कहाँ है मेरा ठिकाना
रोज- रोज करती हूँ
खुद से नया बहाना
पता नहीं है मुझे
कहां है मेरा ठिकाना।
जब अकेले ही मुझे
हर हाल में है चलना
तो क्या इंतज़ार अब
गैरो के आने का करना।
मंज़िल पाने के वास्ते
दूर मुझे है जाना
जाग कर नींद से
दोबारा नहीं अब सोना।
नहीं दिल चाहता
किसी की राय लेना
मुझे तो अपने विचारो
पर ही है चलना।
किया है मैंने हरदम
मुसीबतो का सामना
भले ना दे साथ
मेरा कोई भी अपना।
जो ना समझे मुझे
उसे क्या समझाना
मुकद्दर अपना मुझे
खुद ही है बदलना।
(दिव्या चौबे )
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