रेणु का साहित्य’ विषय पर आभासी संगोष्ठी का आयोजन किया गया
नव नालन्दा महाविहार सम विश्वविद्यालय , नालंदा के हिन्दी विभाग द्वारा फणीश्वरनाथ रेणु जन्म-शताब्दी वर्ष के समापन- समारोह का आयोजन किया गया। इस अवसर पर ‘फणीश्वरनाथ रेणु का साहित्य’ विषयक आभासी संगोष्ठी आयोजित हुई।
हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो. रवींद्र नाथ श्रीवास्तव ‘परिचय दास’ ने प्रास्ताविक व्याख्यान देते हुए कहा कि भारत में ग्रामीण जीवन की प्रमुख निर्मितियों के विपरीत रेणु के गाँव न तो अपनी भू-सांस्कृतिक विशिष्टताओं से खाली हैं और न ही परम्परा से रहित । इसके बजाय, एक पिछड़े क्षेत्र का परिदृश्य उन विवरणों से भरा हुआ है जिन्हें किसी अन्य रूप में स्थानांतरित नहीं किया जा सकता ।
रेणु का ‘क्षेत्रीय-ग्रामीण’ शिल्प-कौशल परस्पर जुड़े तीन कारकों पर निर्भर था। इनमें प्रेमचंद जैसे अपने पूर्ववर्तियों से उन्हें अलग करने वाले भाषा-रूपों का उनका अभिनव उपयोग शामिल है; उनकी वृहत मात्रा में जानकारी जुटाना, जिसे इस क्षेत्र की सांस्कृतिक स्मृति कही जा सकती है तथा कहानी कहने की उनकी तकनीक ।
ये तीनों मिलकर एक विशेष ऐतिहासिक मोड़ पर क्षेत्र के पुनर्निर्माण के लिए एक आधार तैयार करते हैं। उपन्यास की गैर-रैखिक कथा- संरचना रेणु को कई मिथकों, प्रदर्शनकारी कलाओं और परंपराओं को प्रस्तुत करने में सक्षम बनाती है, जो क्षेत्र की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत पर जोर देती है।
रेणु के आंचलिक लेखन ने हिंदी साहित्य में एक शहरी, महानगरीय प्रवृत्ति को चुनौती दी : पाठक को गाँव में, उसके रीति-रिवाजों और परंपराओं, उसके विचारों के पैटर्न के बारे में जागरूक करते हुए अतिथि वक्ता डॉ कुमार अनिल ने कहा कि
साहित्य में आंचलिक उपन्यासकार की प्रतिष्ठा हेतु रेणु जी का बहुचर्चित आंचलिक उपन्यास ‘मैला आँचल’ ही पर्याप्त है।
इस उपन्यास ने न केवल हिंदी उपन्यासों को एक नई दिशा दी बल्कि इसी उपन्यास से हिंदी जगत में आंचलिक उपन्यासों पर विमर्श प्रारंभ हुआ। आंचलिकता की इस अवधारणा ने उपन्यासों और कथा साहित्य में गाँव की भाषा, संस्कृति और वहाँ के लोक जीवन को केंद्र में ला खड़ा किया।
डॉ राहुल मिश्र ( अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, बौद्ध विद्या अध्ययन संस्थान सम विश्वविद्यालय, लेह- लद्दाख) ने कहा कि रेणु की चिड़ियाँ भी संवाद करती हैं। यह एक नई दृष्टि है।
रेणु ग्रामीण जनजीवन के यथार्थ के कथाकार है। रेणु की आत्मा गाँवों में बसती है। वास्तव में यह बात उनके संदर्भ में सच भी है क्योंकि वे गाँव के हर एक पक्ष को चाहे वह गरीब किसान हो मजदूर हो या फिर कोई राजनीतिक भूमिका निभाने वाला पात्र अथवा जमींदार हो उसके हाव-भाव या उसके अन्दर की भावनाएँ कि वह दूसरे के प्रति क्या दृष्टिकोण रखता है, सबका पूर्ण रूप प्रस्तुत करते हुए ग्रामीण समाज के यथार्थ की ओर संकेत करते हैं।
डॉ. राहुल सिद्धार्थ ( सहायक आचार्य, साँची बौद्ध एवं भारत विद्या अध्ययन विश्वविद्यालय, साँची) ने कहा कि रेणुजी की अगाध आस्था अपने अंचल की सोंधी गंध से रही। उन्होंने उन वृत्तियों को गहराई से देखा, जहाँ परम्पराएँ, विश्वास, प्रथाएँ, रीति-रिवाज, त्योहार, पूजा, अनुष्ठान, व्रत, जादू-टोना आदि वहाँ के लोकमानस में संघटित हैं। इसीलिए उस चित्रण में बिम्बमय दृश्य जगत् उपस्थित हो जाता है, जो प्रेमचंद के बाद किसी कथाकार में दिखाई नहीं देती।
फणीश्वरनाथ रेणु ही ऐसे कथाकार हैं, जिन्होंने आंचलिक चित्रण को कथा-साहित्य में पृथक रचना-पक्ष के रूप में संस्थापित किया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए नव नालन्दा महाविहार सम विश्वविद्यालय के सम्मान्य कुलपति प्रो वैद्यनाथ लाभ ने कहा कि रेणु की रचनाएँ महानगरीय क्षेत्र से दूर एक जीवंत सांस्कृतिक परंपरा को प्रदर्शित करती हैं । वे मैथिल क्षेत्र को आकार देने वाली कई आवाजों, परंपराओं और इतिहास से सहायता प्राप्त करती हैं। साथ ही, ये आवाजें ‘मैला आँचल’ के किसी भी पाठक को गाँव के भीतर विचार के विभिन्न पैटर्न में एक झलक प्रदान करती हैं, गांव की समरूप इकाई के रूप में किसी भी धारणा को चुनौती देती हैं। इसके अलावा उनके उपन्यासों का नया पारिस्थितिक रूप हिन्दी कथा को नया विन्यास देता है।
संचालन करते हुए हिन्दी विभाग के प्रो. हरे कृष्ण तिवारी ने कहा कि रेणु का कथाकार व्यक्तित्व तो मूल्यवान था ही किन्तु हिन्दी की अन्य विधाओं में भी उन्होंने दृष्टि सम्पन्न रचनाएँ दीं। रिपोर्ताज़, संस्मरण , रेखाचित्र व कविता आदि में बिल्कुल नई भाव भूमि को प्रस्तुत किया। वे भाषा के धनी थे।
आभासी कार्यक्रम में डॉ नीहारिका लाभ, नव नालन्दा महाविहार के सम्मान्य आचार्य, शोध छात्र, अन्य छात्र , गैर शैक्षणिक सदस्य एवं महाविहार से बाहर के रेणु प्रेमी आदि उपस्थित थे।
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