खेती का दिन
खेती का दिन कौन सा होता है? इसके बारे में अलग-अलग क्षेत्र के किसानों की फसल, मौसम, आर्थिक- सामाजिक परिस्थितियों विशेष अनेकोनेक तर्क मिल जायेंगे।
भारत में मुख्यतः कहलाई जाने वाली ऋतुओं में खरीफ, रबी और जायद ही किसानी/गंवई भाषा में मुख्य मौसम हैं जो हालाँकि अरबी भाषा से हैँ। वो दौर जा चूका है जब चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, असाढ़, सावन, भादो, क्वार, कार्तिक, अगहन,पूस, माघ, फाल्गुन … की बातें करें क्यूँकि पूस की रात जैसी कहानी न पढ़ सके और अब भगते समय में मोबाईल रील झाँकती पीढ़ी को उसका मर्म समझ नहीं आ रहा है।
किसानी भाषा के साथ गंवाई शब्द का भी संयोजन रखना इस लेख में इसलिये भी जरूरी आन पड़ा है क्यूँकि इस लेख में किसान सिर्फ उन्हें ही समझ कर परिभाषित किया जा रहा है जो गाँव में असल किसानी जीवन जी रहे हैँ- जो कुछ अदद पशुओं के मालिक हैँ, किसी जगह गोबर से लीपे आँगन /दहलीज पर अन्न बोने से पहले दीपक रखते हैँ, कुछ परेशान हैँ मंडी के भाव से, कुछ खुश हैँ पड़ोस से आये कटहल /सहजन सदभाव से, कुछ जा रहे हैँ गन्ने की छिलाई करने कल को, कुछ बैठे हैँ कपास की चूगाई बाद जल को, कुछ देख रहे रस्ता आ रहे धान मजदूरों का, कुछ बचा रहे टमाटर की फसल -किनसे!! दिखते झुण्ड लंगूरों का।
उन किसानों ने फसल दौर और समूहों को बाँट रखा है वार्षिक तौर पर समझे गये गर्मी (जायद), खरीफ (वर्षा)और रबी (ठंड) खेतिहर मौसमों में।
इन फसलों ने अपना स्थान रखा है ज्यादा पानी चाहने, ज्यादा गर्मी सहने, ज्यादा ठंड में निभा पाने के अपने स्वाभाविक प्रतीकारों से किसानों को अन्नदाता कहलाने में, सिर्फ किसान हरेक किसान नहीं बन पाया है अन्नदाता कहलाने का हक क्यूँकि इस जहरीली हवाओं के दौर में जमीन और भूमिगत पानी भी किसान ने प्रदूषित करने में कोई कसर नहीं छोडी है और इसमें भी कहीं ज्यादा दोष उस समाज का है जो खुद को कृषिशास्त्र का वैज्ञानिक समझता है, असल में है नहीं क्यूँकि विज्ञान नाश की तरफ बढ़े फिर विज्ञान नहीं कहलाया जाना चाहिये, ये धीमा प्रकृति संहार है जिसमे उपभोक्ता और और सृजनकर्ता सभी शामिल हैँ।
खेती का दिन कौन सा होना चाहिये, इसमें किसानों बीच भी इन्ही ऋतुओं आधार पर सबस्से ज्यादा मतभेद रहेगा हालंकि उच्च तकनीक को पा चुके विज्ञान में कहीं कहीं मौसम आधारित नहीं बल्कि उसके विपरीत मौसम में फसल उत्पादन ही सफलता की राह बनने से इसका चुनाव उनके लिये ज्यादा आसान है। अमूमन गेहूँ गोभी जैसी ठंड में अच्छी होने वाली फसलें जायदा ऋतू में नहीं उगाई जाती हैँ क्यूँकि तापमान उनके लिये उपयुक्त नहीं रहता, लेकिन देशी पालक और मूली जैसे अपवाद इसके सामने खडे अपने देशीपन में मुस्करा रहे होते हैँ जिन्हे साल के जिस भी दिन किसानी की याद आ जाये, जाकर बो लेना चाहिये।
खेती इस आधुनिक दौर में मौसम की मोहताज तो बची है ज्यादातर जगह पर, नये दौर के किसान ये समझ चुके हैँ कि इस वक्त में लोगों को समय से पहले आने वाली फसलों में रील बना कर दिखाने या खाने का शौक रखने की वजह से उसे अपनी जेब और सेहत दोनों का ही ख्याल कम है और उसे हरेक वो चीज खानी है जो उस विशेष मौसम में सबसे पहले वो ही पाने का अधिकारी बना हो, इसके लिये क्या पैसे खर्च करने है ये अब ज्यादा सोचनीय नहीं बचा है शायद।
ये वो दौर नहीं हो जब मौसमी फसलें ही सर्वोत्तम है की बात का मर्म समझ आये, उसे हरेक चीज की जल्दी है और किसान भी इसी जल्दी में पिछले 2 दशकों में ही बैल भुला ट्रेक्टर, कम्बाइन हार्वेस्टर आधारित खेती सँग सिर्फ और सिर्फ रसायनो में डुबा उन्नत किसान कहलाये जाने वाला जीवन जी रहा है।
किसान दिवस जिस व्यक्तित्व की वजह से मनाया जाता हो वो सादा जीवन और समाज सेवार्थ मेहनत का दौर इस कुछ वर्षो में धुंधला हो चूका है। किसानी में कोरपोरेट का कूदना भी इसी बहरूपिये का रूप है जिसमे जल्द ही भारतीय खेती कहीं अपनी वो असल पहचान खोती जाती नजर आ रहीं, जिसकी वजह से इसे सोने की चिड़िया और बैल को किसान का साथी, केंचूओं को किसान का मित्र कहा जाता था।
हालंकि इसके साथ प्रयास और जागरूकता भी बढ़ी है स्थाई कृषि, सुरक्षित आहार, जैविक जीवन की तरफ जिसमे मील का पत्थर रखा है साल 2023 को घोषित किये श्री अन्नम के अंतर्राष्ट्रीय वर्ष ने और बहुत कुछ पिछले 2वर्षों में इंसानी महामारी के नये स्वरूप कोविड -19 ने जिसके बीच सिर्फ कुछ ही दारा सिँह बचे हैँ जो अपनी वट वृक्ष छाया में नन्ही पौधोँ को इस अंधड से बचाये सौंप रहे हैँ सुरक्षित किसानी की वो विरासत जो उन्होंने अपने पूर्वजों से पाई और सुरक्षित किसानी की अपनी गढ़ी परिभाषाओं में एक नये सवेरे का आगाज देख रहे हैँ।
डॉ. शुभम कुमार कुलश्रेष्ठ
विभागाध्यक्ष-उद्यान विज्ञान, केन्द्र समन्वयक-कृषि शोध केन्द्र ,कृषि संकाय
रविन्द्र नाथ टैगोर विश्वविद्यालय, रायसेन, मध्य प्रदेश
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