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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 6 Sep 2023 6:43 PM |   104 views

श्रीकृष्ण

भगवान श्रीकृष्ण के नाम का अर्थ आकर्षण है इसलिए कर्षति परमहंसानाम इति कृष्णः कहा गया है। इसलिए सारी सृष्टि ही कृष्ण की ओर आकर्षित होती है। सृष्टि के सभी रूप कृष्ण में समाए हुये है, क्योंकि कृष्ण सोलह कलाओं से युक्त पूर्ण पुरूष है। एक बार जो उन्हें देख लेता है, इनमें दिल लगा लेता है, वह इनका हो जाता है।

जीव और ईश्वर दोनों ही रूपों में ये हमारे साथ है। यह बोध होते ही ज्ञान होने लगता है कि सारी सृष्टि की कृष्णमय है, क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण के साधारण से साधारण और विशिष्ट से विशिष्ट भारत में अनेक ग्रन्थ है पर इनके द्वारा युद्व क्षेत्र/कुरूक्षेत्र में दिया गया। गीता का ज्ञान जो लगभग 650 श्लोकों का है तथा 50 श्लोक प्रस्तावना आदि है, सभी मिलाकर 700 श्लोक है जो अपने आप में जीवन के पथ प्रदर्शक एवं कदम कदम पर विश्व को मानवता को प्रेरणा देते है। जो वेदों का साथ वेदांत का मूल आधार आदि है और आम लोगों को अपने आप से जोड़ता है। इनका हम वन्दना करते है।

हमारा भारतीय दर्शन पूर्ण रूप से वेदांत पर आधारित है। हमारे वेदों की उत्पत्ति का वैज्ञानिक दृष्टि से लगभग 10 हजार ई० पूर्व वर्ष माना गया है। इसमें ब्रहम के साथ साथ जीवन की कला को भी उल्लेखित किया गया है। इसमें र्निगुण ब्रहम एवं सगुण ब्रहम के बीच एक अनुभव जन्य ब्रहम की अवधारणा दी गयी है, जिसमें कहा गया है कि ब्रहम सत्यम जगन मिथ्या, ब्रहमेय जीवों न परहः अर्थात जीव और ब्रहम एक ही है अलग नही, आगे कहते है कि अहंब्रहमास्मि अर्थात् हम ब्रहम है इसी को वेदांत के व्याख्या का अपनी-अपनी भाषा में व्याख्या करते है।

लेकिन वेद वेदांत क्या है इस तत्व का खुलासा नहीं करते है। पर इस बात को भगवान श्रीकृष्ण ने अपने 45 मिनट या घड़ी में कुरूक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को सुना दिया था, पर सुनाने के पहले उनको दिव्य दृष्टि दिया गया इस सामान्य दृष्टि से न ब्रहम को देखा जा सकता है और न समझा जा सकता है। क्योंकि परमात्मा का अंश हमारी जीवात्मा है जब हम अपने जीवात्मा को नही जानते तो परमात्मा को कैसे जानेंगे, पर आज कल के कुछ लोगों द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार कराया जाता है, पर उनके पास अपना ही साक्षात्कार नही है। भारी जनसंख्या होने पर लोग अपने कर्म को नही करते है, क्योंकि कर्म के द्वारा ही जीवन का आधार है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।। अर्थात् मनुष्य का अधिकार कर्म करने का है, फल या परिणाम उसके बस में नही है इसलिए आदमी को जिस जगह पर है जिस कार्य में लगाया गया है उस कार्य को ईश्वर को समर्पित है पूर्ण रूप से कार्य करना चाहिए निश्चित फल मिलेगा। वेदांत चाहता है कि आप कर्म प्रवृत्ति की तीव्र लगन के द्वारा परिच्छन्न आत्मा अर्थात् क्षुद्र अहंकार से ऊपर उठें। वेदांत में कर्म का अर्थ है-अपनी असली आत्मा से मेल और विश्व से अभिन्नता। वेदांत के अनुसार घोर कर्म ही विश्राम है। सभी सच्चा काम में आराम ही है। शरीर को तो कर्मशील उद्योग में निरत रखने से, मन को शांति और प्रेम में तल्लीन रखने से यहीं इसी जन्म में पाप और ताप से मुक्ति मिल सकती है।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि नमें पार्थ अस्ति, कर्तव्यें त्रिषु लोकेश अकिंचन अर्थात- संसार में मेरे द्वारा कोई कार्य असम्भव नहीं है तथा कोई कार्य करने की आवश्यकता नही है तो भी मैं कार्य करता हूं। अर्थात जो संसार में जीवधारी है वो कार्य करता है। वो बिना कार्य के रह नही सकता है जैसे- सांस लेना एवं छोड़ना ही कार्य है सभी चौरासी योनि के जीवधारी इस कार्य को करते है। इसलिए सभी को नियत कर्म करते रहना चाहिए।

