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By : Kripa Shankar | Published Date : 23 Feb 2022 6:47 PM |   619 views

संत गाडगे

कुछ तो महल  अटारी का ख्वाब लेकर सोते हैं, लेकिन कुछ तो अपने लिए झोपड़ी तक न बनाके भीख मांग कर के समाज में रह रहे शोषितों,वंचितों और पिछड़ों के लिए धर्मशालाएं एवं स्कूल कालेज तक बनवा दिए। ऐसे गिने चुने नामों में हम संत  गाडगे का नाम बड़े मान- सम्मान से लेते हैं।

गाडगे जी का जन्म  23 फरवरी 1876 को महाराष्ट्र के अमरावती जिले के शेंद्रओं  गांव अंजनगांव  में हुआ था। इनके बचपन का नाम डेबूजी झिंगराजी जनोरकर था। उन्होंने महाराष्ट्र के कोने कोने में अनेक धर्मशालाएं,गौशालाएं,चिकित्सालय,विद्यालय और बच्चों को पढ़ने के लिए बहुत से छात्रावास बनवाए।
यह सब  उन्होंनेभीख मांग मांग कर बनवाया। किंतु अपने सारे जीवन में इस महापुरुष ने अपने लिए एक कुटिया तक नहीं बनाई, उन्होंने धर्मशाला या आस पास के पेड़ों के नीचे ही अपनी पूरी जिंदगी बिता दी।
यद्यपि बाबा अनपढ़ थे किंतु बुद्धिवादी थे।पिता जी के मृत्यु के बाद वे बचपन से ही अपने नाना के पास रहने लगे और गाय चराने उनको पालने पोसने के साथ खेती बारी का काम करते थे।
अंधविश्वास तथा रूढ़िवादिता से दूरी-
सन 1905से1917 तक अज्ञात वास में रहने के बाद वे जीवन को बहुत ही नजदीक से देखे। अंधविश्वास, बाह्या डंबर , सामाजिक , रूढ़िवादी विचारों,दुर्व्यसनों और अन्य गलत राह पकड़ कर चलने से समाज को कितनी भयंकर  हानि हो सकती है,इसका उन्हें भलीभांति अनुभव हुआ। इसी कारण उन्होंने इन सभी बुराइयों का घोर विरोध किया।
वे कहा करते थे कि,तीर्थों में पंडे,पुजारी या ब्राह्मण सभी भ्रष्टाचारी होते हैं। धर्म के नाम पर होने वाली पशुबलि के भी वे विरोधी थे। यहीं नहीं नशाखोरी, छूआ- छूत की सामाजिक बुराइयों  तथा मजदूरों और किसानों के शोषण के भी प्रबल विरोधी थे। हमारे भारत में आज भी संत ,महात्माओं और ब्राह्मणों के चरण छूने की प्रथा आज भी है,जिसके वे जीवन पर्यंत विरोधी रहे।
गंदगी देखते, झाड़ू लेकर शुरू हो जाते-
बाबा ने अपने पास कटोरे नुमा एक मिट्टी का पात्र रख लिया था,वे गांव घर गली या आस पास कही भी गंदगी देखते, झाड़ू लेकर शुरू हो जाते। इस दौरान कोई उन्हें कुछ खाना देता तो उसी में खा लेते। कुछ लोग जब पैसा देते थे तो थोड़ा पैसा रखकर बाकी गांव के मुखिया को यह कहकर दे देते कि यह पैसे गांव की साफ सफाई पर खर्च करें।
एक  लकड़ी, फटी पुरानी चादर और मिट्टी का बर्तन जो खाने पीने और कीर्तन के समय ढपली का काम करता था,यहीं उनकी संपत्ति थी। इसी से उन्हें महाराष्ट्र के भिन्न- भिन्न भागों में  कहीं मिट्टी के बर्तन वाले बाबा तो कहीं चितढ़ी गुदड़ी वाले बाबा के नाम से पुकारा जाता था।लेकिन उनका वास्तविक नाम आज तक कोई भी नहीं जान पाया।
बाबा ने किसी को शिष्य नहीं बनाया था लेकिन जिन्होंने उनके मार्ग पर चला वह पत्थर से देवता बन गया।वे सदैव घूमते फिरते रहते थे।उनका कहना था ,साथे थे थे धु चलता भला,गंगा बहती भी। बाबा की संत मंडली में सभी जाति के लोग आते थे।अमीर या गरीब अपने हैसियत से कुछ न कुछ पैसा लाते थे।बाबा उन सभी पैसों का साप्ताहिक भंडारा करवाते थे।कबीर दास के विचारों से प्रभावित कहा करते थे कि-
कबीर कहें कमाल को,दो बातें लिख लें
कर साहेब की बंदगी,और भूंखे को कुछ दें
13  दिसंबर 1956 को संत गाडगे जी की  तबियत  अचानक खराब हो गई और 17दिसंबर को और अधिक बिगड़ गई। जब 19 दिसंबर को  अमरावती से अस्पताल जाने लगे तो सभी को बाबा ने गोपाला गोपाला भजन गाने को कहा। जैसे ही बलगांव पिढ़ी नदी के पास गाड़ी आई बाबा मध्य रात्रि 12.30 बजे यानी 20दिसंबर 1956 को ब्रह्मलीन हो गए।
संत गाडगे बाबा के महान संदेश-
1.भूखे को रोटी(अन्न) दो ।
2.प्यासे को पानी पिलाओ।
3.वस्त्र हीन लोगों को वस्त्र दो।
4. गरीब बच्चों की शिक्षा में मदद करो, हर गरीब को शिक्षा देने में योगदान दो।
5. बेघर लोगों को आसरा दो।
6.अंधे ,विकलांग और बीमार व्यक्तियों की सहायता करो।
7.बेरोजगारों को रोजगार दो।
8.पशु पक्षी और मूक प्राणियों को अभयदान दो।
9. गरीब और कमजोर लोगों के बच्चों की शादी में मदद करो।
10.दुखी और निराश लोगों को हिम्मत दो।
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