धम्मचक्र प्रवर्तन
आज धम्मचक्र प्रवर्तन दिन है। आषाढ़ पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। राजकुमार सिद्धार्थ गौतम ने आषाढ़ पूर्णिमा के दिन 29 वर्ष की आयु में सांसारिक जीवन का त्याग किया था। आषाढ़ पूर्णिमा को धम्म चक्र प्रवर्तन दिवस भी कहा जाता है, क्योंकि सन् 528 इसवी पूर्व इसी दिन सारनाथ में सम्यक संबोधि प्राप्त करने के बाद बुद्ध ने पंचवर्गीय भिक्खुओं को प्रथम धम्म प्रवचन दे कर धम्म चक्र प्रवर्तन सूत्र की देशना की थी।
धम्म चक्र प्रवर्तन दिवस को बहुत महत्व पूर्ण माना जाता है क्योंकि यदि सम्यक संबोधि प्राप्त करने के बाद गौतम बुद्ध धम्म देशना नहीं करते तो आने वाली पीढियों को धम्म लाभ नहीं मिलता और हम लोग इससे वंचित रह जाते। बुद्ध ने पांच परिव्राजकों को संबोधित करते हुए कहा-भिक्खुओं!
जो परिव्रजित हैं उन्हें दो अतियों से बचना चाहिए, पहली अति है कामभोगों में लिप्त रहने वाले जीवन की, यह कमजोर बनाने वाला है, गंवारु है, तुच्छ है और किसी काम का नहीं है, दूसरी अति है, आत्मपीङाप्रधान जीवन, जो कि दुःखद होता है, व्यर्थ होता है और बेकार होता है।
इन दोनों अतियों से बचे रहकर ही तथागत ने मध्यम मार्ग का अविष्कार अनुसंधान किया है, यह मध्यम मार्ग साधक को अंतर्दृष्टि प्रदान करने वाला है, बुद्धि देने वाला है, ज्ञान देने वाला है, शांति देने वाला है, संबोधि देने वाला है और पूर्ण मुक्ति अर्थात निर्वाण तक पहुंचा देने वाला है, यह मध्यम मार्ग श्रेष्ठ आष्टांगिक मार्ग है:
इस आर्य आष्टांगिक मार्ग के अंग हैं, सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि।
बुद्ध ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा- भिक्खुओं! पहला आर्यसत्य यह है कि दुःख है. जन्म लेना दुःख है, बुढ़ापा आना दुःख है, बीमारी दुःख है, मुत्यु दुःख है, अप्रिय चीजों से संयोग दुःख है, प्रिय चीजों से वियोग दुःख है, मनचाहा न होना दुःख है, अनचाहा होना दुःख है, संक्षेप में पांच स्कंधों से उपादान (अतिशय तृष्णा का होना) दुःख है।
अब हे भिक्खुओं! दूसरा आर्यसत्य यह है कि इस दुःख का कारण हैः राग के कारण पुनर्भव अर्थात पुनर्जन्म होता है, जिससे इस और उस जन्म के प्रति अतिशय लगाव पैदा होता है, यह लगाव काम-तृष्णा के प्रति होता है, भव-तृष्णा के प्रति होता है और विभव तृष्णा के प्रति होता है।
अब हे भिक्खुओं! तीसरा आर्यसत्य है दुःख निरोध आर्यसत्य, इस तृष्णा को जङ से पूर्णतः उखाङ देने से इस दुःख का, जीवन-मरण का जङ से नाश (निरोध) हो जाता है।
और अब हे भिक्खुओं! चौथा आर्यसत्य है दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा (दुःख से मुक्ति का मार्ग), इस दुःख को जङ से समाप्त किया जा सकता है और जिसके लिए तथागत ने आठ अंगों वाला आर्य आष्टांगिक मार्ग खोज निकाला है जो सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि हैं।
