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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 5 May 2024 6:33 PM |   77 views

धम्म का लक्ष्य है – वास्तविक सुख

एक बार बुद्ध से यह समझाने के लिए कहा गया कि वास्तविक सुख क्या है? 
 
उन्होंने अनेक कुशल कर्मों के नाम गिनाए जो ऐसे सुख के उत्पादक है, जो वास्तविक उत्तम मंगल है।
 
इन मंगल धर्मों की दो श्रेणियां है – अर्थात परिवार और समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व की पूर्ति करते हुए ऐसे कर्म करना जो दूसरों का हित संपादन करते है और ऐसे कर्म करना जो चित्त को निर्मल बनाते है। दूसरों के हित से अपना हित अलग नहीं किया जा सकता है। अंत में उहोंने कहा–
 
“फुस्स लोकधम्मेहि, 
चित्तं यस्स न कम्पति।
असोकं विरजं खेमं, 
एतं मंगल्मुत्तमं॥” 
 
जिसका चित्त लोकधर्मों (लाभ-हानि, निंदा-प्रशंसा, यश-अपयश,सुख-दुःख) से कंपित नहीं होता, वह निःशोक, निर्मल तथा निर्भय रहता है – यह उत्तम मंगल है। 
 
अपने शरीर-स्कंध और चित्त-स्कंध के छोटे-से-छोटे भाग में अथवा बाहरी दुनिया में कुछ भी होता हो, बिना तनाव के अथवा बिना राग, द्वेष किए, पूरी सहजता और मुस्कान के साथ व्यक्ति उसका सामना करने में समर्थ होता है। प्रत्येक स्थित में चाहे वह सुखद-दुःखद हो, इच्छित-अनिच्छित हो उसे कोई चिंता नहीं होती। अनित्यता की समझ के साथ वह पूर्ण सुरक्षित अनुभव करता है, यह उत्तम मंगल है। 
 
यह जानते हुए कि आप स्वयं अपना मालिक हैं और कुछ भी आपको अभिभूत नहीं कर सकता, जीवन जो कुछ आपको देता है, उसे मुस्कराते हुए आप स्वीकार कर सकते है- यह मन की पूर्ण समता है, यह वास्तविक मुक्ति है। विपश्यना अभ्यास के द्वारा इसे हम यहीं और अभी प्राप्त कर सकते है। वास्तविक समता केवल अभावात्मक अथवा निष्क्रिय अलगाव नहीं है। यह किसी ऐसे व्यक्ति की अंध स्वीकृति अथवा भावशून्यता नहीं है जो जीवन की समस्याओं से पलायन चाहता है, अथवा जो रेत में अपना सिर छिपाने की कोशिश करता है बल्कि यह चित्त के वास्तविक संतुलन, समस्याओं के प्रति पूर्ण जागरूकता तथा सच्चाई के सभी स्तरों की जागरूकता पर आधारित है। 
 
राग अथवा द्वेष के अभाव का अभिप्राय निर्मम उदासीनता की मनोवृत्ति नहीं है जिसमें व्यक्ति स्वयं की मुक्ति का आनंद लेता है और दूसरों के दुःखों पर कोई ध्यान नहीं देता । इसके विपरीत वास्तविक समता को ठीक ही “पवित्र उपेक्षा” कहा गया है। यह एक गत्यात्मक गुण है, चित्त-विशुद्धि की अभिव्यक्ति है। मन जब अंध प्रतिक्रिया की आदत से मुक्‍त हो जाता है, तब समुचित सकारात्मक कर्म कर सकता है जो रचनात्मक, उत्पादक एवं स्वयं तथा दूसरों के लिए लाभकारी ही होता है।
 
उपेक्षा के साथ विशुद्ध मन के अन्य गुण उपजते है, मैत्री अर्थात बदले में कोई चीज चाहे बिना दूसरों का हित संपादन करना, दूसरों की विफलता और दुःख में उनके प्रति करुणा और उनकी सफलता और सौभाग्य में मुदिता। ये चार गुण (ब्रह्म विहार) विपश्यना अभ्यास के अपरिहार्य परिणाम है। 
 
पहले व्यक्ति हमेशा जो कुछ अपने लिए अच्छा था, उसे अपने पास रखने की कोशिश करता था और जो कुछ अनिच्छित था, उसे दूसरों के लिए छोड़ देता था। अब वह समझ गया है कि दूसरों की खुशी की कीमत पर अपनी खुशी प्राप्त नहीं की जा सकती है। दूसरों को खुशी देने में ही स्वयं को खुशी मिलती है।
 
इसलिए व्यक्ति के पास जो कुछ अच्छा है, वह उसे दूसरों के साथ बांटना चाहता है। दुःखों से उबरने और मुक्ति का अनुभव करने पर व्यक्ति समझता है कि यही सबसे बड़ा मंगल है। इस प्रकार व्यक्ति चाहता है कि दूसरे भी इस मंगल का अनुभव करें और अपने दुःखों से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ निकालें। विपश्यना ध्यान की तार्किक परिणति है- मेत्ता भावना अर्थात दूसरों के प्रति मैत्री का विकास | पहले इस भावना के प्रति कोई दिखावटी प्रेम दिखाता होगा परंतु उसके अंतर्मन की गहराई में राग, द्वेष की वही पुरानी प्रक्रिया चलती रहती थी।
 
