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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 9 Apr 2022 6:22 PM |   796 views

लोक कल्याणकारी राज्य

रोजगार के लिए गांव को शहर की तरफ ताकना पड़ता है। खेती-किसानी में अब कुछ खास बचा नहीं है।  परम्परागत खेती की जगह अब पढ़ा-लिखा किसान व्यावसायिक फसलें उगाकर खुद को मजबूत कर रहा है।  हां, किसानों के नाम पर  हल्ला-गुल्ला  भी कुछ  ज्यादा ही है। वैसे भारत के लचीले संविधान ने सबको सब तरह की आजादी दी है। लचीलापन तो इतना है कि बड़े-बड़े गुंडे भी लोकतंत्र के मंदिर में भगवान बनकर बैठ गये हैं और अब लोक-कल्याण कर रहे हैं! यही तो इस भारत महान की खूबसूरती है। 
 
कुछ दिनों पहले मैं गांव गया था।बेचारा गांव भी कई पाटों में फंस गया है! लोक-कल्याणकारी राज्य बनाते-बनाते पंचायती राजव्यवस्था की खूबसूरती ने गांव को बहुत मजबूत बना दिया है। गांव वालों के हाथ में एक लाठी है और सब एक ही भैंस को अपना बनाने पर तुले हुये हैं।  बीते सालों में गांव की आबोहवा का भी कल्याण हो गया है। मेरे जैसे लोग स्वकल्याण के लिए शहरों में अपना योगदान देने चले गये हैं। वे कभी-कभार आते हैं और अपनी हैसियत के अनुसार धमाका कर जाते हैं।
 
गोचर भूमि पर मेरे भाइयों ने कब्जा कर लिया है। अब गायें प्लास्टिक खाकर गुजारा करने लगी हैं और अब तो उनका पाचन तंत्र भी भारतीय राजनीतिक तंत्र जितना मजबूत हो गया है! जिस तंत्र ने तालाब, जंगल, सड़कें,कोयला और बड़ी बड़ी परियोजनाओं को पचा लिया हो उसके लिए प्लास्टिक के कोई मायने नहीं है। हां, शहरों की तरह मेरे गांव में कचरे वाली गाड़ी नहीं आती जिसमें दो डिब्बे होते हैं- एक गीला कचरे वाला और दूसरा सूखे  कचरे वाला। गांवों में एक डिब्बे से काम चल सकता है। शाम के खाने के बाद गीले जैसा कुछ बचता ही नहीं है कि उसका निस्तारण किया जाए! हम ग्रामीण अच्छे अर्थशास्त्री होते हैं। रात की रोटियां अलबत्ता तो गाय-कुत्ते खा जाते हैं नहीं तो सुबह छाछ में भिगोकर खा लेते हैं । सूख जाती है तो टुकड़े कर तड़का लगाकर खा जाते हैं।
 
ठीक वैसे ही जैसे चुनावों के बाद नेता लोग तड़का लगाकर वादों को खा जाते हैं! हास्यास्पद बात तो यह है कि सत्ता की चाशनी में आकंठ डूबे मौसम विज्ञानी चुनावों के समय झंडा बदलकर लोक-कल्याण के लिए इतने उत्साही होते हैं कि पुराने झंडों की चड्डी बना लेते हैं! अगर उन्हें वस्त्रभेदन चश्मे से देखा जाए तो एक के ऊपर एक कई रंगबिरंगी  चड्डियां मिलेगी। हालांकि कभी कभी जनता भी ऐसे महानुभावों का कल्याण कर ही देती है। 
 
हां, तो मैं गांव में था। कभी-कभी उपस्थिति दर्ज करवानी जरूरी  होती है। गांव भी शहर सा हो गया है। बड़े-बड़े कंगूरे उग आये हैं। लोग शहरों से पैसा बचाकर लाये हैं। जो गांव में ही रह गये हैं उन्हें चिंता की कोई वजह दिखाई नहीं देती। सरकारी योजना से खड़ा शौचालय रास्तों का अतिक्रमण कर रहा है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली का राशन मिल ही रहा है। रिलायंस जियो का मोबाइल सब्सिडी में मिल ही गया है। थोड़े बहुत पैसे मनरेगा में मिल ही जाते हैं। 
 
मेरा  मन किया और मोटरसाइकिल लेकर खेत की तरफ निकल पड़ा। हम अर्धशहरी खेतों को भूलने लगे हैं। जब बरगद के पुराने दरख़्त गिर जाएंगे तब हमें हमारी जड़ों का एहसास होगा। रास्ते में एक तालाब पड़ता है। मैंने मोटरसाइकिल को रोक दिया। वहां का नजारा देखकर मन आनंदित हो गया। तिरपाल की छाया में महिलाएं पसरी हुई थी । दो आदमी अपने फेफड़ों को फूंक रहे थे। एक आदमी तालाब की मेड़ पर पत्थर की सिला पर कनी (राजमिस्त्री का औजार) से बार-बार सीमेंट और बजरी का मसाला फेंक रहा था पर मसाला बार-बार दलबदलुओं की तरह गिर रहा था! मैंने उन भाई साब को राम-राम किया। परिचित थे, उनके ईंट के भट्टों पर ट्रैक्टर से कभी मिट्टी और लकड़ी डालता था। अब तो न लकड़ियां बची हैं न वैसे भट्टे! ईंटें भी फैक्टरियों में बनने लगी हैं और  “सॉफिस्टिकेटेड” होने लगी हैं। मैंने उन्हें कहा- भाई साब थोड़ा सीमेंट तो मिलाइए। आखिर नेताजी का नाम इस पत्थर-पट्टिका के साथ जमींदोज न हो जाए! वे मुस्कराकर बोले- आप कब आये? मैंने कहा-कल। मैं भी मुस्कराकर आगे बढ़ गया। यही विडंबना है कि सब मुस्कराकर आगे बढ़ रहे हैं। करे भी तो क्या करे आम आदमी।
 
