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By : Parichay Das | Published Date : 5 Feb 2023 6:11 PM |   466 views

संत रैदास की कविता : प्रेम के उजाले की कविता

संत रैदास जी की कविता का आलोक उनकी ईमानदारी, विनम्रता और सदाशयता में सर्वथा दिखाई देता है । केवल भक्ति या दीनता उनका पक्ष नहीं। वह तो है ही । उन्हें अब साहित्यिक  सौंदर्य के कवि के रूप में देखने की आवश्यकता है। सामाजिक समंजन, वर्ण और जातियों के हस्तक्षेप के बीच रैदास की सृजनधर्मिता के भिन्न आयाम प्रकट होते हैं। एक निश्छल आभा का संवाहक कवि  जो व्यवस्था के बीच अर्थान्तरन्यास चुनता है। निर्गुण-सगुण भी जहां कृत्रिम विभाजन प्रतीत होता है । जिसकी तेजस्विता से पूरे भारत ( विशेष रूप से उत्तर प्रदेश,  बिहार,  पंजाब , हरियाणा, राजस्थान ,बंगाल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ ,झारखंड , ओड़िशा आदि ) को गति मिलती है और मनुष्य को देखने का नया शास्त्र  भी, वह  रचनाकार फिर से आलोचना में विचार के  योग्य है। क्या बात है कि कबीर की तरह बहुत आक्रामक  न होकर भी रैदास  भाषा में अपनी बात पूरी तरह कहने में समर्थ हैं  तथा कई अर्थों में उनसे आगे जाते हैं। भाषा की चारुता तथा साहित्यिकता  कबीर से उनमें अधिक है।  परिवर्तन की कामना की जो  आँच अंत:स्थल में उनके बहती रहती है वह बहुत लट्ठमार नहीं है और यह लट्ठमार ना होना रैदास का अपना वैशिष्ट्य  है जो विशेष लक्षित किया जाना चाहिए।
भोजपुरी क्षेत्र का होने तथा काशीवास  के कारण रैदास की भाषा में कुछ भोजपुरी भाषिक प्रसंग आते हैं किंतु अधिक नहीं। ऐसा लगता है कि तत्कालीन पद- भाषा  उन्होंने अपनाई और ब्रज में ही अपनी बात कही जिसमें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और उर्दू-फ़ारसी आदि  के शब्दों का भी मिश्रण है। संवाद में  उनके पदों में संस्कृत के तत्सम व  तद्भव दोनों रूप मिलते हैं। कई बार मूल संस्कृत शब्द जो जनजीवन में प्रचलित हैं। यह हो सकता  है , उन्होंने जान  बूझ कर न किया हो पर यह उनका शिल्प बन गया है। उदाहरण के लिए कुछ शब्द देखें –  घृत, पुनीत, अवलोकन, कुटिलता अभिमान,  निर्मल , छत्रपति, संगति  आदि। अरबी-फारसी-उर्दू के जो शब्द भारतीय समाजों में समरस होने लगे थे उनका प्रयोग भी भाषा को प्रभावपूर्ण व संचरणशील बनाने के लिए उन्होंने किया है ( ब्रज ध्वनियों के साथ) , जैसे- गरीब निवाजु  , बंदिगी,  दुनिया फनखाने, सहर , फ़िकर ,  लानत,  हैफ, खता, रहम, औजूद, माबूद, महरम, महल, साहिब , खिजमतगार, कागद आदि।
मानुषिक रहस्यों को रैदास ने बहुत गहरे उतर कविता में ढाला है तथा उनके अंत: पक्ष का भाव पक्ष से अद्भुत अंतरावलंबन दिखता है। अंतःसौंदर्य के विविध रूपाकार कभी प्रकृति में आते हैं कभी मानुषिक स्वभावों में।  एक जगह वे कहते हैं –
 ”फल कारन फूली बनराई  ।
 फलु लागा तब फूल  बिल्हाई ।।”