आज से लगभग 5125 वर्ष पूर्व योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा के कारागार में हुआ था। उस समय मथुरा के तत्कालीन समय में कंश का शासन था, जो भगवान श्रीकृष्ण के मामा थे तथा उनकी मां का नाम देवकी एवं पिता का नाम वासुदेव था। माता देवकी स्वयं अदिति की अवतार थी तथा वासुदेव स्वयं महर्षि कश्यप एवं महाराज दशरथ के अवतार थे। कृष्ण जी के अग्रज बलराम जी शेषनाग के अवतार थे तथा नन्द बाबा दक्ष प्रजापति जी के अवतार थे। माता यशोदा दिति एवं कौशल्या की अवतार थी तथा गर्गऋषि स्वयं बृहस्पति एवं ऋषि वशिष्ठ के अवतार थे तथा कंश स्वयं कालनेमी राक्षस के अवतार थे। मां यशोदा के गर्भ से जो कन्या उत्पन्न हुई थी स्वयं जगदम्बा है जो विन्ध्याचल में निवास करती है।

नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भ सम्भवा। ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी।।

भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के बाद निम्न मंत्रों का जाप करना चाहिएः-
ओम नमों भगवतें वासुदेवाय नमः, ओम देवक्यैं नमः, ओम यशोदायै नमः, ओम बलभद्रराय नमः, ओम कृष्णाय नमः, ओम सुभद्रायै नमः, ओम नन्दाय नमः के बाद चन्द्रमा का मध्य रात्रि में उदय होता है उनको भी प्रणाम करना चाहिए।

ओम सोम सोमाय नमः यह प्रसंग श्रीमद्भागवत के कृष्ण जन्म खण्ड एवं भविष्य पुराण के उत्तर पर्व के 55वें अध्याय में उल्लेखित है। श्रीकृष्ण पूर्ण रूप से भगवान विष्णु एवं राम के ही अवतार थे, पर इनका जन्म मथुरा के कारागार में हुआ था और उस समय दुष्ट कंश का शासन था, जो उनका जन्मोत्सव गोपनीय तरीके से ही मनाया जाता था, पर जब भगवान श्रीकृष्ण एवं बलराम जी ने अपने 14वें वर्ष में अपने मामा कंश का वध किया तब से इनका जन्मोत्सव भव्यता से मनाया जाने लगा है।

यह बात स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने राजा युधिष्ठिर के पूछने पर बतायी थी तथा श्रीकृष्ण जी के जन्म भद्र मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्य रात्रि को हुआ था जब सूर्य सिंह राशि में चन्द्रमा वृष राशि में तथा रोहिणी नक्षत्र होती है तब इनका जन्म के समय का उल्लेख किया गया है। इनकी उम्र लगभग 125 वर्ष थी तथा महाभारत युद्व के बाद इन्होंने लगभग 36 वर्ष द्वारिका पर राज्य किया था जिसका प्रभाव पूरे भूमण्डल पर था तथा महाभारत युद्व के बाद ही इन्द्रप्रस्त एवं हस्तिनापुर का राजा युधिष्ठिर को बनाया गया था। कौरवों के सभी 99 भाईयों को भीम द्वारा मारा जा चुका था तथा एक भाई युयुत्सु स्वयं पहले ही पांडवों से मिल गया था, जिसको राज्य सभा में सम्मानित पद दिया गया था।

भविष्य पुराण में उल्लेख है कि श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाने के समय प्रतिकात्मक रूप से देवकी मां का मूर्ति या चित्र बनाकर जन्म स्थान पर सुतिकागृह बनाना चाहिए तथा दीवालों पर स्वास्तिक एवं मांगलिक चिन्ह का भी निर्माण किया जाना चाहिए। देवकी माता के चित्र में उनके गोद में एक नवजात बालक का कृष्ण के रूप मे चित्रण होना चाहिए तथा साथ में यशोदा माता का भी एक चित्र या फोटो कन्या का चित्र होना चाहिए तथा यह भी होना चाहिए कि देवकी माता का पैर चरण मां लक्ष्मी देवी द्वारा दबाते हुये चित्र का भी अंकन होना चाहिए। उक्त बातें व्यापक रूप से भविष्य पुराण में उल्लेखित की गयी है।

-डॉ मुरलीधर शास्त्री , उप निदेशक सूचना ,अयोध्या धाम 

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