ग़ज़ल ( नरेश सागर ,हापुड़ )
भीड़ में हमने खुद को तन्हा पाया है
कोई नही है दिल को जिसने बहलाया है |
बस मै ही कहता रहा उन्हें अपना
गले पे मेरे जिसने छुरा चलाया है |
खून के रिश्तो ने ,क्या खूब किया यारो
मेरे सामने , घर को मेरे जलाया है |
अपनों से अब अपना पन नही मिलता
किसने नफरत का ये फूल खिलाया है|
भाई ने ही दुश्मन से मिलकर क़त्ल किया
रिश्तो पर कैसा बादल मंडराया है |
” सागर ” जीना है तो अपनों से बचना
वक़्त ने हमको यही सिखलाया है |
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