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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 12 Feb 2020 7:24 PM |   870 views

भोजपुरी विरोध: भ्रांतियाँ एवं तथ्य

कतिपय बुद्धिजीवी अज्ञानतावश भोजपुरी के विरोध पर उतारू हैं। भोजपुरी का दुर्भाग्य रहा है कि इसके समर्थक और विरोधी दोनों ही भोजपुरी को भाषा में सीमित कर परस्पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहते हैं। पर छत्तीसगढ़, झारखंड, तेलंगाना, विदर्भ, सौराष्ट्र, उत्तराखंड या बुंदेलखंड की ही भांति भोजपुरी भी क्षेत्र की पहिचान, राज्य, संस्कृति, स्वाभिमान तथा विकास ही मुद्दा है भाषा का नहीं। फिर भी अगर लोग इसकी प्रबल अभिव्यक्तिगत क्षमता का मर्यादित उपयोग करते हैं तो इसमें कोई हर्ज़ नहीं है।

भाषा की आड़ में असली मुद्दे पीछे होते रहे हैं। कुछ वर्षों तक अनेक लोग ‘भाषा भोजपुरी, राज्य पूर्वाञ्चल’ का प्रचार करते रहे। इन लोगों ने बड़ी चतुराई से पहिचान व प्रदेश से हटाकर भोजपुरी को भाषाई हथियार बना दिया। ऐसे लोग भी कम नहीं है जो भोजपुरी प्रायः तब बोलते हैं जब किसी मजदूर या रिक्शावाले को मजदूरी भुगतान में दबाना होता है। भोजपुरी इनके लिए शोषण का ही जरिया रहा है। पर यह विकासोन्मुख समाज आंदोलन के लिये ठीक नहीं है।  

भोजपुरी भाषा का नहीं बल्कि इस क्षेत्र व जनता की  पहिचान, आत्मविश्वास तथा विकास का व्यापक विषय है। ठीक जैसे तेलंगाना व आन्ध्र दो भिन्न पहिचान व संस्कृतियां हैं भले ही भाषा तेलुगू है। पर भाषा में सीमित कर भोजपुरी संस्कृति ही नहीं इस क्षेत्र व जनता को भी लम्बे समय से काफी क्षति पहुंचाई गयी है, भले ही भाषा के व्यवसायियों ने भोजपुरी अभिव्यक्तियों में अश्लीलता परोसकर खूब लाभ कमाया हो।

यदि कुछ लोग प्राइमरी से विश्विद्यालय स्तर तक भोजपुरी के माध्यम से शिक्षण की अपेक्षा करते हैं तो यह समय के पहिए को पीछे ढकेलना ही होगा। पर भोजपुरी की भाषागत सामर्थ्यं का साहित्य, फिल्म या अभिव्यक्तिगत व्यवसायों में मर्यादित उपयोग इस बहाने से नहीं  रोका जा सकता कि इससे हिन्दी कमजोर हो जाएगी। और भोजपुरी की यह सामर्थ्य तो सिद्ध हो चुकी है। संविधान की आठवीं अनुसूची में  शामिल करने से भोजपुरी के इस सामर्थ्य-उपयोग में निश्चित ही और मदद मिलेगी। वैसे गोरख, भर्तृहरि, कबीर की क्रांतिकारी भाषा कभी राज्याश्रय की मोहताज नहीं रही है।   

कुछ लाख सिन्धी शरणार्थियों की सिन्धी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने से गुजराती भाषा को आजतक खतरा पैदा नहीं हुआ। फिर भोजपुरी को मान्यता देने से हिन्दी कमजोर नहीं होगी बल्कि और समृद्ध ही होगी। हिन्दी को असली खतरा तो अंग्रेजी से है, भोजपुरी, मैथिली, मगही, अंगिका आदि से नहीं। यह भी सच है कि भाषा को संवैधानिक मान्यता मिल जाना मात्र ही पर्याप्त नहीं है। मैथिली व सिंधी इस बात के उदाहरण हैं। स्वयं हिन्दी राजभाषा की संवैधानिक मान्यता के बावजूद 72 वर्षों में राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई। वैसे राष्ट्रभाषा की अवधारणा ही दोषपूर्ण और घातक है। दो-तीन भाषाओं को राष्ट्रीय संपर्क भाषा तथा इसी तरह राज्यों में प्रांतीय संपर्क भाषा का उपयोग बेहतर है। भोजपुरी भाषा को संवैधानिक मान्यता मिलने से इस क्षेत्र का सम्मान बढेगा। यहां की जनता में आत्मविश्वास व विकास का भाव बढ़ेगा तथा उनमें हीनता तथा नकारात्मकता समाप्त होगी।

