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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 22 Dec 2023 5:01 PM |   160 views

गीता जयंती

भगवान श्रीकृष्ण ने 12 महीनों में अपने को मार्गशीर्ष/अगहन मास बताया है |

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।
मासानां मार्गशीर्षोडहमृतूनां कुसुमाकरः।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता जयंती एवं इस माह की महत्ता का प्रतिपादन अपनी गीता के 10वें अध्याय के 35वें श्लोक में कहते है कि मैं सामवेद के गीतों में बृहत्साम हूं और छन्दो में गायत्री हूं तथा समस्त 12 महीनों मंे मार्गशीर्ष (अगहन) तथा समस्त ऋतुओं में फूल खिलाने वाली बसंत ऋतु हंू। इसी माह के शुक्ल पक्ष में भगवान श्रीराम का विवाह भी हुआ था। श्रीमद्भागवत गीता और दुर्गा सप्तसती में साम्यता है। दोनों ग्रन्थ आम जनमानस मे लोकप्रिय है तथा दोनों में 700 श्लोक है जो तत्कालीन महापुरूषों को साक्षी मानकर सम्बोधन किये गये थे।

एक में जहां स्वयं नारायण श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय सखा अर्जुन से संवाद किया था वही दुर्गासप्तसती में मां जगतजननी पार्वती ने अपने पतिदेव और महादेव भगवान शंकर से संवाद किया था इस संवाद को परमपिता ब्रहमा ने श्री अमर मर्कण्डेय ऋषि को तथा दुर्गासप्तसती में परम्परागत रूप से महर्षि मेधा मुनि ने राजा सुरथ एवं वैश्य समाधि को सुनाया था।

कहने का तात्पर्य एक योगमाया परममाया मातेश्वरी के मुखारबिन्द से कथा निकली है तथा दूसरी स्वयं नारायण के मुंह से कथा निकली। दोनों कथाओं में से किसी एक को या दोनों को कोई साधक साधना करता है तो परम भगवान में पराशक्ति में सचिदानन्द में मिल जाता है तथा सांस्सारिक जीवन उसका अनुभव करता है। इसी बात को आज गीता जयंती के अवसर पर तथा अयोध्या में 500 साल बाद बन रहे भगवान राम के मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा के पूर्व इस लेख को आम जनमानस में प्रेषित किया जा रहा है। इसका उद्देश्य मात्र भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रवाद को तथा सनातन संस्कृति को बढ़ाना है तथा आम जनमानस में इस बात को प्रस्तुत करना है।

इसी माघ महीने में आज से 5183 वर्ष पूर्व कुरूक्षेत्र के मैदान में लगभग 45 घड़ी में योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने एकादशी के दिन उपदेश दिया था तथा अगले दिन द्वादशी के दिन से युद्व प्रारम्भ हुआ था इसमें पांडव पक्ष के योद्वा कुरूक्षेत्र के मैदान में पश्चिम की तरफ मुख किये हुये थे तथा कौरव वंश के योद्वा पूरब की तरफ मुख किये थे और युद्व 18 दिन तक चला था, शेष बातें महाभारत के विस्तृत रूप से है परन्तु यह युद्व मुख्य रूप से नारायण श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन में महान योद्वा गंगा जी के पुत्र भीष्म सूर्य पुत्र कर्ण, इन्द्र पुत्र अर्जुन के मध्य हुआ था ऐसा युद्व पूरे विश्व में कभी नही हुआ और न कभी होगा। इसी युद्व से परम पावन मां गंगा की तरह मां गीता निकली थी जो आज सभी को अपने तात्विक एवं पवित्रता से मोक्ष की ओर प्रेरित करती है। 

अयोध्या धाम/लखनऊ – आज से लगभग 5183 वर्ष पूर्व कुरूक्षेत्र के मैदान में लगभग 45 घड़ी में योगेश्वर श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश दिया था। गंगा एवं गीता दोनों में साम्यता है एक भगवान के चरण से निकली हुई है और दूसरी भगवान के मुख से। इस गीता का उपदेश या संकलन महर्षि वेद व्यास जी द्वारा जो श्री नारायण के स्वयं अवतार है उनके द्वारा जय संहिता/महाभारत के एक लाख श्लोक में से 700 श्लोक का विशेष सार है। इसके परायण आदि की प्रक्रिया को मिलाकर विद्वतगण इसको 700 श्लोक का बताते है इसका मूल भाग महाभारत के भीष्म पर्व के प्रथम चरण में उल्लेखित है। कुरूक्षेत्र का मैदान सामान्य मैदान नही है यह चन्द्रमा के अंश से उत्पन्न हुये द्वापर के प्रथम चरण में चन्दवंश में महाराजा कुरूदेव के नाम पर रखा गया है। आज कल जो क्षत्रिय चन्द्रवंश की 12 शाखायें है उसमें से कुरूवंश एक है इसी शाखा में से कौरव एवं पांडव उत्पन्न हुये थे।

