नव नालंदा महाविहार सिर्फ एक शैक्षणिक संस्था नहीं बल्कि उस अखंड बौद्धिक परंपरा का उत्तराधिकारी
नालंदा की धरती पर खड़ा होकर अगर समय को सुना जाए तो वह केवल इतिहास नहीं, एक सतत धड़कन की तरह महसूस होता है | जैसे इस मिट्टी के नीचे अब भी वे पगचापें जीवित हों जो सहस्रों वर्ष पहले ज्ञान की तलाश में यहाँ आकर रुकी थीं। नव नालंदा महाविहार उसी धड़कन का आधुनिक रूप है जो स्वयं को केवल एक शैक्षणिक संस्था नहीं बल्कि उस अखंड बौद्धिक परंपरा का उत्तराधिकारी मानता है, जिसकी जड़ें विश्व की सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय परंपरा में गहरी पैवस्त हैं।फैक्ट के धरातल पर देखें तो प्राचीन नालंदा कोई साधारण शिक्षालय नहीं था। यह एक सुव्यवस्थित, आवासीय, बहु-विषयक विश्वविद्यापीठ था, जहाँ एशिया के दूर-दूर देशों से विद्यार्थी आते थे। यहाँ दर्शन, तर्क, व्याकरण, चिकित्सा, खगोल, गणित, बौद्ध अध्ययन, भाषा-विज्ञान और प्रशासनिक शास्त्रों की परंपराएँ विकसित हुईं। यह कोई मिथकीय गौरव नहीं बल्कि चीनी यात्रियों के वर्णनों, पुरातात्विक साक्ष्यों और ऐतिहासिक ग्रंथों से पुष्ट एक जीवित सत्य है।
इसी महाविहार (विश्वविद्यालय) के आचार्य सरहपा ने अपभ्रंश कविता की रचनात्मकता से आज की हिन्दी कविता की आरंभिक नींव रखी ( महापंडित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार )। आधुनिक पुनर्स्थापना के रूप में नव नालंदा महाविहार का स्थापत्य बना | यह केवल एक विश्वविद्यालय नहीं बल्कि टूटे हुए ऐतिहासिक सूत्र को फिर से जोड़ने का एक सांस्कृतिक संकल्प था।
नव नालंदा महाविहार को केवल “प्राचीन नालंदा का नामधारी” कह देना एक सरलीकरण होगा। वस्तुतः इसकी पहचान उस चेतना में निहित है जो आधुनिक शिक्षा पद्दति में भी परंपरा, मौलिकता और आलोचनात्मक विवेक को जीवित रखना चाहती है। यहाँ केवल विषय नहीं पढ़ाए जाते बल्कि अध्ययन की एक खास दृष्टि गढ़ी जाती है | ज्ञान को उपभोग की वस्तु नहीं, साधना की प्रक्रिया मानने की दृष्टि। भाषा, दर्शन, बौद्ध अध्ययन, साहित्य, इतिहास और संस्कृति के क्षेत्र में जो शोध-परंपरा यहाँ विकसित हुई है, वह इस बात का प्रमाण है कि यह संस्थान अतीत की राख नहीं बल्कि स्मृति की जलती हुई मशाल है।यहाँ का वातावरण किसी आधुनिक कॉर्पोरेट विश्वविद्यालय जैसी भव्यता का दावा नहीं करता। यहाँ इमारतें शोर नहीं करतीं, गलियारे चीखते नहीं, यहां तक कि पुस्तकालय भी फुसफुसाकर बात करता है लेकिन वही मौन उस परंपरा की सबसे बड़ी पहचान है, जहाँ ज्ञान को बाजार में नहीं, अंतःकरण में साधा जाता है। नव नालंदा महाविहार की बौद्धिक संस्कृति का यह एक विशिष्ट तथ्य है कि यहाँ शोध केवल अकादमिक अनिवार्यता नहीं बल्कि आत्मानुशासन की तरह जिया जाता है। यह उसी प्राचीन परंपरा की छाया है जहाँ गुरु और शिष्य का संबंध प्रमाणपत्र से नहीं, अंतरंग साधना से बनता था।
