Wednesday 24th of April 2024 04:06:30 AM

Breaking News
  • नितीश कुमार की अपील , बिहार की प्रगति को रुकने न दे , NDA का करे समर्थन |
  • इंग्लिश चैनल पार करते समय एक बच्चे सहित कम से कम पांच लोगो की मौत |
  • संकट से निपटने को बनायीं गयी पूंजी बफर व्यवस्था लागू करने की जरुरत नहीं -RBI
Facebook Comments
By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 14 Sep 2022 7:45 AM |   430 views

नये समय में हिंदी एवं भारतीय भाषाएं

किसी भाषा की परंपरा में जो कुछ मूल्यवान है वह जीवित रहेगा और विकसित होगा।
किसी भी भाषा की एक परंपरा होती है। भाषा को उसके व्यवहार व प्रयोग के आधार पर गति मिलती है। जिस भाषा का सामाजिक उपयोग ही नहीं होगा, वह विलुप्त होने की स्थिति में पहुंच जाएगी।
 
भाषा का लिखित व बौद्धिक उपयोग भी जरूरी है, ताकि विविध, ज्ञान-विज्ञानमय संदर्भ सुरक्षित रहें वरना मात्र मौखिकता उसे रसोई-भाषा तक ही सीमित रखेगी। भाषा को विद्या की आधार भूमि बनाए रखने से उसकी प्रगति अवश्यंभावी होती है। भाषा के लोक स्वर व मौखिकता में एक खनक होती है तो उसकी लिखितव्यता में उसका लालित्य। यानी हर भाषा का अपना सौंदर्य विधान होता है। यह सौंदर्य पक्ष उसकी अपनी जमीन, वहां के लोगों के आत्यंतिक-सामाजिक संबंध, तकनीक, पारिस्थितिकी आदि से आता है। किसी भाषा की परंपरा में जो कुछ मूल्यवान है वह जीवित रहेगा और विकसित होगा।
 
भाषा मात्र शिल्प से निर्धारित नहीं होती। यह आवश्यक है कि भाषा के अंदर जाया जाए व बाहर भी रहा जाए। यह समझ भी हो कि हमारी व्याख्या व बोधगम्यता से भाषा की परंपरा को सतत रचना, फिर से अभिव्यक्ति और पुनराविष्कार भी मिले। भारतीय भाषाओं की परंपरा को सामान्य विधि से परिभाषित करेंगे तो बहुत सफलता हाथ नहीं आएगी। जैसे-विश्लेषणात्मक, दृश्यात्मक, भाष्यात्मक या ऐतिहासिक। नई सोच आवश्यक है और मूल्यवान है कि जो सोचा जाए, उसे जमीन पर कैसे उतारा जाए। भारतीय भाषाएं व उनका साहित्य बहुत समृद्ध है।
 
स्वतंत्रता के बाद इनका विधाशास्त्र के पक्ष में जैसे विमर्शीय उपयोग होना चाहिए था, वैसा संभव नहीं हुआ। उदाहरण के लिए समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, कला, सिनेमा, शिक्षाशास्त्र, विमान, तकनीक, वास्तुशिल्प, अभियंत्रण, चिकित्सा आदि पर बेहतरीन किताबें भारतीय भाषाओं व हिन्दी में दुर्लभ हैं। थोड़ा-बहुत पाठ्यक्रमों को ध्यान में रखकर जो किया गया, वह अपर्याप्त है या मुहावरे में कहें तो ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर है।
 
जब पाठ्यक्रम के लिए ही पुस्तकें पर्याप्त न होंगी और उनमें विमर्श ही न होगा तो भाषा अपने उत्कर्ष को कैसे प्राप्त करेंगी? समकालीन भारत में भाषा का जो शक्ति या सत्ता विमर्श है, उसमें पहले से चली आ रही अंग्रेजी की मूल जगह है। अंग्रेजी की आज बहुत जरूरत है और उसे जानना आधारभूत कौशल, क्योंकि उससे जीविका व विद्या के कई द्वार खुलते हैं। उसका विश्व के कई देशों में प्रसार भी है। उसके जानने से हमारे लिए कई चीजें आसान हो जाती हैं। कहने के लिए हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाएं राजभाषा के रूप में रखी गयी हैं किन्तु बिल्कुल श्रीहीन रूप में। इनका उपयोग न के बराबर ही होता है।
 
केंद्रीय स्तर पर फाइलों में दस प्रतिशत भी हिन्दी उपयोग में नहीं लायी जाती- ऐसा विशेषज्ञों का मत है। हिन्दी को पिछड़े रूप में देखने की सम्मति बना ली गयी है। नीति निर्धारक व परिपालक हिन्दी से दूर रहने में अपने को बेहतर मानते हैं। वे सोचते हैं, ‘कौन झंझट में पड़े, अनुवाद प्रक्रिया से गुजरे? अंग्रेजी में कार्य करो उसको वे अंग्रेजी के अखिल भारतीय प्रसार से भी अनावश्यक रूप से जोड़ देते हैं।
 
स्पष्ट है कि हिन्दी व भारतीय भाषाओं के प्रति साफ, भविष्यकामी नीति नहीं है। उस पर साम्राज्यवादी छाया भी है। यह न भूलें कि भाषा के ग्लोबलाइजेशन (भूमंडलीकरण) के पक्षों को लेकर भी अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ा है। विश्व के दबंग निर्धारक कुछ चीजें तय कर रहे हैं, जिनमें एक-सा पन है, उनमें भाषा भी है और वह प्रमुखत: अंग्रेजी है। बेशक अंग्रेजी का विरोध करना समय से पीछे जाने की प्रक्रिया है पर मूल बात है, अपनी भाषा के सम्यक उपयोग की।
 