अपने आसपास के पर्यावरण को कविता का सहज आधार वे देते  तथा सहज संप्रेषित होते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि रैदास जैसा कवि  प्रथम पाठ में आपको खुल जाएगा। रैदास को समझने के लिए कई स्तरों को भेदना होगा । उनकी कविता में दुरूहता नहीं किंतु श्रेष्ठ कविताएं श्रेष्ठ अर्थ के लिए एक सहज भाषाई  मन चाहती ही हैं । प्रेम लक्षणा  शक्ति को वे आधार बनाते हैं –
” जिहि कुल साधु बैसनो होई
बरन अबरन रंक नहिं ईस्वर
विमल बासु जानिए जग सोई
बाभन बैस सूद अरु ख्यत्री
डोम चंडाल म्लेच्छ किन सोई
होइ  पुनीत भगवंत भजन ते
आपु तारि  तारे कुल कुल दोई ।। “
रैदास विश्व की कविता को प्रेम का आधार बनाते हैं।  उनकी दृष्टि में सारी वैश्विक संरचना के मूल में प्रेम ही है। वही असली सौंदर्य है, भक्ति है, विद्रोह है , समाचरण  है। इसीलिए उनकी कविता की रेंज बहुत व्यापक है क्योंकि उसमें प्रेम  की महिमा लहराती रहती है –
” जोगी सर पावँहि  नहीं
तउ गुन कथनु  अपार
प्रेम भगति के कारनहिं
कहि रविदास चमार।”
कविता में रस-प्राप्ति के लिए रैदास ने चींटी का उदाहरण दिया । चींटी को प्रतीक रूप में चुनकर वे स्वयं  के व्यक्तित्व व अपनी कविता के प्रस्थान-बिंदु को भी दर्शाते हैं।  वे लघुता को महत्त्व देते हैं ।  लघुता से जुड़े कंसर्न के पीछे उनकी विनयशीलता की आँच  के साथ सामाजिक संदर्भ भी कम नहीं । लघु मानव को  भारतीय साहित्य में मेरे विचार में रैदास प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने अपने ढंग से  प्रामाणिक, सच्चा व  प्रथम उल्लेखनीय बनाया । इस तरह उन्होंने लघुता को मानवीय विराटता , प्रेम स्फुरण तथा निर्भयता में  बदल दिया। वे भय के विभिन्न स्रोतों पर भी संकेत कर रहे थे जो मानवीय समाजों को आक्रांत किए हुए हैं । अतिशय विनम्रता किंतु सधी हुई साहित्यिक चेतना  से वे कहते हैं –
 ” कहि  रैदास तेरी भगति दूरि है
भाग बड़े सो पावैं ।
तजि  अभिमान मेटि आपा पर
पिपिलिक ह्वै चुनि खावै।।”
पिपिलिक ( पिपीलिका) का अर्थ – चींटी। धूल में शक्कर मिल गई हो तो चींटी शक्कर को अलग करके खा सकती है। यह कार्य हाथी नहीं कर सकता । हाथी अलग कार्य कर सकता है । रस- प्राप्ति के लिए लघुता की प्राप्ति आवश्यक है। इस तरह कविता में अपने तरह की रस-सैद्धांतिकी की  चर्चा रैदास करते हैं । वे सार हीन आनुष्ठिकताओं  के फेर  में नहीं पड़ते।  उनकी भाषा पहाड़ियों  फूलों , सोतों के अन्तर्मर्म से होती हुई कविता रचती है । सबके बीच प्रेम के स्थापत्य को आकार देती है , उसे ही उत्सव समझती   समस्त संबंधों तथा सामाजिक आचरणों का सामंजस्य करती है। यदि अज्ञात से ज्ञात की ओर बढ़ना है तो प्रेम चाहिए,  सामाजिक संरचना में समृद्धि चाहिए तो भी प्रेम ही अपेक्षित है –
 ” जा  देखे घिन ऊपजै
 नरक कुंड में बास ।
प्रेम भगति सों  ऊधरै
प्रगटत जन रैदास।। “
वे चाहते हैं  : समस्त मनुष्यता आपस में ऐसी मिश्रित तथा भेदभावहीन हो , जैसे – चंदन और पानी एक हो जाते हैं। दीपक और बाती , मोती और धागा , सोना और सुहागा एक होते हैं।  विश्व की श्रेष्ठ कविता इसी समंजन और विश्वास का रूपक है जो रैदास चाहते हैं।
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