नव नालंदा महाविहार किसी स्मारक की तरह खड़ा पत्थर नहीं बल्कि धीमी गति से बहती हुई नदी है। इस नदी में इतिहास की राख भी बहती है और भविष्य की मिट्टी भी। यहाँ हवा में किताबों की गंध नहीं बल्कि प्रश्नों की हल्की खराश तैरती है। सुबह की धूप जब पुस्तकालय की खिड़कियों से भीतर गिरती है तो वह केवल प्रकाश नहीं होती, वह सदियों पहले जले दीपों की यादों की तरह मेजों पर फैल जाती है।
नव नालंदा महाविहार को प्राचीन नालंदा का “प्रत्यक्ष भावनात्मक उत्तराधिकारी” कहा जा सकता है, भले ही समय का अंतराल, संस्थागत संरचना और शैक्षणिक प्रणाली बदल चुकी है। यह भी उतना ही तथ्यात्मक सत्य है कि यह संस्थान उस परंपरा का वैचारिक उत्तराधिकारी है। इसकी स्थापना का मूल उद्देश्य ही यही रहा है कि नालंदा को केवल खंडहरों में बंद स्मृति न रहने दिया जाए बल्कि उसे एक चलती हुई चेतना में बदला जाए।
यह उत्तराधिकार केवल गौरव का विषय नहीं बल्कि एक बड़ी जिम्मेदारी भी है। विश्व का प्राचीनतम विश्वविद्यालय होने की परंपरा का उत्तराधिकारी होना केवल अतीत का जयघोष नहीं बल्कि वर्तमान की गंभीर कसौटी है। यहाँ अपेक्षा केवल डिग्री बाँटने की नहीं बल्कि विचारशील, नैतिक और जिज्ञासु मन तैयार करने की है। नव नालंदा महाविहार की असली परीक्षा भी यहीं होती है ~ जब वह यह सिद्ध करता है कि परंपरा उसके लिए संग्रहालय नहीं बल्कि प्रयोगशाला है।
इस संस्था की सबसे सुंदर विशेषता यह है कि यह भव्यता का ढोल नहीं पीटती। यह अपनी गरिमा को शोर में नहीं, मौन में रखती है। यहाँ की दीवारें प्रचार नहीं करतीं, वे स्मरण कराती हैं। यहाँ की जमीन पर अगर ध्यान से चला जाए तो लगता है जैसे मिट्टी के कणों में ही कोई प्राचीन पांडुलिपि दबे-स्वर में पढ़ी जा रही हो। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं बल्कि उस सांस्कृतिक निरंतरता का काव्यात्मक अनुभव है जिसे समझने के लिए आँख से अधिक संवेदना की जरूरत होती है।
नव नालंदा महाविहार एक पुल है — दो समयों के बीच। एक ओर राख में बदल चुकी महान परंपरा का स्मारक और दूसरी ओर भविष्य की ओर बढ़ता हुआ जिज्ञासु मन। यह न पूरी तरह अतीत में है, न पूरी तरह वर्तमान में। यह उस मध्यभूमि में खड़ा है जहाँ स्मृति और संभावना एक-दूसरे को स्पर्श करती हैं।
यह महाविहार ईंट और चूने से बना हुआ भवन नहीं
यह प्रश्नों से बुनी हुई एक लंबी साँस है
जिसमें बुद्ध की करुणा, नागार्जुन का तर्क
सरहपा की भाषा व विद्रोह
और अनाम छात्रों की थकन साथ-साथ बहती है।
यहाँ पुस्तकें केवल पढ़ी नहीं जातीं
वे धीरे-धीरे मन के भीतर उतरती हैं
और वहाँ एक प्राचीन दीपक जला देती हैं
जो समय की आँधियों में भी बुझता नहीं।
नव नालंदा महाविहार, नालंदा वस्तुतः प्राचीन नालंदा महाविहार का आधुनिक वाहक है। वह उस परंपरा की निरंतरता है जो मानती थी कि ज्ञान कोई वस्तु नहीं जिसे पाया जाए बल्कि एक ऐसी साधना है जिसे जिया जाए। और जब तक इस धरती पर ऐसे छात्र, ऐसे अध्यापक और ऐसे मौन की परंपरा जीवित है तब तक नालंदा केवल अतीत नहीं बल्कि एक निरंतर वर्तमान बना रहेगा।