आखिर हम अपनी भाषा को उपयोग में नहीं लायेंगे तो कौन लाएगा? भाषा केवल सांख्यिकी का विषय नहीं कि कितने लोग इसका उपयोग करते हैं। यह हमारा सांस्कृतिक प्रश्न भी है। जब भी आप अपनी भाषा का उपयोग करते हैं तो उसमें कल्पनाशीलता सर्वाधिक होती है। यह एक भाषा-वैज्ञानिक तथ्य है। उसकी जीवंतता, आत्माभिमान व अभिव्यक्ति का कोण भिन्न होता है।
 
 
हिन्दी या भारतीय भाषाओं से आप अपनी जड़ों में प्रवेश करने का सामर्थ्य व सुख हासिल करते हैं- यानी परंपरा का पुनर्निर्माण, पुराने सपनों की नई परिकल्पना और एक पुनर्नवीकरण। दक्षिण एशियाई देशों में तो हिन्दी व भारतीय भाषाओं के संप्रसार की संभावनाएं हैं ही, अन्य उप महाद्वीपों में भी यह कार्य होना चाहिए। इसके लिए एक नीति बननी चाहिए। पहले तो अपने देश में इसे शासकीय स्तर पर ईमानदारी से लागू करें, इसके साथ-साथ अन्य देशों में इन्हें विकसित करें। इसे निर्यात व आयात के प्रकरण से भी जोड़ सकते हैं।
 
यह अच्छी बात है कि वर्तमान शासन-व्यवस्था हिन्दी को उपयोग करने की बात ला रही है। यह चिंता मंत्रि-स्तर पर ही यह नहीं आनी चाहिए बल्कि अमलातंत्र (ब्यूरोक्रेसी) में हिन्दी को लेकर जो हिचकिचाहटें हैं तथा उसका जो एक माइंडसेट बन गया है, उस जड़ता को भी तोड़ना होगा। कार्ययोजनाओं की टिप्पणी, निस्तारण भी हिन्दी में होना चाहिए।
 
लोकसभा, राज्यसभा, मंत्रालयों, कार्यालयों आदि सभी में यदि हिन्दी उपयोग में लायी जाए तो हमारी भाषा का स्वर्णकाल आ सकता है। दूसरे देशों के राष्ट्राध्यक्षों से संवाद हिन्दी में हो तो निश्चित रूप भाषाई स्तर पर हममें दृढ़ता बढ़ेगी।
 
सरकार के शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर इसमें उम्मीद बंधती दिख रही है। यह केवल प्रतीकात्मक नहीं होगा। हिन्दी को विश्वस्तर पर पहुंच बढ़ाने में सुविधा होगी। संयुक्त राष्ट्र में अपनी बात हिन्दी में ही भारत रख सके तो बेहतर होगा। इससे हिन्दी को सर्वोच्च ऊंचाई मिल पाएगी। इससे एक अच्छा संदेश जाएगा। भाषा के प्रति सम्मान का भाव आएगा। औपनिवेशिक दासता की तलहटें हटेंगी। दुनिया की कई भाषाएं जानना अलग बात है और अपनी भाषा का उपयोग करना अलग बात। आधुनिक दुनिया में अपनी बात को कहना एक अलग आराम है और उसमें औद्योगिक क्रांति, विज्ञान, अग्रगामीकला, नया सौंदर्यबोध, नई उत्पादन- प्रक्रियाएं, उत्पादन संबंध, नये औद्योगिक नागरिक समाज के उद्भव आदि शामिल हैं। तकनीक ने भाषा के स्वरूप व उसके इस्तेमाल का तरीका बदल दिया है।
 
हमें दुनिया की अन्य भाषाओं से भी जुड़े रहना होगा। यह अच्छी बात है कि वर्तमान शासन व्यवस्था हिन्दी व भारतीय भाषाओं के उपयोग पर बल दे रही है। यदि ज्ञान-विज्ञान-विद्या के विमर्श के लिए हिन्दी का उपयोग हो सके तो यह हमारी बड़ी सफलता होगी। अखिल भारतीय परीक्षाओं में हिन्दी व भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठित जगह हो, यह सुनिश्चित होना चाहिए। यदि नेता हिन्दी में वोट मांग कर सत्ता में आ सकते हैं तो उसी भाषा में काम क्यों नहीं कर सकते? जरूरी है, उसी भाषा में समूची ब्यूरोक्रेसी भी सक्रिय हो। यह यों ही नहीं हो सकता। क्योंकि भाषाई गुलामी की तलहटें वर्षो से जमी हैं, इसलिए उन्हें हटाना होगा। भारतीय भाषाओं और हिन्दी में उच्च कोटि की पाठ्य-सामग्री भी लाने की कोशिश शासन व्यवस्था को करना चाहिए। इसके बगैर सारी बातें हवाई होंगी।
 
यदि ईमानदारी से प्रयत्न किया जाए तो हिन्दी व भारतीय भाषाएं केंद्रीय व जनाकांक्षा की जगह पा सकती हैं। भारत व संयुक्त राष्ट्र संघ में उन्हें लाना (सही स्थान व सही रूप में लाना) एक नये युग का परिचायक होगा।
 
– परिचय दास
प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग
नव नालंदा महाविहार सम विश्वविद्यालय ( संस्कृति मंत्रालय , भारत सरकार), नालंदा
Facebook Comments