखी| गनी शेख के मुताबिक, अंग्रेजी में आत्मकथा लिखने वाले शायद पूरे जम्मू-कश्मीर के वह पहले शख्स थे| गलवान को अंग्रेजी के गिने-चुने शब्द ही आते थे।
अमेरिकन एडवेंचरर रॉबर्ट बेरेट के साथ जुड़ने पर गलवान को अंग्रेजी में अपनी कहानी लिखने की धुन सवार हुई| गलवान टूटी-फूटी अंग्रेजी में बेरेट से बात किया करते थे| धीरे-धीरे गलवान ने अंग्रेजी लिखना-बोलना सीख लिया| वह एक कागज पर अपने हर ‘साहिब’ के साथ बिताए अनुभव लिखते और फिर उन्हें अमेरिकन एडिटर तक भेज देते| वह एडिटर कोई और नहीं, बेरेट की पत्नी कैथरीन थी|
करीब एक दशक तक यूं ही अनुभवों के कैथरीन तक पहुंचने का सिलसिला चलता रहा। आखिरकार 1923 में कैम्ब्रिज के एक पब्लिशर ने गलवान की आत्मकथा सर्वेन्ट ऑफ साहिब छापी| इसकी भूमिका सर फ्रांसिस यंगहस थी| उन्हें नहीं पता था कि यह आत्मकथा एक दिन इतिहास का दस्तावेज बन जाएगी|