Friday 29th of March 2024 05:01:57 AM

Breaking News
  • दिल्ली मुख्यमंत्री केजरीवाल को नहीं मिली कोर्ट से रहत , 1 अप्रैल तक बढ़ी ED रिमांड |
  • बीजेपी में शामिल होने के लिए Y प्लस सुरक्षा और पैसे की पेशकश , दिल्ली के मंत्री सौरभ भरद्वाज का बड़ा आरोप |
Facebook Comments
By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 11 Jun 2020 4:10 PM |   370 views

आमजन का श्वेतपत्र

पहले और दूसरे लॉकडाउन में पूरी उम्मीद थी कि भारत कोविड-19 की  वैश्विक महामारी पर नियंत्रण कर लेगा। पर अब तो अनलाकिंग के प्रथम चरण के साथ ही सरकार और सुप्रीम कोर्ट ने भी कमोबेस मान ही लिया है  कि इस महामारी का सामुदायिक फैलाव हो चुका है और अब इससे बचना जनता की समझदारी और सावधानी पर ही निर्भर है। देश को सीमाओं के बाहर और भीतर जैसी चुनौतियां सुरक्षा, बेकारी, भुखमरी, गरीबी आदि की मिलीं हैं इनके चलते सरकारें मानने को बाध्य हुईं कि यह महामारी हमारे रोके नहीं रुकने वाली, अब इसके साथ ही जीना सीखना होगा।
 
अमेरिका और यूरोप को तो संभलने का मौका बिलकुल नहीं मिला, जबतक इस बीमारी को कुछ समझ पाते तबतक वे इसकी चपेट में आ चुके थे।  पर भारत में तो  कोरोना को दूषित सोच और निहित स्वार्थों के तहत लाया गया। भारत को संभलने के लिए नियति ने दो माह का समय दिया, पर लोकतन्त्र की चुनावी व सत्त्तानशीनी मजबूरियों में अंधी राजनीति ने सब पर पानी फेर दिया। इस देश में 30 जनवरी को  कोविड-19 का प्रवेश हुआ जब पहला मामला सामने आया। तीन फरवरी को संख्या तीन की हो गयी वुहान से हवाई जत्थे के लौटने के साथ ही। यह बहुत बड़ा संकेत था।  अगली चेतावनी चार मार्च को मिली जब इटली से आए 22 लोग पॉज़िटिव निकले। पर इन सभी संकेतों को नज़रअंदाज़ किया गया। फरवरी के दूसरे सप्ताह के आरंभ में ही अंतराष्ट्रीय उड़ानों को बिलकुल बंद कर देना चाहिए था। यदि नेताओं, पूँजीपतियों के सगे-संबंधियों को लाने का बहुत दबाव पड़ता तो इस शर्त पर उन्हें भारत पर आने की अनुमति दी जाती कि इस महामारी के दुनिया से समाप्ति तक ऐसे लोगों को राष्ट्र के व्यापक हित में जोधपुर नहीं, बल्कि लक्षद्वीप या अंडमान के किसी निर्जन द्वीप पर, इनके या इन्हें बुलाने वालों के खर्चे पर, आइसोलेशन में रखा जाएगा। यदि ऐसा किया जाता तो इतना तय था कि पैरासिटामाल लेकर थर्मल स्कैनिंग से बच निकलने वाले  99 प्रतिशत राष्ट्रभक्त हवाई यात्री जहां थे वहीं पड़े रहते संकट टलने तक। उस समय चुनाव यदि इस प्रक्रिया में बाधक बनते तो उन्हें भी बेहिचक कैंसिल कर देना था।
 
भारत में इस देश हितवादी नीति का यदि अधिक विरोध होता, उनके द्वारा जिनकी आवाज़ें पैसे और पावर के बूते बहुत ऊंची रहती हैं, तो बिना संकोच, अविलंब राष्ट्रीय आपातकाल लागू कर देना चाहिए था, इस महामारी के दुनिया से समाप्ति तक। तत्काल राष्ट्रीय आपातकाल लागू करने की बात तो उस समय कई बार उठायी गयी थी, पर सत्तासीनों व इनके कचरे सलाहकारों ने अनसुनी कर व्यवस्था को बुरी तरह फंसा दिया। यदि ऐसा किया गया होता तब न जमातियों की नौबत आती, न बेवड़ों का तमाशा, न प्रवासी मजदूर परिवारों का दुर्दशापूर्ण-पलायन, न लॉकडाउन; न महामारी का सामुदायिक प्रसार और न ही आमजन के साथ कोरोना योद्धाओं के जीवन पर संकट आता। भारत गहराती मंदी से भी साफ बच सकता था, गरीबी और बेकारी के इस नए संकट से  बचा जा सकता था और सीमाओं पर चुनौतियाँ देने की हिमाकत पड़ोसी न कर पाते। पर चंद लोगों की नाराजगी से बचने के लिए समय पर सही कदम नहीं उठाया गया। उस समय यदि राष्ट्रीय आपातकाल लागू करते तो निश्चित ही पेशेवर विरोधी इसे ‘कोरोना के नाम पर लोकतन्त्र का गला घोटने’ की संज्ञा देते। पर नेतृत्व को ऐसी खोखली आलोचनाओं की परवाह बिलकुल नहीं करनी चाहिए। 
 
