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By : Kripa Shankar | Published Date : 24 Jun 2021 12:27 PM |   530 views

ढाई आखर प्रेम का

कबीर दास प्रेम का  संदेश एवं समाज को नई दिशा देने वाले संत थे। जहां प्रेम है वहीं खुशी है,जहां खुशी है वहीं ईश्वर का निवास होता है। अहंकार, ईर्ष्या, राग,द्वेष,माया मोह से विमुक्त होकर ही मनुष्य  ईश्वर प्राप्ति की कल्पना कर सकता है। वह किस रूप में आपके साथ रहता है,  आपको ही निर्धारण करना होता है।इसको कबीर ने अपने दोहों या साखियों में विस्तार पूर्वक बताया है।

मुख की मीठी जो कहे,हिरदे है मति आन
कहे कबीरा तेहि लोग से, रामा बड़ा सयान
ऐसी बानी बोलिए,मन का आपा खोय
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय

जग में बैरी कोई नहीं ,जे मन शीतल होय
या आपा को डारि दे, दया करै सब कोय

मान बड़ाई ना करे,प्राण ना बोले बोल
हीरा मुख से ना कहें, लाख हमारा मोल

शब्द शब्द सब कोई कहें, शब्द का करो विचार
एक शब्द शीतल कहें, एक शब्द दे  जार

कबीर अपने को काशी से जोड़ने व यहां की धरती पर जन्म लेने पर अपना शान और स्वाभिमान समझते थे। बड़े ही सम्मान से कहते भी थे।मैं काशी का एक जुलाहा,बूझहु मोर गियाना।

संत कबीर जाति धर्म और संप्रदाय  से सर्वोपरि ज्ञान को ही मानते थे। वैष्णव संत रामानंद के शिष्य होते हुए भी वे निर्गुण राम के उपासक थे और धर्म संप्रदाय में व्याप्त कुरीतियों के प्रति लोगों को आगाह करते हुए जागरूक भी करते थे। कबीर की वाणी में  जहां वैष्णवों की अहिंसा थी, वहीं सूफियाना प्रेम भी था।

उन्होंने स्पष्ट किया है की अहंकार और माया मोह केवल भक्ति मार्ग से ही संभव है,लेकिन मंदिर मस्जिद में जाकर पूजा पाठ वाले भक्ति से नहीं। वे कहते थे की एक ही तत्व सभी जीवात्मा में है तो, जाति – पांति, धर्म ,छुआ- छूत और ऊंच- नींच की सोच में पड़े लोग अपने को गर्त में क्यों डाले हुए हैं। सभी की सोच में तो केवल मानव पीड़ा ,दूसरे का दुःख दर्द देखने एवं उनको निवारण करने की सोच होनी चाहिए।

कबीरा सोई पीर है,जो जाने पर पीर
जो पर पीर न जानई, सो काफिर बे पीर

निर्गुण संप्रदाय के उपासक-

कबीर दास निर्गुण संप्रदाय के उपासक थे तथा निर्गुण संप्रदाय के कवियों में  सर्व प्रमुख हैं। कबीर के दोहे में चाहे सधुक्कड़ी हो अवधी ही अथवा पंचमेल खिचड़ी हो  लेकिन  उनकी  जन जन तक पहुंचने वाली भाषा आम जन की भाषा है।

कबीर ग्रंथावली,कबीरपंथ, बीजक और कबीर के दोहे इनके प्रमुख लेख थे। कबीर दास जी को स्कूली विद्या का ज्ञान तो था नहीं इसलिए उनके उपदेशों का प्रथम संकलन उनके उत्तराधिकारी संत धर्मदास ने ” बीजक ” नाम से किया था।बीजक  तीन खंडों में विभाजित है |

1-साखी 2-शबद 3- रमैनी

कबीर की भाषा शैली यद्यपि परिमार्जित नहीं है, फिर भी उनकी उक्तियों में प्रभावत्मकता का अभाव नहीं है। कबीर के वचन अनुभवजन्य है।इनके ज्ञान और कर्म का मणिकांचन संयोग था जो आज भी अनुकरणीय है। कबीर के समाज की अवधारणा व्यापक है, जिसमें सिर्फ मनुष्य ही नहीं जीव जंतु और वनस्पति भी सम्मिलित हैं।