नालंदा की मिट्टी केवल खंडहरों की नहीं है। वह स्मृति की वह परत है जो समय के हर प्रहार को सहकर भी अपने भीतर एक अविचल बौद्धिक तापमान को संभाले हुए है। जब प्राचीन महाविहार की दीवारें टूटीं तब पत्थर नहीं गिरे| एक विश्वबोध बिखरा और जब नव नालंदा महाविहार की कल्पना की गई तो वह केवल एक विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं थी बल्कि एक टूटे हुए संवाद को फिर से जोड़ने का सांस्कृतिक प्रयास था। यह बात इतिहास के तथ्यात्मक अध्ययन से भी स्पष्ट होती है कि यह संस्था किसी राजकीय आकस्मिकता का नहीं बल्कि दशकों तक चली बौद्धिक बेचैनी और साधना का परिणाम है।
नव नालंदा महाविहार की विशेषता यह है कि उसने केवल विविध भाषाओं के अध्ययन तथा बौद्ध अध्ययन आदि को पुनर्जीवित ही नहीं किया बल्कि दर्शन, इतिहास और साहित्य के भीतर एक अंतर्विषयी परंपरा को जीवित रखा। यह तथ्यात्मक रूप से भी महत्त्वपूर्ण है कि यहाँ अध्ययन केवल पाठ्यक्रम आधारित नहीं रहा बल्कि पांडुलिपि-अध्ययन, प्राकृत, पालि, संस्कृत और अपभ्रंश जैसी भाषाओं की जीवित परंपरा को संरक्षित किया गया। यह काम किसी सामान्य विश्वविद्यालय का नहीं बल्कि उस संस्था का है जो स्वयं को स्मृति का रक्षक मानती है। यहाँ समय का अनुभव कैलेंडर से नहीं, ऋतुचक्रों से होता है — सत्र नहीं बदलते, ऋतुएँ बदलती हैं और उन्हीं के साथ पढ़ने का तापमान बदलता है।
एक नई और कम कही गई बात यह है कि नव नालंदा महाविहार भारतीय ज्ञान परंपरा का एक “संयोजन स्थल” है। यहाँ वैदिक, जैन और बौद्ध धाराएँ विरोध में नहीं, संवाद में दिखाई देती हैं। राष्ट्रीय स्तर के बहुत से शोध यहाँ ऐसे विषयों पर हुए हैं जिनमें भक्ति आंदोलन और बौद्ध सहजयान के आपसी संबंधों पर काम किया गया, नाथ परंपरा और सिद्ध साहित्य को बौद्ध सिद्धांतों की पृष्ठभूमि में समझने के प्रयास हुए। सरहपा यहां की साँस हैं। यह वह काम है जो मुख्यधारा के विश्वविद्यालयों में प्रायः उपेक्षित रह जाता है।
नव नालंदा महाविहार की एक लगभग अनकही विशेषता इसकी “मौन-शिक्षा” की परंपरा है। यहाँ पढ़ाई केवल कक्षा में नहीं होती, बल्कि गलियारों, बरामदों, और पेड़ों की छाया में भी चलती रहती है। यह एक ऐसी शैक्षणिक संस्कृति है जो आधुनिक तेज़-रफ्तार अकादमिक दुनिया में लगभग विलुप्त होती जा रही है। यह उस प्राचीन नालंदा की स्मृति है जहाँ मौन को नासमझी नहीं, एक बौद्धिक तैयारी माना जाता था।
नई दृष्टि से देखा जाए तो नव नालंदा महाविहार का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान “गति के विरुद्ध प्रतिरोध” में है। आज की दुनिया जहाँ शिक्षा को जल्दी, सस्ता और अधिक उपजाऊ बनाने की होड़ है, वहाँ यह संस्था शिक्षा को ऊर्जा के रूप में प्रतिष्ठा देती है। यहाँ शोध वर्षों में लंबे मौन से गुजरकर बाहर आता है। यह एक वैचारिक रुख है कि ज्ञान उत्पादन को फैक्ट्री नहीं बनाया जा सकता। यह विचार आधुनिक शिक्षा की उपभोगवादी प्रवृत्ति के विरुद्ध एक शांत लेकिन ठोस वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत करता है।
