नव वर्ष अर्थात् समय- निरंतर
विविध घटनाक्रम के पृष्ठों के गतिपथ को पार कर भविष्य को निहारते हुए नववर्ष में आ पहुंचे हैं। पिछली स्मृतियां छूटी नहीं हैं। नववर्ष ठहरकर तटस्थ होकर पूर्व मानुष-मुद्राओं को चीन्हने व यात्रापथ के व्याकरण को समझने का अवसर देता है। समय एक प्रवाह है, काल-निरंतर। सिर्फ सुविधा के लिए हमने उसके खंड बना लिए हैं- वर्ष, मास, दिन इत्यादि। तीन सौ पैंसठ दिनों का एक वर्ष।
बीतते हुए वर्ष केवल संख्या नहीं होते। उसमें हमारे अनुभव होते हैं। हमारी स्मृतियां होती हैं। हम अपना ही रूप उसमें आईने की तरह देख पाते हैं- ‘निज मन मुकुर सुधार। जब हम नववर्ष कहते हैं तो इसका आशय ‘नवता को आकार देना है। समय के सापेक्ष अपने कृत कार्यों को, अपने व्यक्ति को, समाज को नई दृष्टि से नि:संग देखना है। प्रत्येक क्षण नित नूतनमय है। प्रत्येक पल परिवर्तन लिए हुए है।
सीताकांत महापात्र की कविता ‘नया साल’ देखें- ‘ लगता है, शायद कुछ छोड़ आया पीछे। कहीं छूट गया पीछे। दिग्वलय तक फैले खेतों में, डग भरते अकेले-अकेले जाते समय जाड़े की सांझ। दूर गांव के लोग जैसे अदृश्य हो जाते हैं धीरे-धीरे। नदी अपना मोड़ मुड़कर बढ़ जाने पर। सुदूर मोड़ का वह मंदिर, जैसे खो जाता है झीने कोहरे में। कौन आगे बढ़ जाता है? मैं या समय?’ रुकी ट्रेन में बैठे-बैठे न जाने कितनी बार सोचा है, हम भागे जा रहे हैं।
जबकि सचमुच में हमारी बगल से, एक दूसरी ट्रेन राक्षस-सी दौड़ जाती है…। नया घटित जैसा न होते हुए भी नया घटित होता है। ऐसा संभव नहीं कि गतिशील समय में नयापन न हो। वैज्ञानिक, दार्शनिक, साहित्य-शिल्पी सभी इस नएपन को लेकर चलते हैं। सब कुछ नया अच्छा नहीं है, सब कुछ पुराना बुरा नहीं है। इसका उल्टा यानी सब कुछ नया बुरा नहीं है, सब कुछ पुराना अच्छा नहीं है। तो फिर आया मध्य मार्ग। जो संतुलित व श्रेष्ठ है , उसी का चयन वरेण्य है।
कई बार जीवन का रंग धूमिल पड़ता है तो नयापन उसे फिर से सृजित करता है। जो संबंध विरल व फीका पड़ता है, उसे नई डोर से बांधना होता है। पुरानी स्मृतियां भाप की तरह उड़ती रहती हैं। नयापन महज भौतिकता में ही घटित नहीं होता, अपितु वह मन की अवस्था में भी है। जैसे वृक्ष से पत्ते निकलते हैं, वैसे मन में नयापन फूटता है। नए पत्ते प्रसन्नता देते हैं, वैसे ही अपेक्षा रहती है कि नयापन प्रसन्नता प्रदान करे। भारत में नया वर्ष विक्रमी संवत के अनुसार चैत्र मास में आता है किंतु अंग्रेजी प्रणाली के अनुसार जनवरी मास में आता है, जब गुनगुनी धूप होती है। जाड़े का मौसम।
भारतीय मन ने इसे स्वीकार कर लिया है। वह इसे अपना ही समझने लगा है। भारतीय मन में एक उदारता है, वृहत्तरता है। विश्व भर के विचारों, प्रणालियों को अपने हिसाब से वह अनुकूलित कर लेता है। कीट्स, बायरन, शेक्सपीयर, पास्तरनाक इत्यादि उसे अपने ही लगते हैं। बरतते-बरतते मार्क्स, हीगल, ज्यॉ पाल सार्त्र, देरिदा को भी उसने अपने अनुकूल बनाया है।
यदि आपने दूसरे को अनुकूल नहीं बनाया या दूसरे के साथ अनुकूलन नहीं किया तो अकड़ में आप टूट जाएंगे। या तो दूब बनिए या आंधियों में खड़े अपने को संभालिए, नहीं तो टूटना तय है। वैसे भी संस्कृति का कार्य मात्र एकत्रीकरण नहीं, संबंधीकरण है। अस्तु, समकालीन संस्कृति- समीक्षा का वरेण्य यह है कि संबंध जोड़ें। रघुवीर सहाय कहते हैं- हर समय सार्थक अभिज्ञान यही है कि आधार नए मानवीय रिश्ते की खोज होना चाहिए और यह खोज जारी न रहने पर वे परिणाम निकल आते हैं, जिनको आज हम देख रहे हैं- इतिहास और परंपरा की विकृति के द्वारा एक बनावटी इतिहास का निर्माण और आने वाली पीढ़ी की प्रायोजित अशिक्षा।