एक अचंभा देखा रे भाई,
ठाड़ा सिंह चरावे गाई

फूली फूली चुन लिए कालि हमारी बार
माली आवत देख कर कलियां करें पुकार

जीवन परिचय-

कबीर दास को जुलाहे के रूप में जाना जाता है।लेकिन उनके जन्म को लेकर बहुत किंवदंतिया भी हैं।   कहते हैं कि रामानंद स्वामी ने एक विधवा ब्राह्मण स्त्री को गलती से पुत्रवती होने आशिर्वाद दे दिया था,समाज के डर से उस स्त्री ने बच्चे का जन्म होते ही वाराणसी, लहरतारा ताल के पास फेंक दिया,जो कि नीरू  नाम के जुलाहे  को मिल गया।
नीरू जुलाहा और नीमा  कबीर के असली माता पिता थे या नहीं , इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। परंतु कबीर जी ने अपने जीवन में जाति – धर्म से ऊपर       उठकर काम किया और समाज को संदेश दिया जिसके कारण आज अपने ही देश में ही नहीं अपितु विदेशों में भी कबीर के अनुयाई या गैर अनुयाई  धर्म,  जाति और संप्रदाय  से ऊपर होकर इनके व्यक्तिव का सम्मान करते हैं।
कबीर दास जी का जन्म वाराणसी के लहरतारा  में संवत 1456 के आस पास हुआ था। पालन पोषण माता नीरू तथा पिता नीमा ने किया था। पत्नी लोई  कमाल बेटा तथा कमाली  बेटी  थी। कर्म भूमि बनारस की धरती को ही बनाया तथा कर्म क्षेत्र समाज सुधारक कवि के रूप में । 65 वर्ष की आयु कबीर की मृत्यु  संवत 1521 में मगहर में हुआ। कबीर ग्रंथावली,कबीरपंथ, बीजक और कबीर के दोहे इनके प्रमुख लेख थे। इन्होंने रामानंद को अपना गुरु होना स्वीकारा है रामानंद चेताए

कहा जाता है की कबीर दास जी जन्म से मुसलमान थे,मगर रामानंद को गुरू मानने के बाद हिंदू बन गए थे। लेकिन हिंदू मुस्लिम के वाद -परिवाद में न पड़कर इन्होंने सामाजिक एकता और आम जनमानस में आपसी प्यार जगाने के उद्देश्य से  हिंदू,मुस्लिम , पंडा,पुजारी मंदिर मस्जिद को आधार बनाकर एक सकारात्मक संदेश दिया और  सभी धर्मो में व्याप्त पाखंड पर करारा प्रहार किया है,जो आज के परिवेश में  शांति और अमन चैन के लिए शत प्रतिशत खरा उतर रहा है।

मुसलमानों के लिए-

कांकर पाथर जोरि कै ,मस्जिद लई चुनाय,
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे,क्या बहरा हुआ खुदाय
बकरी पाती खात है , ताको काढ़ी खाल
जो नर बकरी खात है,वाको कौन हवाल

हिंदुओं के लिए-

मल- मल धोए शरीर को,धोए न मन का मैल,
नहाए गंगा गोमती ,रहे बैल के बैल

हिंदू अपनी करे बड़ाई, गागर छुवे न देहि
वेश्या के पाइन पर सोवे,यह देखो हिंदुवाई

दुनिया ऐसी बावरी,पत्थर पूजन जाहि
घर की चकिया कोई न पूजै, जाहि का पीसा खाय

देश और सामाजिक एकता के लिए संदेश-

कहें हिंदू मोहि राम पियारा,
तुरक कहें रहिमाना
आपस में दोऊ लरि लरि मुये
मरम न कोऊ जाना

हिंदू  मुये राम कहि,मुसलमान खुदाई
कहे कबीर सो जी, दुह में कदे न जाई

काशी काबा एक है, ऐके राम रहीम
मैदा इक पकवान बहु,बैठ कबीरा जीम

राम रहीम एक हैं,नाम धराया दोय

सूरज चंद्र का एक ही उजियारा
सब यहि पसरा ब्रह्म पसारा

सत्संग का महत्व-

संगत की साधु की,कभी न निष्फल होय
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय

कबिरा संगत साधु की,ज्यों गंधी की वास
जो कुछ गंधी दे नहीं, तो भी वास सुवास
मथुरा, काशी, द्वारिका, हरिद्वार, जगन्नाथ
साधु संग हरि भजन बिनु,कछु नआवै हाथ

गुरु की महिमा-

गुरु गोविंद दोऊ खड़े,काके लागूं पाय
बलहारी गुरु आपने,गोविंद दियो बताय

यह तन विष की बेलरी,गुरु अमृत की खान
सिर दीजै सदगुरु मिलें,तो भी सस्ता जान

कबीर की साखियां-

जाति न पूछो साध की,पूछ लीजिए ज्ञान
मोल करो तलवार का,पड़ा रहन दो म्यान
आवत गारी एक है , उलटत होइ अनेक
कहत कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक
माला तो कर में फिरै , जीभि फिरे  मुख मांहि
मनवा तो चहुं दिशि फिरै,रहे यह तो सुमिरन नाहिं
साधु, सती और सूरमा, ज्ञानी और     गंजदंत
तेनीक  से  नहीं बावरे, जो जुग जाही अंत

साईं इतना दीजिए,जा में कुटुम समाय,
मैं भी भूंखा न रहूं,साधु ना भूंखा जाय

राम नाम की लूट है,लूट सके तो लूट
अंत काल पछताएगा, जब प्राण जायेंगे छूट
राम नाम की लूट है,लूट सके तो लूट
अंत काल पछताएगा, जब प्राण जायेंगे छूट
तेरा साईं तुझ ही में,ज्यों  बुहुवन में बास।
कस्तूरी का मिरग ज्यों,फिर फिर ढूढ़े घास
साधु सती और सूरमा, ज्ञानी और गंज दंत
तेनीक  से  नहीं बावरे, जो जुग जाही अंत

रात गंवाया सोय के,दिवस गंवाया खाय,
हीरा जनम अनमोल था, कौड़ी बदले जाय
कबीरा खड़ा बाजार में,मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,ना काहू से बैर

जल में कुंभ कुंभ में जल है,
बाहर भीतर पानी
फूटा कुंभ जल जल ही समाना,
यह तत कहयो ग्यानी

कबीर जी तो ब्रह्म ज्ञानी थे ।वे अलौकिक जगत की परिकल्पना करते हुए मानव कल्याण की ही बातें करते थे। ज्ञान की प्राप्ति मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य है।इसीलिए तो पुराणों व शास्त्रों ने ज्ञान को जीवन का फल कहा है।जन्म से मृत्यु तक मनुष्य सतत ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है,क्योंकि उसके पास बुद्धि है।बुद्धि का स्वभाव है जिज्ञासा और जिज्ञासा की तृप्ति ज्ञान से होती है।

आज आदमी प्यार और संस्कारों से क्यों दूर है इसकी परिभाषा कबीर के दोहों और साखियों से मिलती है।प्रेम से बड़ा न तो कोई धन है न तो  दुनिया का कोई सुख।
हम अज्ञानी हैं लेकिन मानते नहीं की अज्ञानता का बोध हो जाना  ही ज्ञान की पराकाष्ठा है  और उसमें  आत्म ज्ञान श्रेष्ठतम ज्ञान है। कबीर बानी में प्रेम को ही अल्लाह और ईश्वर बताया है।व्यक्ति कितना भी विद्वान हो जाए,महा पंडित हो जाए मगर यदि वह प्रेम के  ढाई अक्षर  की  परिभाषा एवं व्याख्या नहीं समझ पाया,सब व्यर्थ है। प्रेम हृदय का उदगार है,प्रेम आत्म विश्वास और आत्मज्ञान का बोध है,प्रेम ईश्वर का प्रसाद है। यह खुद अपने हृदयांतर से अंकुरित होता है।
कबीर ने लिखा है:-

प्रेम न बाड़ी ऊपजे,प्रेम न हाट बिकाय
राजा परजा जेहि रुचे,शीश देइ लै जाय

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न  कोय
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय

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