नव नालंदा महाविहार का वैश्विक संवाद केवल सम्मेलन और समझौता ज्ञापनों तक सीमित नहीं रहा। यहाँ से तैयार हुए अनेक शोधार्थी एशिया के विभिन्न बौद्ध देशों — श्रीलंका, थाईलैंड, म्यांमार, जापान, कोरिया में जाकर अध्ययन और अध्यापन कर चुके हैं। यह संबंध केवल औपचारिक नहीं बल्कि जीवित बौद्धिक विनिमय का उदाहरण हैं। इस प्रकार, यह संस्था आधुनिक समय में एक प्रकार का “एशियाई बौद्धिक गलियारा” बनाती रही है जो अक्सर राष्ट्रीय मीडिया की निगाह से बाहर रह जाता है।
नव नालंदा महाविहार का “वास्तु-शिल्प” महज आधुनिक भवन निर्माण नहीं है बल्कि उसमें जानबूझकर प्राचीन नालंदा के स्थापत्य~ बोध की स्मृति को जगह दी गई है। खुले आंगन, धूप–छाँह की योजना और भवनों के बीच खाली छोड़े गए अंतराल — ये सब केवल इंजीनियरिंग डिज़ाइन नहीं बल्कि एक वैचारिक संरचना हैं। यह इस बात का संकेत है कि यहाँ केवल दिमाग नहीं बल्कि मन और शरीर की लय को भी शिक्षा का हिस्सा माना गया है।
यह प्रश्न कि “क्या नव नालंदा महाविहार प्राचीन नालंदा का प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी है? विश्लेषणात्मक तथ्य यह है कि संस्थागत निरंतरता हजार वर्षों तक टूटी रही। इस अंतराल में राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परिवर्तन आए किंतु इस संस्थान को प्राचीन श्री नालंदा विहार का “वैचारिक उत्तराधिकारी” मानना युक्तियुक्त होगा। इसका मूल उद्देश्य, इसकी शैक्षणिक दृष्टि और इसकी आत्मा उसी परंपरा की स्पष्ट प्रतिध्वनि है।
यह सब कुछ इस तरह महसूस होता है~
यहाँ दीवारें प्रश्न पूछती हैं
छतें उत्तर खोजती हैं
और फर्श पर चलती हुई आहटें
किसी पुराने श्लोक की तरह
धीरे-धीरे खुलती हैं।
यहाँ पुस्तकालय कोई भवन नहीं
एक लंबी साधना है
जिसके भीतर शब्द नहीं
चेतना बहती है।
नव नालंदा महाविहार ने “छोटे विषयों की गरिमा” को बचाए रखा है। ऐसे विषय जो बड़े विश्वविद्यालयों में “कम उपयोगी” या “कम स्कोप” कहकर किनारे कर दिए जाते हैं, यहाँ उन्हें केंद्रीयता दी गई। पांडुलिपियों का सूक्ष्म अध्ययन, विलुप्तप्राय भाषाओं पर काम, लोक बौद्ध परंपराओं का दस्तावेजीकरण, हिंदी में मातृभाषा , भारतीय साहित्य व विविध भाषाओं व साहित्य आदि के अध्ययन पर बल ये सब छोटे दिखने वाले विषय असल में ज्ञान की रीढ़ हैं और इस संस्था ने उन्हें जीवित रखा है।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि नव नालंदा महाविहार केवल शिक्षा का केंद्र नहीं बल्कि समय के विरुद्ध एक शांत विद्रोह है। यह उस विचार का विद्रोह है कि सब कुछ तुरंत, सतही और उपभोग्य हो जाना चाहिए। यहाँ ज्ञान अब भी तपस्या है, श्रम है, एक धीमी आग है जो मनुष्य को अंदर से बदलती है।
नव नालंदा महाविहार ईंटों का नहीं,स्मृतियों का घर है,यह विश्वविद्यालय नहीं,
समय की विरासत है,यह अतीत का संग्रहालय नहीं,भविष्य का बीज है
जब तक नालंदा की इस धरती पर ऐसा मौन, ऐसी पढ़त और ऐसी सकारात्मक सांसों की परंपरा जीवित रहेगी तब तक नव नालंदा महाविहार केवल एक शैक्षणिक संस्था नहीं बल्कि भारत की आत्मा का एक जीवित अध्याय बना रहेगा।
–प्रो. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव” परिचय दास
Facebook Comments