पर, उस समय नेता लोगों का सारा ध्यान तो फरवरी के दूसरे सप्ताह में आसन्न विधानसभा चुनावों में लगा हुआ था। आज का केंद्रीय नेतृत्व राज्यस्तरीय चुनावों को देशहित से ऊपर रखकर इन्हें जरूरत से ज्यादा महिमामंडित करने तथा इनमें सर खपाने की प्रवृत्ति पाले बैठा है। दिन-रात उठते-बैठते राष्ट्रवाद और भारत माता की रट लगाने वाले अतिउत्साही भक्त भारत माता पर आसन्न संकट को ऐन मौके पर पूरी तरह भूल गए। खैर, जैसी नीयत वैसी बरकत, जैसी भावना वैसी सिद्धि। पाँच राज्यों  में चुनाव परिणाम मन-माफिक नहीं आए, मन खिन्न हुआ, केंद्र ऐसा उलझा कि मार्च के तीसरे माह में जाकर कहीं चुनाव और परिणाम का खुमार नशा उतरा, पर काफी देर कर चुके थे, अब तो कर्फ़्यू और लॉकडाउन आखिरी रास्ता बचा था।
 
अब जो चूक हो चुकी उसको विचार में लाने से कोई लाभ है क्या? हाँ, बहुत आवश्यक है, असलियत को समझने के लिए, आगे के लिए बहुत से सबक निहित हैं इसमें। आज जो स्थिति उत्पन्न हुई है वह वैश्विक स्थितियों की घटिया समझ,राजनीति की गलत प्राथमिकताएं, बन्तु चाटुकार विशेषज्ञों की निकृष्ट सोच व निहायत गलत नीतियों का नतीजा है। उदाहरण के लिए, चीन द्वारा भारत के साथ उत्पन्न किए गए सीमा-विवाद पर ट्रम्प प्रशासन के प्रस्ताव को बहुत जल्दबाज़ी में साफ मना कर दिया गया। जबकि भारत के लिए यह एक बड़ा अवसर था चीन की कलई खोलने का। मान लीजिये भारत इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता और चीन नहीं स्वीकारता तो अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में संदेश जाता कि चीन  सुलह-शांति का इच्छुक है ही नहीं। पाकिस्तान के मामले में मध्यस्थता का ट्रम्प प्रस्ताव इससे बिलकुल भिन्न व अनावश्यक था।
 
मीडिया की भूमिका कई मामलों में गुमराह करने वाली है। कोरोना पर कुछ प्रेस मीडिया, सोशल मीडिया व अनेक चिकित्सक दावा कर रहे हैं कि भारत में आते-आते कोरोना कमजोर पड़ चुका है और दुनिया में covid-  19 से मृत्यु दर सात प्रतिशत की अपेक्षा भारत में महज 2.5 प्रतिशत ही है। यह पूरी तरह गलत आकलन है। भारत में कोरोना पॉज़िटिव की दूनी होने की अवधि अभी 16 दिन चल रही है। इस लिहाज से सही मृत्यु दर 16 दिन पहले के कोरोना पॉज़िटिव मरीजों के प्रतिशत के रूप में भारत में भी कमोबेश सात प्रतिशत ही ठहरती है। अतः इसे हल्के में लेना ठीक नहीं है।
 
वर्तमान नेतृत्व और भक्तों की कठिनाई यह है कि राजनीतिक व व्यवसायिक  मामलों में तो इनकी बुद्धि अनावश्यक जटिलता के साथ बहुत महीन तरीके से चलती है। पर राष्ट्रहित की बात सामने आते ही इनका सतही राष्ट्रवादी दिमाग अचानक गरम हो उठता है, नेहरू से लेकर आजतक के विपक्ष की चूकें इनकी स्मृति पर इस कदर हावी हो जाती हैं कि इनका रचनात्मक पहलू  बिगड़ जाता है और कम से कम नॉवेल कोरोना के मामले में समय पर चूक गए, नोट और वोट की राजनीति से ऊपर नहीं उठ पाये, राष्ट्रहित की वास्तव में पूरी तरह अनदेखी कर गए। छद्म पूंजीवाद व पिट्ठू पूंजीवाद की मजबूरियों ने देश को फँसाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है। विपक्ष की हर आलोचना पर बिदकने और उलझने की अपरिपक्क्वता देशहित साधन में घातक साबित हुई है। शीर्ष नेतृत्व के लोग अध्यात्म, योग, धर्म, संस्कृति और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की बातें तो खूब लच्छेदार तरीके से करते हैं, वोट के राजनीति-व्यापार में यह लाभकारी भी साबित हुआ है, पर नेतृत्व में इन बातों पर, खासकर परमतत्व  के गहन-गंभीर ध्यान-साधन का घोर अभाव है, उनकी योग व अध्यात्म की समझ व कौशल एकदम सतही है। अत: वे राष्ट्रहित के ऐसे सबसे  महत्मेंवपूर्ण मामले में समय पर  सम्यक बुद्धि से निर्णय लेने में चूक गए। अब अपनी गलतियों को कवर देने के लिए दूसरों को दोषी बनाना और इधर-उधर की बातें उछालना मजबूरी ही तो है।
 
आर्थिक नीतियों में ‘मेक इन इंडिया’ तकनीकी हस्तान्तरण हेतु अल्पसमय के लिए ही उपयोग के लायक है। दीर्घकाल में तो यह पूंजीवाद को व्यवस्था पर थोपने व ‘सुख के साथी’ बाहरी कंपनियों के  अवसरवाद का ही उपाय है। अतः असली रास्ता तो  ‘मेड इन इंडिया’ ही है।   
 
( प्रोफेसर आर पी सिंह,वाणिज्य विभाग,गोरखपुर विश्वविद्यालय)
Facebook Comments