बुद्ध-दृष्टि की साहित्यिक समकालीनता पर केंद्रित नव नालंदा महाविहार में व्याख्यान आयोजित
नव नालन्दा महाविहार सम विश्वविद्यालय, नालंदा में अमेरिकी अंग्रज़ी साहित्य के मर्मज्ञ तथा नालंदा विवि, राजगीर के पूर्व अंग्रेज़ी प्रोफ़ेसर प्रो. सुखवीर सिंह का व्याख्यान हुआ, जिसमें उन्होंने
अकादमिक जीवन व साहित्य में बुद्ध- दृष्टि ‘ पर अपने विचार रखे।
उन्होंने इस अवसर पर कहा कि ईसाइयत पूरे यूरोप में है। यूरोप में एक साइन्टीफिक टेम्पर रहा था। सामाजिक विकास- क्रम में आप सभी जानते हैं कि नकद की प्राप्ति में लोग गाँव से शहर आए। वहां भी आए । कार्ल मार्क्स के लिए ‘धर्म’ अफीम की पुड़िया रहा है। यद्यपि मार्क्सवाद यूरोप की पैदाइश है। आप सभी जानते हैं कि प्रथम विश्वयुद्ध एक ट्रेड वार था। बाद में, ईसाइयत के अनेक प्रश्नों से जूझते हुए लोग अन्य धर्मों के प्रति आकर्षित हुए। बुद्ध -दृष्टि व ईसाइयत के द्वंद्व को दर्शाते लेखक हरमन हेस के उपन्यास ‘सिद्धार्थ’ में बौद्ध-दर्शन व दृष्टि देख सकते हैं।
आधुनिक काल के साहित्य व जीवन में पुराने सारे मूल्यों को नष्ट करने व नए के समारम्भ की बात यूरोप व अमेरिका में आई। आधुनिकता के विचारों का सम्प्रचार हुआ। राष्ट्रवाद, राष्ट्र, देश के प्रति बलिदान, कर्तव्य- भावना आदि की नई अवधारणाएँ विकसित हुईं। यदि हम जीवन से सम्बद्ध न हों तो मृत्यु से जुड़े होंगे।
एक अन्य पुस्तक है- S. ( एस डॉट )।यह स्त्री विमर्श को लेकर है। बज्रयान बुद्ध धर्म के प्रसंग आते हैं। इसमें बुद्ध- दृष्टि को नया रूप मिलता है। एक ईसाई लेखक का बुद्ध दृष्टि के आस- पास बुने उपन्यास को पठनीय माना जा सकता है।
बुद्ध दृष्टि पर आधारित साहित्यिक रचनाओं में संसार के असार अस्थायित्व को समझने की कोशिश है। आज रिश्तों में हिचक है। बेहतर यह है कि अपने लगावों में न दूर जाएँ , न पास। न हिंसक हों, न अहिंसक। मध्य मार्ग।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे कुलपति प्रो वैद्यनाथ लाभ ने अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में कहा कि बुद्धधर्म आज आधुनिक साहित्य को आधारभूत स्वर देता है। अपने विभिन्न रूपों, विचारों और भू-स्थानों में, बुद्ध की शिक्षाएं 20वीं और 21वीं सदी के साहित्यिक सांस्कृतिक उत्पादों में दिखाई देती हैं। इस अभिसरण के उत्पाद विश्वबंधुता और समभाव जैसे आधुनिकता के चिह्न धारण करते हैं।
आधुनिक साहित्य के लिए बुद्ध दृष्टि मेटानैरेटिव्स को सम्बोधित करती है, सीमाओं के धुंधलापन, शैली की सीमाओं सहित। एक आत्म-प्रतिबिंबन जो मानुषिक पहचान के मुद्दों को उजागर करती है साथ ही, सांसारिकता के महत्त्व के साथ-साथ पारंपरिकता के विज्ञान के साथ संवाद को आधार देती है।
संचालन करते हुए प्रो. राणा पुरुषोत्तम कुमार ने कहा कि बुद्ध-दृष्टि समय के पार जाती है, इसलिए आज के साहित्य में उसका प्रभाव है।
कार्यक्रम में नव नालंदा महाविहार के आचार्य ,शोध छात्र, अन्य छात्र तथा नालंदा विवि, राजगीर की दो सहायक आचार्य उपस्थित थीं।
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