चैता लोकगीत
चैती या चइता चैत माह पर केंद्रित लोक-गीत है।यह भोजपुरी क्षेत्र का लोक गीत है। इसकी भाषा भोजपुरी है।इसे अर्ध-शास्त्रीय गीत विधाओं में भी सम्मिलित किया जाता है तथा उपशास्त्रीय बंदिशें गाई जाती हैं। चैत्र के महीने में गाए जाने वाले इस गीत प्रकार का विषय प्रेम, प्रकृति और होली रहते है। चैत श्री राम के जन्म का भी मास है इसलिए इस गीत की हर पंक्ति के बाद अक्सर रामा यह शब्द लगाते हैं। संगीत की अनेक महफिलों केवल चैती, टप्पा और दादरा ही गाए जाते है। ये अक्सर राग मिश्र पहाड़ी या मिश्र मांझ खमाज निबद्ध होते हैं।
चैती, ठुमरी, दादरा, कजरी इत्यादि का गढ़ पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा मुख्यरूप से वाराणसी है। पहले केवल इसी को समर्पित संगीत समारोह हुआ करते थे जिसे चैता उत्सव कहा जाता था। आज यह संस्कृति लुप्त हो रही है, फिर भी चैती की लोकप्रियता संगीत प्रेमियों में बनी हुई है। बारह मासे में चैत का महीना गीत संगीत के मास के रूप में चित्रित किया गया है।
चढ़त चइत चित लागे ना रामा/ बाबा के भवनवा/
बीर बमनवा सगुन बिचारो/
कब होइहैं पिया से मिलनवा हो रामा
“चैती” भोजपुरी अवधी मैथिली ब्रजभाषा और बघेली में चैत्र मास में गाया जाने वाला लोकगीत है।
“चैती” उत्तर प्रदेश में चैत्र मास में गाया जाने वाला लोकगीत है। चैत या चैत्र मास हिन्दू पंचांग (कैलेंडर) से हिंदुओं का प्रथम महीना माना गया है और फाल्गुन मास को अंतिम महीना। बंगाली और नेपाली कैलेंडर में ये वर्ष का आखिरी महीना माना गया है।
चैत्र की शुक्ल प्रतिपदा (प्रथम) तिथि से ही हिंदू नववर्ष की शुरुआत होती है। ईरान में भी इस तिथि को “नौरोज” या “नयावर्ष” मनाया जाता है। सिंधियों में इस दिन झूलेलाल जयंती मनाई जाती है, जिसे चैती चांद या ‘युगापुर अवतार’ की जयंती कहते हैं।
आंध्र प्रदेश में यह पर्व “उगादिनाम्” से मनाया जाता है। ‘उगादि’ का अर्थ होता है, युग का प्रारंभ अथवा ब्रह्माजी को सृष्टि का पहला दिन। पौराणिक मान्यता के अनुसार ब्रह्माजी ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही सृष्टि की रचना की थी और इसी दिन भगवान विष्णु ने दशावतार में से पहला अवतार मत्स्य अवतार लेकर प्रलयकाल में अथाह जल राशि में से मनु की नौका को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया था।
प्रलय के काल की समाप्ति के बाद मनु से ही सृष्टि की शुरुआत हुई और इसी के साथ सतयुग की शुरुआत हुई। अब यह स्पष्ट हो गया कि चैत का महीना भारतवर्ष में विशेष स्थान रखता है। इस समय अच्छे भोजन अर्थात् शुद्ध भोजन और नीम तथा चिरैता के सेवन करने की सलाह दी जाती है जिससे शरीर पूरे वर्ष स्वस्थ और सक्रिय रहे।
विष्णु के सातवें अवतार श्रीराम का जन्म चैत्र नवरात्र के आखिरी दिन ‘रामनवमी’ के त्योहार के नाम से मनाया जाता है। उस दिन उत्तर प्रदेश के अयोध्या जिले में रामनवमी मेला लगता है, झारखंड और अन्य प्रांतों में लाल ध्वजा रोपन की प्रथा है तथा तमिलनाडु के रामेश्वरम शहर में भगवान राम की धूमधाम से पूजा होती है, जिसमें लाखों भक्त एकत्रित होते हैँ।
इस दिन हिन्दुस्तान के कई प्रांतों में जन्माष्टमी पर्व की मशहूर ‘दही हांडी’ परंपरा की तरह मिट्टी के कलश में पैसा भरकर उसे एक ऊंचे वृक्ष की सबसे ऊंची शाखा पर लटका देते हैं। मिट्टी के कलश को हरे कपड़े से ढक दिया जाता है और पेड़ में छुपा देते हैं।
फिर स्थानीय युवा वर्ग पिरामिड बनाकर वहां तक पहुंचते हैं और फिर उसे खोजकर उतारते हैं। ये खेल आसान नहीं होता है, क्योंकि चढ़ने वाले व्यक्ति पर लगातार पंप से पानी डाला जाता है और इस कठिनाई में भी उसे चढ़ना पड़ता है। बाद में ये पैसा सभी खिलाड़ियों में बांट दिया जाता है।
