प्रकृति ( डॉo भोला प्रसाद आग्नेय)
लीला प्रकृति की न्यारी, और अनोखा रूप
रहे न रहे रवि दिन में, छाया में भी धूप
कहीं बहती हैं नदियां,उफने कहीं समुद्र
उपलब्ध सभी के लिए,मानव दानव रूद्र
गिर रहे झरने झर-झर, कहीं सरोवर शान्त
साफ- सुथरा जल जिसका,निर्मल और सुशान्त
कभी आंधी और तूफान, कभी हवा है मौन
हे प्रकृति ,बताओ तुम्ही, आखिर करता कौन
तुम्हारा अम्बर नीला, सुबह सुबह है लाल
शाम को वह सिन्दूरी, होता सदा कमाल
बादल आते हैं कभी,काले और सफेद
बरसें ना बरसें कभी,मन में रहे न खेद
सूरज देता रौशनी, ऊर्जा का संचार
चांद सितारे रात में,जगमग है संसार
उड़ने लगती है कभी, शुष्क धरा से धूल
खेत हरे होते कभी,खिल जाते हैं फूल
कहीं है गहरी खाई,ऊंचा कहीं पहाड़
पशु-पक्षी वन में रहें, है सिंह की दहाड़
सीमित है धरती भले,पर आकाश अनन्त
धर्म- कर्म का ज्ञान भी, देते रहते सन्त
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