मीडिया: समाज सेवा से व्यवसाय तक
मीडिया शब्द जेहन में आते ही समाचार पत्र और पत्रिकाओं की तस्वीर दिमाग में आ जाती है। मीडिया का काम और उद्देश्य जनमानस को सटीक जानकारी पहुंचाना और जागरूकता फैलाना होता हैं| उदाहरण स्वरूप स्वतंत्रता के आंदोलन से लेकर किसी भी बड़े सामाजिक मुद्दों पर जनमानस को एकत्रित करना और उसको एक दिशा प्रदान करने में मीडिया का महत्वपूर्ण योगदान है|
किंतु पिछले कुछ वर्षो से मीडिया और मीडिया हाउस का स्वरूप तेजी से बदल रहा है| मीडिया हाउस अब केवल समाचार पत्र और पत्रिकाओं तक की सीमित नहीं है| बल्कि समय के साथ मीडिया ने अपने व्यावसायिक दायरे को कई गुना बढ़ा लिया है और अब यह एक बहुआयामी उद्योग का रूप ले चुका है ।समाचार पत्र पत्रिकाओं की छवि को तोड़ते हुए मीडिया हाउस पहले न्यूज़ चैनल के बिजनेस में उतरे फिर इवेंट मैनेजमेंट कंपनियों के रूप में दिख रहे और महोत्सव का आयोजन करने लगे । अब इनकी गतिविधियां सिर्फ खबरें या मनोरंजन तक सीमित नहीं है | बल्कि यह कई तरह के आयोजनों जैसे किसान मेला, ऋण मेला, एजुकेशन फेयर और ओलंमपियाड जैसी चीजों को भी धंधे की शक्ल में उतार चुके हैं।
मीडिया अब सिर्फ खबर देने वाला माध्यम नहीं रहा बल्कि एक व्यावसायिक मॉडल बन चुका है। गौरतलब है कि कही इस व्यावसायिक मॉडल में पत्रकारिता की मूल भावना खो न जाए क्योंकि मीडिया जब अपने व्यवसायिक गतिविधियों की ओर बढ़ता है तो उसका पहला उद्देश्य खबरे या सामाजिक जागरूकता के स्थान पर मुनाफा कमाना हो जाता है इससे मीडिया की निष्ठा और जनता के प्रति उसकी जवाबदेही भी कमजोर होगी।
वर्तमान में मीडिया हाउस की एक नई पहल साहित्यिक संवाद के मंच पर देखने को मिल रही है । कई मीडिया संस्थान साहित्यिक महोत्सव और संवादों का आयोजन कर रही है| यह कदम उनकी व्यावसायिक रणनीति का एक हिस्सा है। प्रश्न यह उठता है कि क्या यह साहित्य और संवाद की गहराई को समृद्ध करने का प्रयास है ? या फिर व्यावसायिक लाभ की ओर बढ़ता एक और कदम।
मीडिया का साहित्यिक संवाद में प्रवेश जहां एक ओर साहित्य के प्रचार- प्रसार में मदद करता प्रतीत होता है तो दूसरी तरफ इसके पीछे छिपी व्यावसायिक मशां पर सवाल भी खड़े करता है। बताते चलें कि साहित्यिक आयोजनों का मूल उद्देश्य समाज के बौद्धिक विकास को बढ़ावा देना और साहित्यकारों के विचारों को जनमानस तक पहुंचाना है| लेकिन जब मीडिया संस्थान ऐसे मंचों का आयोजन अपने हाथ में लेता है तो साहित्य के मूल्यों के बजाय विज्ञापन पब्लिसिटी और पैसा उसके मुख्य तत्व बन जाते हैं । साहित्य का व्यवसायीकरण इसे एक प्रोडक्ट की तरह बाजार में पेश करता है जहां इसकी गहराई और संवेदनशीलता खो जाती है । इसका प्रभाव साहित्य के स्तर पर भी पड़ता है।
साहित्यिक आयोजन एक बौद्धिक अभिव्यक्ति के मंच होते हैं | जहां विचारों का आदान-प्रदान समाज की सोच और दृष्टिकोण को प्रभावित करता है। लेकिन जब इन मंचो का मुख्य तत्व मुनाफा कमाना हो जाता है तो साहित्यकारों के विचार भी व्यवसायिकता के प्रभाव में आ जाते हैं और साहित्य का स्थान धीरे-धीरे बाजार की आवश्यकताओं के अनुरूप तय होने लगते हैं। जिससे उसकी स्वतंत्रता और गहराई खतरे में पड़ जाती है। मीडिया का यह नया रूप उसके पहले के रूप से बिल्कुल भिन्न है । जहां पहले मीडिया अपने समाज सेवा और समाज के प्रति अधिक जवाब देह हुआ करता था |
वह अब अपने व्यावसायिक लाभ के पीछे दौड़ता हुआ दिखाई पड़ रहा है और उसकी जिम्मेदारी, मूल उद्देश्य और जवाबदेही पीछे छूट जा रही है। प्रश्न यह उठता है कि क्या पत्रकारिता अपनी मूल भूमिका से दूर होती जा रही है ? या फिर व्यावसायिक प्रतिबद्धता का या नया रूप इसकी आवश्यकता बन गया है। मीडिया व मीडिया से जुड़े हुए जिम्मेदार लोगों को अब यह सोचना होगा की कही मीडिया के ऊपर व्यवसाय का भार इतना भारी तो नहीं हो जा रहा है कि मीडिया अपनी मूल भावना से दूर होता जा रहा है ।
सामाजिक,बौद्धिक और सरकारी तंत्र को भी इस पर गंभीरता पूर्वक विचार करना होगा कि कहीं व्यवसायिकता मीडिया पर हावी ना हो जाए अन्यथा की स्थिति में जब मीडिया अपने मूल उद्देश्यों से दूर हो जाएगा तो उसका सीधा असर समाज और समाज के लोगों पर पड़ेगा।
-डॉ नरेंद्र बहादुर सिंह , अयोध्या