चैती गायन की शुरआत त्रेतायुग से शुरू हो गई थी…
घर- घर में श्रीराम के जन्म की बधाई गाई जाती है।
भगवान राम इक्ष्वाकुवंशी अयोध्या के राजा दशरथ और माता कौशल्या के पुत्र थे। श्रीराम ने त्रेतायुग में राक्षसों का वध करके धरा को शांति प्रदान की थी। इनका विवाह मिथिला के राजा जनक की पुत्री सीता के साथ हुआ था। हम सभी जानते हैं कि जन्म, विवाह, नामकरण, यज्ञोपवीत संस्कार या अन्य पूजा अनुष्ठान पर लोकगीत और भजन गाए जाते हैं।
श्रीराम का जन्म चैत्र में हुआ तो ये कहा जा सकता है कि चैती गायन की शुरआत त्रेतायुग से शुरू हो गई थी, क्योंकि चैती में ‘होरामा’ की टेक लगाकर गाने का चलन है और राम जन्म, राम सीता की होली और उनके विवाह से संबंधित कई चैती गाए जातें हैं। वैसे चैती की विषय- वस्तु काफी व्यापक है।
राम जन्म से संबंधित एक होली का उल्लेख …
जग गइले कौशल्या के भाग हो रामा ।
अवध नगरिया।।
माता कौशल्या लेत बलैय्या
धन-धन होवे राजा।
दशरथ हो रामा
अवध नगरिया ।।
घर-घर बाजत लला की बधइयांं।
शोभा वरन ना जाए हो रामा
चैत राम नौमिया।।
उपर्युक्त चैती में राम जन्म का सुंदर वर्णन है। घर- घर में श्रीराम के जन्म की बधाई गाई जा रही हैं। माता कौशल्या अपने पुत्र की नजर उतार रही हैं और राजा दशरथ इस अभूतपूर्व दृश्य को देखकर धन्य हो रहे हैं।
बनारस के संगीताचार्यों ने चैती को उपशास्त्रीय गायन के रूप में विकसित रूप दिया है….
विवाह गीतों में भी चैती की धुन सुनाई देती है पर , वे विवाह गीत हैं चैती या चईता नहीं ।
एक चैती श्रीराम और माता सीता जब विवाह के पश्चात अयोध्या में आते हैं और दोनों को स्वागत संबंधित रस्मो के लिए साथ में बैठाया गया है, इस खूबसूरत दृश्य का वर्णन है-
राजत राम सिय साथे हो रामा
अवध नगरिया।
माता कौशल्या तिलक लगावे
सुमित्रा के हाथ सोहे पनमा हो रामा
अवध नगरिया ।।
दासी सखी चलो दरसन कर आवें
पाऊं आनंद अपार हो रामा
बाबा दशरथ दुअरिया।।
उपरोक्त चैती में माता कौशल्या श्रीराम और सीता जी को तिलक लगा रहीं हैं। राम-सीता साथ-साथ आसन पर विराजमान हैं और मां सुमित्रा हाथ में पान लिए हुए हैं, जो नव वर-वधु के स्वागत में उपयोगी होता है। सभी इस दृश्य का दर्शन करने आ रहे हैं और आनंदित हो रहे हैं।
बनारस के संगीताचार्यों ने चैती को उपशास्त्रीय गायन के रूप में विकसित कर एक नया रूप दिया है। उपशास्त्रीय गायन की ठुमरी और चैती में भावाभिव्यक्ति के मामले में काफी समानता पाई जाती है। शुद्ध चैती मात्र लोक धुन है परंतु स्वर संयोजन को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि चैती ज्यादातर खमाज ठाट, विलावल ठाट और काफी ठाट में गाया जाता है और इन ठाटों पर आधारित रागों में चैती सहज ग्राह्य होती है।
चैती के विभिन्न विषय-वस्तु इस प्रकार हैं-
विवाह, मुंडन, वासंतिक नवरात्र की वजह से विभिन्न देवी, मंदिरोंं और पूजा संबंधित बिषय गांव के चौपाल में चैती की धुन सुनाई देती है। चैत के महीने में आमों में बौर (मंजर) लग जाते हैं, फसल कटकर खलिहान में आ जाती है। कोयल कूंकने लगती है, पपिहा गा उठता है। प्रियतम का संग मिलने पर प्रियतमा सहज चैती गा उठती हैं।
कजरी की तरह ही चैती , चईती या चैता, चईता अत्यंत मधुर और रसीला गायन है, जहां एक ओर चैती में हमें रस भाव से युक्त ठुमरी का आस्वादन मिलता है, वहीं ध्रुपद- धमार जैसी शास्त्रीय संगीत शैली में गाई जाने वाली चैतियों में भी शास्त्रीय संगीत की पुट मिलती है।
सृष्टि संरचना के आरम्भ से ही श्रृंगार की भावना मानव समाज के लिए महत्वपूर्ण रही है ।
