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By : Kripa Shankar | Published Date : 15 Feb 2022 7:00 PM |   559 views

संत रविदास

रैदास नाम से सुविख्यात संत रविदास का जन्म सन 1388 को बनारस में हुआ था । जब की कुछ विद्वान सन 1398 भी बताते हैं। माघ पूर्णिमा दिन रविवार को अवतरित होने के कारण ही इस संत का नाम रविदास पड़ा  था। इस दिन गंगा स्नान  का भी विशेष महत्व है। संत रविदास कबीर के समकालीन हैं।
पारिवारिक पृष्ठ भूमि में अन्य के अलावा पिता संतोक दास ,माता कालसा देवी ,दादा कालू राम ,दादी लखपती  पत्नी लोना देवी  और पुत्र  विजय दास  थे।
वसीयत  के रूप में पारंपरिक व्यवसाय चमड़े के जूते बनाने का काम मिला , जो आजीविका का साधन रहा। धर्म,पाखंड ,अंधविश्वास और तीर्थ के बारे में लिखा गया उनका सबसे प्रसिद्ध पद प्रासंगकिता के साथ  आज भी जन मानस के जुबान पर रहता है। लिखा है कि-
“मन चंगा तो कठौती में गंगा”
 अर्थात शरीर को आत्मा से पवित्र होने की आवश्यकता है, न कि किसी पवित्र नदी में स्नान करने से।अगर हमारी आत्मा और हृदय पूरा  शुद्ध है तो हम पूरी तरह से पवित्र हैं, चाहे हम घर या कहीं भी नहाएं।
 मध्य युगीन साधकों में रैदास का विशिष्ट स्थान है।कबीर की ही तरह रैदास भी संत कोटि के प्रमुख कवियों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। कबीर ने “संतन में रविदास ” कहकर इन्हें मान्यता दी है।आज दुनिया इन्हें संत शिरोमणि रविदास कहती है।
आरंभिक दिनों में काशी के ब्राह्मणों द्वारा घोर उपेक्षा होती रही ,उनकी प्रसिद्धि को हमेशा रोका जाता था, क्यों कि वे दलित समुदाय के थे और ब्राह्मणों द्वारा भ्रामक ईश्वरीय शक्ति,आस्था के प्रति प्रचार,जाति – पांति  और छूआ- छूत के विरोध में सदा खड़े रहते थे।
बचपन में संत रविदास  ब्राह्मणों से रोके जाने के बाद भी  पाठशाला गए जहां पर उनके तेज,होनहार और व्यवहार कुशलता से प्रभावित होकर पंडित शारदा नंद ने उन्हें अपना शिष्य स्वीकार किया और कहा की यह बालक एक दिन आध्यात्मिक रूप से प्रबुद्ध और महान समाज सुधारक के रूप में अपने परिवार और समाज में ही नहीं पूरी दुनिया में जाना  जायेगा।
महान संत और दर्शन शास्त्री-
रविदास भारत में 15वीं शताब्दी के एक महान संत, दर्शन शास्त्री, कवि ,समाज सुधारक और ईश्वर के अनुयाई थे। वे निर्गुण संप्रदाय अर्थात संत पतंपरा में एक चमकते नेतृत्व कर्ता और प्रसिद्ध व्यक्ति थे ,तथा उत्तर भारतीय भक्ति आंदोलन को नेतृत्व देते थे। ईश्वर के प्रति अपने असीम प्यार और अपने चाहने वाले अनुयाई , सामुदायिक और सामाजिक लोगों के सुधार के लिए अपने महान व्यक्तित्व और कविता लेखनों के माध्यम से संत रविदास ने विविध प्रकार की आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश दिए।इनकी ख्याति से प्रभावित होकर सिकंदर लोदी ने इन्हें दिल्ली आने का निमंत्रण भेजा था।