 भोजपुरी पहिचान व राज्य का मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय संबन्धों के लिहाज से भी काफी महत्वपूर्ण है। नेपाल के 10 जिलों में (4 जिलों में खाँटी) भोजपुरी बोली जाती है। फिर मारिशश, सूरीनाम, फ़िजी आदि 14 देशों का सांस्कृतिक आधार ही भोजपुरी है, भाषा भले ही कुछ भी हो। अतः भोजपुरी भारत की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का महत्वपूर्ण घटक है। इसकी उपेक्षा मूर्खता है।          

 प्रगतिशील समाजवाद दर्शन के प्रणेता श्री प्रभात रंजन सरकार का ही कथन है “भविष्य में भाषागत व सांस्कृतिक विमिश्रण से जैसे-जैसे विभिन्न समाज नजदीक आते जाएंगे दक्षिण पूर्व एशिया एक समाज में बदल जाएगा।” (सामाजिक – आर्थिक समूहीकरण, कणिका में प्रउत, भाग 13, 1979) तब भाषा व संस्कृति भेद तो समाप्त हो जाएगा लेकिन प्रशासनिक कुशलता, विकास, पहिचान, विरासत, विविधता व रोचकता के नजरिए से तेलंगाना, आंध्र, तमिल, बंगाल, छत्तीसगढ़, पंजाब की भांति एक उचित आकार के कुशल राज्य के तौर पर पृथक भोजपुरी, अंगिका, विदर्भ, सौराष्ट्र की प्रासंगिकता तो हमेशा बनी रहेगी।

जब 13 जिलों और 60 लाख की आबादी पर हिमाचल और उत्तराखंड बनाए जा सकते हैं, 18 जिलों पर झारखंड बन सकता है तो 27 जिलों के बृहत्तर क्षेत्र पर भोजपुरी क्यों नहीं?

राज्य के नाम व राजधानी का मुद्दा भी जनता जनार्दन के कालगत रुझान पर छोड़ देना चाहिए।

वैसे तो इसके लिए  भोजप्रांत, भोजभूमि, भोजखण्ड, भोजांचल, काशीराज जैसे कई अच्छे नाम सामने है।

पूर्वांचल शब्द शब्द सुनने में भले ही अच्छा लगे पर अवधारणा गलत है क्योंकि यह किसी भी तरह भारत के पूर्वी हिस्से में नहीं आता। फिर इलाहाबाद व आसपास के क्षेत्र तो अवधी में आते हैं। 

जो कथित महान लोग भोजपुरी राज्य या भाषा की संवैधानिक मान्यता का विरोध कर रहे हैं इस क्षेत्र के प्रति अपनी चिरविद्यमान हीनमन्यता, शोषणवृत्ति तथा आत्मविश्वास, समझ व सूझ की कमी के चलते वे ऐसा करने को बाध्य हैं।

जन भोजपुरी मंच तथा हिन्दी बचाओ मंच, दोनों ही गलत और भ्रामक तथ्यों द्वारा सबको गुमराह कर रहे हैं। हिन्दी बचाओ मंच के हवाले से बताया जा रहा है कि भोजपुरी भाषा में रामचरितमानस, पद्मावत, सूरसागर जैसा एक भी ग्रंथ नहीं है। पर गोरख, भर्तृहरि, कबीर जैसे निर्भीक, अध्यात्ममुखी रचनाकार तथा महाकवि घाघ जैसे वैज्ञानिक साहित्यकार दूसरी भाषाओं में कहाँ मिलते हैं! हरेक की अपनी खूबियाँ है। ऐसी ही तमाम बचकानी दलीलें दोनों तरफ से दी जा रही हैं। पर दोनों ही भोजपुरी को केवल भाषा का मुद्दा बनाए रखने पर तुले हैं।  दोनो ही भारत के प्रधानमंत्री तक को बकवास लिखकर भेज रहे हैं।

 पाली भाषा 2500 वर्षों पूर्व बुद्ध के काल में चलती थी। आज यह प्रचलन से बाहर होते हुए भी विश्वविद्यालयों में अध्ययन व शोध का विषय है। बौद्ध तथा जैन साहित्य को ठीक से समझना है तो पाली जानना आवश्यक है। पाली किसी राजनेता की  मांग पर नहीं बल्कि अकादेमिक आवश्यकता के चलते पढ़ाई जाती है। यही बात भोजपुरी पर भी लागू होती है।    

 भोजपुरी बोलने और लिखने में ही भोजपुरी का सम्मान है, यह संकीर्ण नज़रिया भोजपुरी आंदोलन को बर्बाद करता रहा है। इसको बदलना होगा। भोजपुरी को इस क्षेत्र व यहाँ की जनता के पहिचान, स्वाभिमान और विकास का मुद्दा बनाना होगा।

              प्रोफेसर आर  पी सिंह

     दी द उ गोरखपुर विश्वविद्यालय 

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