श्रृंगार की बलवती भावना मनुष्य में स्वाभाविक रूप से रहती है। श्रृंगार की भावना मनुष्य में स्वाभाविक रूप से रहती है और आदिकाल से ही ये भावना मानव समाज के लिए महत्वपूर्ण रही है। इसलिए ललित कलाओं में विशेषकर संगीत में श्रृंगारात्मक गान क्रियाओं का चलन रहा है।
एक श्रृंगारिक चैती का उल्लेख यहां कर रहा हूं…
एहि ठय्यां मोतिया हेराय गइलीं रामा कहवां मैं ढूंढूंं।
अंगना में ढूंढलूंं अटरियांं पे ढूंढलूंं
ढूंढत-ढूंढत बौराय गइली रामा कहंवा मैंं ढूंढूंं।
तिरछी नजरिया से संय्याजी से पुछलूं
सेजिया पे मोतिया मैं पाय गइली रामा, अब ना मैं ढूंढूंं।
उपरोक्त बंदिश में नायिका अपने नाक का बेसर ढूंढ रही है। वो उसे आंगन, दालान सब जगह ढूंढती है पर उसे बेसर नहीं मिलता है। अंत में वो शर्माती हुई अपने पति से पूछती है और बेसर उसे अपने सेज पर ही मिल जाता है।
जहां बनारस की नायिका शर्मा कर अपने नाक का बेसर खोज रही है वहीं गया की नायिका गुस्से में अपने प्रियतम से कहती है कि जो नथ उसके पास है, अब वह उसे नहीं पहनेगी क्यूंकि उसके नथ को नजर लग गई है।
यहां वह चैती प्रस्तुत है-
झुलनी में लागल नजरिया हो रामा
अब ना पहिरबई ।
झुलनी पहिर हम गइनी बज़रीआ
देवरा नजरिआ लगावे हो रामा
अब ना पहिरबई।।
चैत में वसंती ब्यार या फगुनाहट चलती है, जिससे आलस महसूस होता है। साथ-साथ बेले-चमेली के फूल भी खिल जाते हैं और महुआ के फल भी फलने लगते हैं, जिसकी खुशबू वसंती ब्यार में मिल जाने से संपूर्ण वातावरण में मादकता व्याप्त हो जाती है।
इस विषय पर एक चैती प्रस्तुत है।
“चढ़ल चईत अलसाने हो रामा जिया गोरी के।
सेजिया बइठल गोरी सोहे पिया संग
गम गम गमके चमेलिया हो रामा
सोहे गोरी के।।“
उपर्युक्त चैती में नायिका नव-विवाहिता है और उसे अभी जिम्मेदारियों का बोध नहीं हुआ है। नवयौवना की अल्हड़पन पराकाष्ठा पर है। उसे अभी नाते-रिश्तेदारों के ताने और कटु वचन की आदत नहीं हुई है। इन चीजों से बेफिक्र वह अपने पति के साथ सेज पर बैठी है और महुआ के फल व बेली-चमेली की खुशबू जो हवा में धुुल गए हैंं उसके प्रभाव से अलसाई हुई है। कवि की ऐसी कल्पनाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि नाट्य संगीत का पोषण संगीत की प्रायः इन्हीं विधाओं से होता रहा है।
चैती लोकगीतों में विविधता है , अनेक रसता और प्रकार वैविध्य है।
चैती में विरह के भाव भी बड़ी खूबसूरती से उकेरे गए हैं- एक चैती में नायिका आम के बाग में घूमकर आम के मंजर को ध्यान से देख रही और अपने प्रियतम के विदेश से लौटने के महीने की गिनती करती है। अपनी सखी से पूछती है कि कौन से महीने में आम में मंजर लगता है और कौन से महीने में आम के छोटे फल लग जाते हैं, सखी मुझे बताओ-
” सब बन अमुवा बौर ना हो रामा
सैय्यां घर नाहीं।
कौन मासे अमवा बौरन लागे
कौन मासे लागन टीकोरवा हो रामा।
सैय्यां घर नाहीं।।
तब उसकी सखी बताती है कि माघ के महीने में आम के वृक्ष में मंजर लगते हैं और चैत के महीने में छोटे-छोटे फल लग जाते हैं। इस पर नायिका विरह की वेदना से तड़प उठती है और सोचती है कि मेरे प्रियतम तो कह गए थे कि होली अर्थात् फाल्गुन में मैं हर हाल में आ जाऊंगा पर वे नहीं आए। वह अपनी तुलना आम के उन वृक्षों से करती है जिन पर ना तो फल लगा और ना मंजर ही आया है। एक चैती में मां पार्वती के पिता ‘हिमवान’ उनकी विदाई नहीं करते हैं तो भगवान शिव जोगी का रूप धारण कर लेते हैं। वह चैती इस प्रकार है-
“बाबा हठ की ना गवनमा ना दी ना
एही कारन सैय्यां भइले जोगिया
हो रामा। एही कारनमा।।“
चैती के कई प्रकार होते हैं- चैता, चैती, घाटो, चैता गौरी आदि। चैता मुख्यतः पुरुषों द्वारा गाया जाता है। घाटो चैती में ज्यादातर निर्गुण गाए गए हैं। चैता गौरी सामान्यतः राग गौरी पर आधारित होता है।
—प्रो सुधाकर तिवारी
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