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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 4 Apr 2021 2:22 PM |   447 views

कृषि सुरक्षा उपायों के साथ हम अगली पीढ़ी को क्या देकर जा रहे हैं?

अक्सर हम अपने बचपन को याद करते हैं, ये सोचते हुए के हम कितने स्वस्थ रहते थे हर चोट, फोड़े, फुंसी के बाद भी कैसे- कैसे खेल खेलते थे? मोबाइल रेडिएशन से दूर, मिट्टी-धूल में रहने के बावजूद भी हमारी इम्युनिटी गजब की रही।
पर जब ये सवाल हम आज की अपनी अगली पीढ़ी के लिए सोचते हैं तो हमे क्या दिखता है ?
 
मोबाइल गेम खेलता या यूट्यूब वीडियो देखता, चश्मा लगाये एक बेहद कमजोर, बीमार सा बच्चा जिसे हम हर रोज किसी अभिनेता अभिनीत प्रचार में  बताए गए फैक्ट्री मेड प्रोडक्ट को खिला कर अपने जैसी तंदरुस्ती चाहते हैं। पर माफ कीजिये- देसी मुर्गे और पोल्ट्री फीड में पले, जमीन पर कभी पाँव न रख पाने वाले ब्रॉयलर में जो फर्क है, वही हममे और अगली पीढ़ी में होता जा रहा है। इस  तरह के कड़वे से उदाहरण के लिये माफी चाहूंगा पर लेख की सार्थकता जगाने के लिए इस कदर झिझोड़ना आवश्यक हो चला है आज।
 
आपने गौर किया कि बरसात में निकलने वाले वो पीले टोड जो रात भर अपनी टर्र टर्र से रात के सन्नाटे को जीवंत और आपकी नींद को थोड़ा सा परेशान कर डालते थे, अब क्यों नही दिखते !बरसात तो अभी भी होती है ।
 
आपने गौर किया कि बचपन मे अक्सर रविवार को मातायें, बड़ी दीदी घर के छोटे बच्चों के जूं निकालते दिख जाती थी अब क्यों नही दिखती! हमारे सिर पर बाल तो अभी भी हैं।
 
आपने गौर किया कि गर्मियों की छुट्टियां बिताते वो शाम और रंगीन हो जाती थी जब सूरज डूबते ही असंख्य अनगिनत जुगनुओं से भरा माहौल हमे असीम शांति और नये नये खेल के आनन्द दे जाता था, कहाँ गया  सूरज आज भी अस्त होता है।
 
आपने गौर किया कि बारिशों में केंचुओं के बनाये मिट्टी के घर से बने छोटे छोटे हजारों खुले किले कितने प्यारे लगते थे, जो मिट्टी में ऑक्सीजन का प्रवाह करते और नीचे की मिट्टी ऊपर लाते, कहाँ गये! बारिश आज भी होती है।
 
यहाँ तक कि आपने गौर किया कि गर्मियों में रसना शर्बत बनाने के बाद या कहीं   चीनी/गुड़ का अंश गिर जाने के बाद कैसे चींटियों की एक लंबी सेना उसे अपने घर ले जाने को अतातुर होती थी, धीमे धीमे कहाँ चली गयी ! घर, हम और गुड़/चीनी सभी तो है आज भी ।
 
इसे पढ़ते वक्त शायद आप जवाब भी समझ चुके हों, जी हाँ- ये सभी हमारे ही रसायन प्रयोगों के कारण होता चला गया है। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति बाद हरित क्रांति की आड़ के साथ ही ऐसे हर बचे आयुध रसायनों से नये- नये पौध रसायन बनाये और प्रचारित किये गए जिनका मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण पर बेहद बुरा और दीर्घकालीन प्रभाव पड़ता रहेगा।  हम अपनी अंधी आधुनिकता की दौड़ में इस पहलू से आँखें मूँदे हर पड़ोसी से प्रतिद्वंदिता बढाये, रोज अलग और उससे ज्यादा मात्रा में झोकमझाक किये खुद को एक झूठी खुशी का कफ़न ओढाये चले जा रहे हैं।
 
हम हर रोज  यूरिया, डीएपी, पोटाश जैसे केमिकल उर्वरक साल दर साल बढा कर देते जा रहे जिससे मिट्टी की सरंचना और सूक्ष्म जीव नष्ट हो रहे जो ह्यूमस के निर्माण में महत्वपूर्ण थे। फलस्वरूप खेती के खर्च और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर हमारी निर्भरता और ज्यादा बढ़ती जा रही। 
 
प्रत्येक फसल सीजन हम एक से एक घातक शाकनाशी/हर्बीसाइड प्रयोग कर रहे जिससे जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण बढा है और न जाने क्या क्या जैव गतिविधियां समाप्ति के कगार पर खड़ी है।
 
हम हरेक मौसम ऐसे अनेक जहरीले रसायन छिड़कते जा रहे जिससे जैव असन्तुलन बढा और इस तरह से उतपन्न खाद्यान से हमारी व्यक्तिगत दिनचर्चा और स्वास्थ्य समस्यायें भी।
 
हर साल एक नई बिमारी मुँह बाये बढ़ी चली जाती है और फिर उनके एंटी डोज जो इंसान को मानव कम एक केमिकल आधारित जिन्दा रहने वाला जीव ज्यादा बनाते चले जा रहे।
 
जिसके लिए प्रत्यक्ष तौर पर वैज्ञानिक समाज और तन्त्र के साथ अप्रत्यक्ष तौर पर किसानों का भी हाथ है, हालांकि अपवाद के तौर पर बरसो से जैविक खेती अपनाये किसानों ने पुरजोर कोशिशों बाद पर्यावरण अनुकूल रहते हुए अपने आसपास वो माहौल बचाये रखा जहां ये सभी आज भी जिन्दा हैं। वहाँ मित्र कीट और जंतु होते हैं जो ज्यादातर जैविक प्रयासों से पौध सुरक्षा उपायों में सहयोग देते है। इस प्रकार ऐसे तैयार कोई भी खाद्यान न सिर्फ सुरक्षित होता है बल्कि कम खर्च में किसानों को उपलब्ध भी रह जाता है। 
 
ये कोशिशें आप और हम भी कर सकते हैं वरना शायद अगली पीढ़ी को ये किस्से सुनाने को हम तो रहें लेकिन उनकी अगली पीढ़ी को ऐसा जीवन्त अहसास कराने और उसे उद्वेलित कर वापस पाने वाला कोई न बचे शायद।
 
डॉ. शुभम कुमार कुलश्रेष्ठ
सहायक प्राध्यापक-उद्यान विज्ञान विभाग
रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय, रायसेन, मध्य प्रदेश
 
( प्रस्तुत लेख, लेखक के स्वतन्त्र विचार हैं| )
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