गीता को गीता उपनिषद कहा जाता है क्योंकि हमारा सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद एवं उपनिषद सभी प्रश्नोत्तरी की तरह है इसमें शिष्य द्वारा प्रश्न पूछा गया है और गुरू द्वारा उत्तर दिया गया है जहां पर नारायण स्वयं कृष्ण गुरू हो एवं इन्द्र देव के अंश से उत्पन्न अर्जुन श्रोता/शिष्य हो तो उस बात का और महत्व बढ़ जाता है। भगवान ने गीता के सम्बंध में इसकी आधार पहले ही तैयार किया था।

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को कौरव पांडवों का मध्यस्त बनकर दुर्योधन के पास गये थे तथा दुर्योधन द्वारा पांच गांवों को पांडव के लिए न स्वीकार करने पर दुर्योधन का विशिष्ट मेवा आदि विशिष्ट भोजन को त्याग कर विदुर के घर साक का भोजन किया था इसलिए वैष्णव लोग एकादशी व्रत के द्वादशी का पालन करते है। भगवान श्रीकृष्ण से यदि गीता को निकाल दिया जाय तो नारायण का सारतत्व ही निकल जाता है और गीता के कारण ही भगवान श्रीकृष्ण विश्व में प्रसिद्व है।

गीता के 18 अध्याय है सभी अध्यायों का एक अपना विशिष्ट गुण है। जैसे प्रथम अध्याय में 47 श्लोक इसको अर्जुनविषादयोग, अध्याय 2 में 72 श्लोक इसको सांख्ययोग, अध्याय 3 में 43 श्लोक, इसको कर्मयोग, अध्याय 4 में 42 श्लोक, इसको ज्ञानकर्मसन्याययोग, अध्याय 5 में 29 श्लोक इसको कर्मसन्यासयोग, अध्याय 6 में 47 श्लोक इसको आत्मसंयमयोग, अध्याय 7 में 30 श्लोक इसको ज्ञानविज्ञानयोग, अध्याय 8 में 28 श्लोक इसको अक्षरब्रहमयोग, अध्याय 9 में 34 श्लोक इसको राजविद्याराजगुहा्रयोग, अध्याय 10 में 42 श्लोक विभूतियोग, अध्याय 11 में 55 श्लोक विश्वरूपदर्शनयोग, अध्याय 12 में 20 श्लोक भक्तियोग, अध्याय 13 में 34 श्लोक क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग, अध्याय 14 में 27 श्लोक गुणत्रयविभागयोग, अध्याय 15 में 20 श्लोक पुरूषोत्तमयोग, अध्याय 16 में 24 श्लोक दैवासुरसम्पद्विभागयोग, अध्याय 17 में 28 श्लोक श्रद्धात्रयविभागयोग, अध्याय 18 में 78 श्लोक मोक्षसन्यासयोग/सिद्वि अर्थात ईश्वर में मिल जाने का उपदेश दिया है तथा श्रीमद्भागवतगीता में भी इस प्रकार 700 श्लोक है।

दुर्गासप्तसती के पहले अध्याय में 104, दूसरे में 69, तीसरे में 44, चैथे में 42, पांचवे में 129, छठे में 24, सातवें में 27, आठवे में 63, नौवे में 41, दसवे में 32, ग्यारहवे में 55, बारहवें में 41, तेरहवें में 29 कुल 700 श्लोक है।

दोनों ग्रन्थों के श्लोक एक मंत्र के साथ साथ हमारी पूरी जीवन पद्वति को प्रतिबिम्बित करते है। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्ति में निर्गुण सगुण भक्ति का उल्लेख किया है तथा योग में ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग का उल्लेख किया है। पूरे ब्रहाम्ड में जीवन की रचना पंच तत्व से बनी है और इस पंचतत्व से जो जीवधारी है उसका एक आकार है तो किसी आकार से मिलने के लिए किसी आकार की ही पूजा की जा सकती है इसलिए मैं दुर्गासप्तसती एवं श्रीमद्भागवत गीता के आधार पर सगुण भक्ति को ही मानता हूं तथा सगुण भक्ति के बिना ईश्वर के या जगदम्बा के सत्य को नही पाया जा सकता है। इस अवसर पर पर आप सभी को पुनः नमन है।

भगवान श्रीकृष्ण के जो गीता का उपदेश है मुख्य रूप से मन को नियंत्रित कर सफलता को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करना। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने गीता के दसवे अध्याय में जिसको भगवान का ऐश्वर्य/वैभव को प्रदर्शित करता है जिसके 22वें श्लोक में कहा है कि मैं इन्द्रियों में मन हूं तथा इसके 31वें श्लोक में कहा है कि मैं नदियों में गंगा हूं। और 21वें कहते है कि अदिति के पुत्रों में मैं विष्णु हूं इसके 23वें श्लोक में कहते है कि मैं रूद्रों में शंकर हूं। इसके 31वें श्लोक में मैं शस्त्रधारियों में मैं राम हूं और 34वें में कहते है कि मैं सर्वभक्षी मृत्यु हूं और छंदों में मैं गायत्री हूं और 39वें श्लोक में कहते है कि मैं समस्त सृष्टि का जनक हूं। ऐसा चर और अचर कोई भी प्राणी नही है जो मेरे बिना जीवित रह सकें।