अब कुछ सीमा तक प्रतिक्रिया की प्रक्रिया बंद हो गई है। अहंकार की पुरानी आदत चली गई है और अंतर्मन की गहराई से सद्भावना का स्रोत स्वाभाविक रूप से प्रवाहित होने लगा है। इसके पीछे लगी शुद्ध चित्त की संपूर्ण शक्ति के साथ यह सद्भावना सबके हित के लिए एक शांत, सामंजस्यपूर्ण वातावरण निर्माण करने के लिए बहुत बलशाली हो सकती है। 
 
कुछ ऐसे लोग है जो यह सोचते है कि सदा संतुलित बने रहने अर्थात समता में बने रहने का अर्थ यह है कि व्यक्ति जीवन के संपूर्ण वैविध्य का आनंद नहीं उठा सकता मानो कि एक चित्रकार के पास विविध रंगों से भरी रंगपट्टिका है और वह केवल भूरे रंग का प्रयोग करना चाहे अथवा किसी के पास पियानो है और वह केवल मध्य ‘सी’ का स्वर बजाना चाहे। यह समता की गलत समझ है।
 
वास्तविकता यह है कि पिआनो बेसुरा है और हम उसे बजाना नहीं जानते। आत्माभिव्यक्ति के नाम पर महज कुंजियों को दबाने से केवल बेसुरापन उत्पन्न होगा। लेकिन यदि हम उस वाद्ययंत्र का सुर मिलाना सीख लें और उसे ठीक ढंग से बजाएं तो हम संगीत उत्पन्न कर सकते है। जब निम्नतम स्वर से उच्चतम स्वर तक कुंजी पटल की पूरी श्रेणी का हम उपयोग करते है तब प्रत्येक स्वर जिसे हम बजाते है, सौंदर्य एवं समरसता की सृष्टि करता है। 
 
बुद्ध ने कहा कि चित्त-शुद्धि तथा पूर्ण प्रज्ञा प्राप्ति के द्वारा व्यक्ति उल्लास, परमानंद, प्रश्रब्धि, जागरूकता, पूरी समझ और सच्चे सुखों का अनुभव करता है। एक संतुलित चित्त से, समता भरे चित्त से हम जीवन का और अधिक आनंद उठा सकते है। जब एक सुखद स्थिति प्रकट होती है, तब हम वर्तमान क्षण की पूर्ण एवं निर्विघ्न जागरूकता के साथ, इसका पूरा स्वाद ले सकते है।
 
लेकिन जब यह अनुभव समाप्त हो जाता है, तब दु:खी नहीं होते है। यह समझते हुए कि इसका परिवर्तन होना ही था, हम मुस्कराते रहते है। इसी प्रकार जब कोई दुःखद स्थिति प्रकट होती है, तब परेशान नहीं होते है। इसकी बजाय, हम इसे समझते हैvऔर ऐसा करके संभवतः इसको बदलने का कोई रास्ता ढूंढते है यदि यह हमारे सामर्थ्य में नहीं है तो भी यह अच्छी तरह जानते हुए कि यह अनुभव अनित्य है और इसे समाप्त होना ही है, हम शांत बने रहते है। इस प्रकार अपने मन को तनावमुक्त रखकर, हम अधिक आनंददायक और रचनात्मक जीवन जी सकते है। 
 
एक कहानी है कि बर्मा में लोग सयाजी ऊ बा खिन के शिष्यों की यह कहकर आलोचना करते थे कि उनमें विपश्यना साधना करने वाले व्यक्ति के उपयुक्त गंभीर आचरण का अभाव है। एक शिविर में आलोचकों ने स्वीकार किया कि जैसा चाहिए था वैसा उन्होंने गंभीरतापूर्वक काम किया और बाद में वे हमेशा प्रसन्नता से मुस्कराते रहे।
 
जब यह आलोचना देश के एक सर्वाधिक आदरणीय भिक्षु लेडी सयाडो के पास पहुँची, उन्होंने उत्तर दिया, “वे मुस्कराते है, इसलिए कि वे मुस्करा सकते है। यह मुस्कराहट आसक्ति अथवा मोह की न होकर धम्म की थी। जिसने अपने चित्त को शुद्ध कर लिया है वह अपना तेवर चढ़ाकर नहीं घूमता फिरेगा। जब दुःख का निवारण हो जाता है, तब मुस्कराना स्वाभाविक है। जब कोई मुक्ति का मार्ग सीख लेता है तब यह स्वाभाविक है कि वह सुख का अनुभव करता है। यह हार्दिक मुस्कराहट शांति, समता और सद्भावना की अभिव्यक्ति करती है, जो मुस्कराहट प्रत्येक स्थिति में विद्यमान रहती है, वही वास्तविक प्रसन्नता है। 
 
– डॉ नंद रतन थेरो, कुशीनगर 
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