मुक्तक
जीवन की कड़ुवी घूंट पिए जा रहा हूं
पैबन्द पर पैबन्द सिए जा रहा हूं
घुट घुट कर मरता हूं हर रोज हर कदम
फिर भी न जाने क्यूं मैं जिए जा रहा हूं
गुजरे हुए लम्हों को अफसाना समझिए
दिल दर्द से खाली हो तो वीराना समझिए
पत्थर तो जमाने में चलते ही रहते हैं
ज़ख्मों का महज दिल में ठिकाना समझिए
अंदाजे बयां कुछ ऐसा विचित्र हो गया
दुश्मन भी लगता है कि मित्र हो गया
डूबा हुआ था जो पाप के समंदर में
फीता काटने के लिए वही पवित्र हो गया
ले रहा था जाम मैं तो जुनुने इश्क में
नजरों का सागर माहरू ने बढ़ा दिया
गिरा पैमाना हाथ से छूट कर ज़मीं पर
नजरों से पिला के नशा और चढ़ा दिया
( डाॅ0 भोला प्रसाद आग्नेय, बलिया )
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