नयेपन में एक सौंदर्य-निर्मिति है। सुबह का सूरज, नए पत्ते, चिड़ियों के नए पंख, नई कविता का रचा जाना, नए से मिलना, हवा का खुशबूदार नया झोंका इत्यादि। इनमें फूल ही झरते हैं। इस मतलबी कांटों भरी दुनिया में भी फूल ही फूल। बस देखिए, निहारिए, अनुभव करिए।
वर्ष तो नया तब बनता है, जब आप में नई दृष्टि हो। यदि आपमें मानसिक व संवेदनात्मक नवता नहीं है तो जिसे आप नया कहेंगे, वह भी पुराना ही लगेगा। यह नवीनता एक गति है। इसमें इस समय का विशिष्ट अवबोध है- ‘एक जगत रूपायित। एक कल्पना संभाव्य। एक दुनिया सतत मुखर। एक एकांत नि:स्वर। एक अविराम गति, उमंग। एक अचल निस्तरंग। दो पाठ, एक ही काव्य … – अज्ञेय।
काल को देखने के लिए कवि या मनुष्य की चेतना व उसके चित्र की प्रक्रिया का बहुत महत्त्व है। काल उसके लिए व्यतीत क्षणों का संपुंजन मात्र नहीं है। उसमें उसकी चिति, सुख-दुख, देश, समाज, प्रकृति- सब कुछ अंतर्भूत है। इसी काल से गढ़ा गया शब्द अपनी लय में कविता बन जाता है, सुपाठ्य ललित गद्य। उसमें आत्मा का अंतर्संलयन है। वर्ष बदलना अखंड काल की गति का एक आयाम है। इसमें शब्द की एक नई संवित्ति पाते हैं तो नवीनता के कारण, एप्रोच के बदलाव के कारण। वरना ‘वासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।
नववर्ष एक शिल्पी की तरह हमारे चित्त में उतर आता है। वह केवल कैलेंडर बदलने तक सीमित नहीं रहता। वह हमारे नए विन्यास की सम्यक प्रतीक्षा करता है- प्रणय व संघर्ष ललिताभ पुष्प की सुगंध, कुछ विगत की पीड़ा, कुछ आंतरिक आख्यान। एक ओर बिक्री करता सब्जीवाला तो दूसरी ओर विशाल मॉल्स की नई आधुनिकता। नया वर्ष नएपन को नए अंदाज में संतुलित रूप से सोचने व करने का आमंत्रण देता है।
वर्णाक्षर की माला में जिन्हें वंचित रखा गया है, शीत ऋतु में पुआल भी जिन्हें मयस्सर नहीं है, जिनके लिए दिक् ही अंबर है, जिनकी स्मृति में ओस भरे कोहरे हैं, जिनकी आंखों में उपेक्षा के बिंब हैं, नया वर्ष उन्हें और हमें आवाज देता है- ‘प्रतीक्षा करता है कोई। दिगंत में। लोककथाओं से निकल कर। पुकारता हुआ। भात की हांडी के पास। जिसमें चावल डाला जाना है। कहां से आएगा अन्न? कहां से लाएंगे आग? किस दिशा-कोण से? कोई सुनता है? कांपती है शब्दों की थरथराती आत्मा।
नववर्ष को लालित्य के रूप में लें, चाहे वर्ष के रूप में (लालित्य के रूप में ही सही। वह ग्रेगोरियन हो या भारतीय) यह संकल्प का हेतु है, किंतु कोई एक दिन या एक मास नहीं, हर क्षण ही नवता के उत्साह का कारक है। पिछले साल के शब्द पिछले साल की भाषा हैं, अगले साल के शब्द एक और आवाज की प्रतीक्षा कर रहे हैं और यही मांगलिक आंरभ है।
नए साल का अर्थ हममें एक नई आत्मा, नई नाक, नए पैर, नई रीढ़, नए कान और नई आंखों से है। हर चीज के बारे में नए सिरे से दृष्टिपात, नया आलोकपात, नया स्नेहपात, पड़ोसियों के साथ शांति, सम्यक आचार ही आपको नया बनाएगा। कांटों में फूल खोज लेना रेगिस्तान में हरियाली का सृजन और बेगानेपन में आत्मीयता की आभा को पा लेना नयापन है। पुरानेपन को भी नए ढंग से निहारना नयापन है। यही उत्सव है। आलोचना को लोकतांत्रिक ढंग से सहना भी समय को नई धार देना है।
Facebook Comments