पाखंड और अंधविश्वास का विरोध-
मूर्ति पूजा, तिर्थ यात्रा जैसे दिखावों में रैदास का बिलकुल विश्वास नहीं था।वह व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं और आपसी भाई चारे  को ही सच्चा धर्म मानते थे।रैदास ने अपनी  काव्य रचनाओं में सरल और ब्रज भाषा का प्रयोग किया है,जिसमें अवधी,राजस्थानी,खड़ी बोली तथा उर्दू – फारसी के शब्दों का भी मिश्रण है। रैदास को उपमा और रूपक अलंकार विशेष प्रिय रहे हैं। सीधे सादे पदों में संत कवि ने हृदय के भाव को बड़ी सफाई से प्रकट किए हैं।इनका आत्म निवेदन,दैन्य भाव और सहज भक्ति पाठकों के हृदय को उद्वेलित करते हैं।रैदास के चालीस पद  सिक्खों के पवित्र धर्मग्रंथ “गुरुग्रंथ साहब”में भी सम्मिलित हैं।मीरा बाई ने इन्हें ही अपना गुरू बनाया था।
रेदास के पद
चल मन! हरि चटसाल पढ़ाऊं।।
गुरु का साटी ज्ञान का अक्षर,
बिसरै तौ सहज समाधि लगाऊं।
अब कैसे छूटी राम रट लागी।
प्रभु जी तुम चंदन हम पानी,
जाकी अंग अंग बास समानी।
सब कुछ होते हुए जाति अपमान का बोध अंत तक इस संत को सताता रहा।इन्होंने अपने ज्ञानदर्शन और आध्यात्म शक्ति के बल पर संत परंपरा के शीर्षस्थ  हो गए, परंतु समाज सुधारक के रूप में प्रथम पंक्ति में आगे रह कर  अपनी पूर्ण सेवा से अस्पृश्यता निवारण हेतु जीवन पर्यंत  सतत प्रयासरत रहे।
अपनी वाणी,सत्संग, पद्य और गद्य के माध्यमों से समाज के सभी वर्गों को संदेश देते रहे।
दलितों और पिछड़ों के मसीहा महानायक बाबा साहब डॉ. भीम राव आंबेडकर रैदास और संत कबीर के दर्शन पर ही आधारित अपने विचार व्यक्त किया करते थे।इन्हीं लोगों के वाणी को प्रश्रय देकर ही  समता मूलक समाज की स्थापना करना चाहते थे, जिसमें केवल और केवल मानवता और मानव धर्म ही सबसे बड़ा हो।
पूरे भारत व विश्व के कुछ हिस्सों से माघ महीनें के पूर्ण चंद्रमा दिन पर माघ पूर्णिमा के दिन प्रत्येक वर्ष  बड़े ही उत्साह और हर्षो उल्लास  से उनके जन्म स्थली सीर गोवर्धनपुर वाराणसी में मनाया जाता है। इसमें बहुत बड़ी संख्या में पंजाब एवं विश्व के अन्य देशों से सिख समुदाय जत्था बनाकर आते हैं। 15 दिन से ही लंगर चलता रहता है, जिसमें हजारों की संख्या में भक्त आते हैं । कोई सेवादारी में तो कोई चौकीदारी में भाग लेते हैं।भव्य मेले का रूप देखकर जिला प्रशासन द्वारा संचालित बहुत से सेवा कैंप चलाए जाते हैं।
आज भी आध्यात्मिक रूप से समृद्ध संत रविदास की पूरे विश्व में पूजा होती है।धार्मिक आंदोलनों में भी उत्तर प्रदेश,पंजाब और महाराष्ट्र में इनके गीत गूंजते रहे हैं।
दलितों और पिछड़ों के बीच का संत निश्चित ही इस ब्रह्मांड का दूसरा सूरज है,जो अपनी प्रभा मंडल से पूरी दुनिया को ज्ञान,भक्ति,सेवा , वैराग्यऔर मानवता के संदेश से आलोकित करता रहेगा।
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