कड़वे पत्ते
रात को दो बजे नींद खुली। बदन इस देश की तरह कराह रहा था ! खासकर जहां जहां जोड़ हैं। जोड़ों का क्या ईलाज? उत्तर-पश्चिम-पूर्व के सारे जोड़ कराह रहे थे। शरीर तप रहा था। होंठ सूखे थे। रात को दो बजे किसी को जगाकर क्यों परेशान करूँ? आखिर किसी आतंकवादी की सुनवाई तो है नहीं। मौसम बदल रहा है देश बदल रहा है इसीलिए तो बुखार होगा! कई लोगों का तापमान बढ़ रहा है उन्हें कड़वी दवा और सुइयां दी जा रही हैं। यही सोचकर मैंने हिम्मत दिखाई और उठकर दवा ढूंढने लगा। पैर कांप रहे थे पर दवा मिल गई थी। एक गोली निगलकर वापिस सो गया।
कब सुबह हुई पता नहीं चला। सुबह के सात बजे रहे थे। बदन अभी भी जल रहा था। धर्म वाली पत्नी सिरहाने बैठी थी। वो कभी सिर दबा रही थी कभी पैर, और मैं उसे बार बार मना कर रहा था।
दबाने से क्या होगा! पर दबाने से कभी दर्द कम होता है कभी ज्यादा होता है। संसार का सारा तंत्र दबाने से ही चलता है। ताकतवर कमजोर को दबाता है। यह दबाव तंत्र बहुत व्यापक है। आजकल कमजोर की हाय से कुछ नहीं होता। हायतौबा मचाने से भी कुछ नहीं होता। ताकत को जुटाना पड़ता है। मैं भी पूरी ताकत से उठ खड़ा हुआ। पेरासिटामोल की गोली ने अपना काम किया था। कई बार गोलियां ही काम करती हैं!
पर परिवार की जिद्द के आगे सरकारी अस्पताल जाना पड़ा। डॉक्टर साब ने सीबीसी और डेंगू की जांच की सलाह दी। कुछ दवाएं भी दे दी। सरकारों का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि डॉक्टर द्वारा लिखी गई दवाओं में से कुछ तो फ्री में मिल ही जाती हैं। पर कई लोगों के फ्री की दवाएं कम असर करती हैं!मसलन दवाएं वही थी जो बुखार में दी जाती रही हैं। खून की जांच करवाने पहुंचा। लेबोरेट्री में डेंगू की जांच का किट था पर अफसोस ऐसा कोई किट नहीं था जो सच और झूठ की पहचान कर पाता! हाँ , पैसे देकर आप पॉजिटिव और नेगेटिव हो सकते हैं! डॉक्टर से पर्चा लिखवाकर आप मेडिकल लीव लेकर मनाली के मच्छरों पर शोध कार्य करने जा सकते हैं ! हाँ तो सीबीसी जाँच के दो सौ रुपए और डेंगू की जाँच के साढ़े आठ सौ। जैसे कोरोना का ईलाज नहीं, वैसे ही डेंगू का भी कोई ईलाज नहीं। कोरोना का टीका आ गया पर डेंगू का नहीं! हाँ, मरते डेंगू बुखार से भी हैं पर कोविड से कोई मुकाबला नहीं। एक हजार पचास रुपए का भुगतान क्रेडिट कार्ड से किया। महीने के आखिरी सप्ताह में बचते ही कितने हैं?
मैं बहुत सकारात्मक आम हूँ। बाहर से हरा-पीला दिख सकता हूँ पर अंदर से मीठा! मेरी सकारात्मकता की वजह से ही मैं डेंगू पॉजिटिव था। भय की कोई वजह नहीं थी बस पेरासिटामोल खाना था। प्लेटलेट्स का स्तर चेक करते रहना था। किसी ने कहा कि बकरी का दूध पीयो। आसपास पता किया तो केंपस में ही बकरी चरवाने वाला मिल गया। बेचारे ने आधा गिलास दूध दिया और पचास रुपये ही लिए ! ऊपर से उसने एक अहसान और जता दिया ! “साब लोग तो दो सौ रुपये तक दे रहे हैं।” हम गाँव वाले शहरियों को देखकर बकरी वाले भी अर्थशास्त्र जानने लगे हैं।
हालांकि डेंगू की लंबी कहानी है। मेरे बाद बेटे को हुआ फिर बेटी को भी। हर जगह बकरी के दूध का और खून की जाँच का भाव अलग है। हर जगह आदमी का भाव अलग है। पपीता पेड़ या पौधा ? मुझे नहीं मालूम! पर शहर के सारे पपीते नंगे खड़े हैं।
इस देश में मच्छर की प्रजातियां कभी खत्म नहीं हो सकती। अब कोई पांच साला कालचक्र भी नहीं है! नई प्रजातियां पैदा होती रहेगी और वक्त-बेवक्त कानों के पास आकर भिनभिनाती रहेगी। कीचड़ साफ करने की बजाय हम एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते रहेंगे। मैं विषयवस्तु से भटक रहा हूँ पर कभी-कभी सोचता हूँ कि इस देश की सारी संपत्तियों को बेच दिया जाए बस शिक्षा और स्वास्थ्य फ्री कर दिया जाए। कोई कुपोषित नहीं होगा अगर मामला स्वास्थ्य का होगा!
अब मैंने जाना कि पपीते के पत्ते भी नीम जैसे ही कड़वे होते हैं। हाँ, फल जरूर मीठा होता है।
– आनंद सिंह चौहान , सीमा सुरक्षा बल
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