यह आर्य आष्टांगिक मार्ग सभी दुखों से मुक्ति पाने व वास्तविक सुख:शांति से जीवन जीने का अनमोल रास्ता है। यह वर्तमान जीवन में ही निर्वाण का साक्षात्कार करा सकता है. इसमें मन को वश में रखने और परिशुद्ध रखने पर विशेष जोर दिया गया है क्योंकि सभी अवस्थाएं पहले मन में उत्पन्न होती हैं. मन ही प्रधान है।
मलिन व दूषित मन से बोलने पर या कार्य करने पर दुख पीछे-पीछे ऐसे ही हो लेता है जैसे बैलगाड़ी के पहिए बैलगाड़ी के बैलों के पीछे। जब मनुष्य स्वच्छ निर्मल और प्रसन्न मन से बोलता है या कर्म करता है तो सुख उसके पीछे ऐसे ही हो लेता है, जैसे आपका अपना साया।
इस प्रकार हे भिक्खुओं, इन चीजों के बारे में मैंने पहले कभी सुना नहीं था, मुझमें अंतदृष्टि जागी, ज्ञान जागा, प्रज्ञा जागी, अनुभूति जागी और प्रकाश जागा।
बुद्ध ने अपनी बात पूरी करते हुए आगे कहा, हे भिक्खुओं! जब मैंने अपनी अनुभूति पर इन चारों आर्य सत्यों को इनके तीनों रूपों के साथ, और उनकी बारह कङियों के साथ, पूर्ण रूप से सत्य के साथ जान लिया, पूरी तरह समझ लिया और पूरी तरह अनुभव कर लिया, उसके बाद ही मैंने कहा कि मैंने सम्यक सम्बोधि प्राप्त कर ली है, इस तरह मुझमें ज्ञान की अंतर्दृष्टि जागी, मेरा चित्त सारे विकारों से मुक्त हो गया है, हे भिक्खुओं जब मैंने अपने स्वयं के प्रत्यक्ष अनुभवों से और पूर्ण ज्ञान और अंतर्दृष्टि के साथ इन चारों आर्यसत्यों को जान लिया, यह मेरा अंतिम जन्म है अब इसके बाद कोई नया जन्म नहीं होगा।
बुद्ध के इन चार आर्यसत्य और आर्यअष्टांगिक मार्ग को सुनकर कौंङन्न के धर्मचक्षु जागे और उन्हें यह प्रत्यक्ष अनुभव हो गया कि जो कुछ भी उत्पन्न होता है वह नष्ट होता है, जिसका उत्पाद होता है उसका व्यय होता है, कौंङन्न के चेहरे के भावों को देखकर बुद्ध ने कहा- कौंङन्न् ने जान लिया. कौंङन्न ने जान लिया. इसलिए कौंङन्न का नाम ज्ञानी कौंङन्न पङ गया। बुद्ध के इस उपदेश से कौंङन्न के अंदर भवसंसार चक्र, धम्म चक्र में परिवर्तित हो गया, इसलिए इस प्रथम उपदेश को धम्मचक्र प्रवर्तन सुत्त कहते हैं।
पांचों पंचवर्गीय भिक्खु बुद्ध के चरणों में नत मस्तक हो गए और उनसे अनुरोध किया कि वह इन पांचों भिक्खु्ओ को अपना शिष्य स्वीकार करे. बुद्ध ने “भिक्खु आओ” कह कर उन्हें अपना शिष्य स्वीकार किया| चूंकि पांचो भिक्खुओं ने इसी दिन बुद्ध को अपना गुरू स्वीकार किया था इसलिए आषाढ़ी पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। बुद्ध ने यह उपदेश आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन दिया था, इसलिए बौद्धों में आषाढ़ पूर्णिमा पवित्र दिन माना जाता है।
आषाढ़ पूर्णिमा से भिक्खुओं का वस्सावास (वर्षावास/ चातुर्मास अर्थात वर्षा ऋतु में एक ही स्थान पर वास करना) आरंभ होता है। सबका मंगल, सबका कल्याण ,सबकी स्वस्थ मुक्ति हो।
( ब्रजेश शाक्य , लखनऊ )
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