ऐसा गुरू अर्जुन को मिला। गीता ने अस्तित्व का शान्तिचित होकर युद्व करने का मन पर विजय पाने का बिना कामना के कर्म करने का और समय के प्रवाह को साक्षी बनने का संदेश दिया है और यह गीता सबसे बड़ा साथी संघर्ष का साथी है सोचिए युद्व की तैयारियां हो चुकी है शंख बज चुके है और एक व्यक्ति जो सामान्य जन की तरह अर्जुन कहते है कि हम अपने दादा भीष्म का गुरू द्रोण का एवं अपने परिवार का वध नही कर सकते है खुद सोचिए जहां भीष्म जी को इच्छा मृत्यु का वरदान था तथा कोई भी नाती पोता अपनेे गद्दी के लिए अपने दादा या गुरू की हत्या नही कर सकता है।

ये सामान्य मनोवृत्त है यह तभी सम्भव है जब साक्षात नारायण किसी पात्र को उपदेश दें क्योंकि नारायण को जानने के लिए पात्रता के साथ साथ दिव्यआंख का होना आवश्यक है जो महाभारत में श्री संजय को और श्री अर्जुन को दिव्य आंख प्राप्त था तथा जो नारायण है बताया कि तुम युद्व करो तुम निमित्त मात्र हो मैं सभी को आज के 18वें दिन तक मैं सभी का भक्षण कर जाऊंगा।

11वें अध्याय में अपना विराट रूप दिखाया और कहा था कि तुम अपना कर्म करो क्षत्रिय धर्म निभाओं अपना पराया कोई नही है। समय और काल मैं ही हूं तथा भगवान श्रीकृष्ण का मात्र उद्देश्य था कि अर्जुन को इसका श्रेय देकर संसारिक लोगों को संदेश देना तथा गुरू की शखा की और शुभचिन्तक की भूमिका निभाना तथा इसके विलक्षण गुरू का उद्देश्य अर्जुन को तैयार कर पूरा हो गया तथा अन्त में *भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय शिष्य मित्र अर्जुन से कहा कि ऐ अर्जुन तुम सभी चीजों को, सभी धर्मो को या धारणा को छोड़कर मेरे शरण में आ जाओ मैं तुमकों सभी पापों से मुक्त कर पवित्र कर अपनी शरण में ले लूंगा* यह गीता के 18वें अध्याय के श्लोक 66 में उल्लेखित है, जो निम्न है।

“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः”
और गीता एक किसी जाति वर्ग की नही है। आज यह संसार के 175 से ज्यादा देशों में योग शास्त्र एवं तर्क शास्त्र के रूप में पढ़ी जाती है क्योंकि इसमें ज्ञान, कर्म, भक्ति और राजयोग सबनिहित है और व्यक्ति का वास्तविक जीवन जाति पर न होकर कर्म पर है यदि जाति किसी के विकास में या देवत्य की प्राप्ति में बाधक नही है इसके महर्षि विश्वामित्र, महर्षि बाल्मीकि, महर्षि जाबाली, महाराजा जनक आदि उदाहरण है।

गीता सबसे बड़ा यही संदेश देती है कि हम भगवान को माने, जाने यदि जीव को भगवान की आवश्यकता है तो भगवान को भी जीव की आवश्यकता है क्योंकि कृष्ण परमब्रहम थे जब कह चुके है कि जब हम 18 दिन बाद सभी का भक्षण कर जायेंगे तो उनको अर्जुन को मनाने की कोई आवश्यकता नही थी तो अपने सुदर्शन से सभी की मार देते। वही हाल मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान राम जी की है यह भी नारायण थे यदि चाहते तो राक्षस राज रावण को अपने दिव्य अस्त्र से अकेले मार डालते पर उन्होंने बंदरी सेना का क्यों प्रयोग किया जबकि अयोध्या के राजकुमार थे अयोध्या का उनके साथ कोई नही गया था लक्ष्मण को छोड़कर उनको इतनी बड़ी सेना तैयार करने की तथा 13 वर्ष तक विभिन्न क्षेत्रों के सेनापतियों की टोली तैयार करने की क्या आवश्यकता क्या थी। यह लेख भगवान नारायण एवं उनके भक्तों को समर्पित है।

ब्रहम संहिता का पहला श्लोक
“ईश्वर परम कृष्णा सच्चिदानन्द विग्रह, अनादिरादि गोविन्दा सर्वकारण कारणः
रामो विग्रहवान धर्मः अर्थात कृष्ण नारायण है और राम का विग्रह ही धर्म है”

डा0 मुरली धर सिंह ‘शास्त्री‘, प्रभारी मुख्यमंत्री मीडिया सेन्टर लोक भवन लखनऊ 

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