रूपनगढ़(अजमेर) में जेटीए और उसकी टीम द्वारा मनरेगा के कार्यों का जायजा लिया तो चार सौ श्रमिक और दस मेट नदारद मिले। जेटीए ने रिपोर्ट उच्चाधिकारियों को भेज दी। इस बात पर सरपंचपति और उसके लोगों ने जेटीए की टीम पर जानलेवा हमला कर एक विकलांग और युवा कर्मचारी को मौत के घाट उतार डाला। यह ” लिंचिंग” नहीं है। तथाकथित नेताओं और बुद्धिजीवियों का रोना भी नहीं है क्योंकि यहां न तो वोट है न नजदीक चुनाव। जिस प्रकार नाबालिगों के द्वारा वाहन चलाते समय हादसा होने पर अभिभावकों के लिए सजा का प्रावधान है उसी प्रकार ऐसे सरपंचपतिओं के लिए भी कल्याण-कार्यक्रम होना चाहिए।
 
मैं अरावली की तलहटी में बसे खेत में पहुंच गया था। बचपन में अरावली की पहाड़ियों पर खूब चढ़ते थे। हालांकि उस समय पहाड़ियों पर सघन वन था जिससे डर भी लगता था पर चरवाहे और लकड़ी बेचकर गुजारा करने वाले आदिवासी मिल जाते थे।
 
अब तो “रिज़र्व फॉरेस्ट” बन गया है। तारबंदी लग गई है। सरकार तेंदुए बचाएगी। तेंदुए पहाड़ियों में बस रहे भील-गरासियों की भेड़-बकरियां खाएंगे और वे आदिवासी पढ़ लिखकर सरकारी नौकर बनेंगे! खेत में खड़ी फसलों को निहारा।
 
वहां मौजूद हाळी ने चाय पिलाई। मैंने भी कुछ फसलों की जात और उनका धर्म पता किया। फिर पास ही रह रहे भीलों की बस्ती में चला गया। मन में सोचा कि अब वे “आदमी” बन गए होंगे!  बचपन में उनके वहां खूब आना जाना होता था। तब कसनो “बा” जीवित थे। वहां जाकर देखा कि कसनो “बा” के परिवार की हालत पहले से भी ज्यादा त्रासद है। उनके हिस्से का आरक्षण कोई और खाकर अपना कल्याण कर गया।  “परतो” भाई की पत्नी सूखे कुएं के पास बैठी थी। तीन से आठ साल तक के तीन बच्चे खेल रहे थे। उन बच्चों को देखकर लग रहा था कि चूल्हे पर से उतारते वक्त माटी की हांडी टूट गई है! मैंने कहा- भाभी मूझे पहचाना क्या?
 
उसने देसी भाषा में कहा-नहीं। मैंने मेरा परिचय दिया। उसकी आँखों से अतीत गिरकर उबड़-खाबड़ धरती में फैलने लगा। एक दुर्घटना ने बहुत कुछ लील लिया था। “परतो” भाई  कहीं बाहर गया हुआ था। मैंने भाभी से उन बच्चों के बारे में जानना चाहा। तीन साल का उनका पोता था। बाकी दो बच्चे किसी पड़ौसी के थे।
उनकी मां मर गई थी। बाप मजदूरी पर जाता है तो यहां छोड़ जाता है। रात को आता है तो यहां से ले जाता है। ऐसा लगा कि कल्याणकारी राज्य ने एक छुरे का रूप ले लिया है और धीरे-धीरे मेरे कलेजे को एकबार काटता है फिर किसी सब्सिडी की मिर्च लगाता है, फिर काटता है फिर किसी फ्री योजना का नमक लगाता है। मैंने सौ का नोट निकाला और उस बिन मां की बेटी की तरफ बढ़ाया। मैं जानता था कि वह उस पैसे से क्या करेगी? जहां कोई दूकान भी नहीं थी कि वह कुरकुरे का स्वाद चख ले। उसे तो रोटी का स्वाद भी नामालूम था। पता नहीं क्यों सौ रुपये देने चाहे जबकि मैं उस नोट से दोषमुक्त नहीं हो सकता था। मेरा दोष बहुत बड़ा है। हर सभ्य आदमी दोषी है। सिस्टम की जड़ों में मठ्ठा डालने वाला हर आदमी दोषी है। उस भाभी ने कहा कि इतने पैसे! इसको मत दीजिए। इसका बाप ले लेगा और सरकारी आबकारी दूकान पर खर्च कर सरकार के हाथ मजबूत करेगा।
 
मैं खेत से अपने सीने पर अरावली पर्वतमाला का पूरा बोझ लादे वापिस घर की तरफ चल दिया। रास्ते में वही तालाब था। महिलाएं अब भी पसरी हुई थी। कुछेक करवट लेटी हुई “एंड्रॉयड फोन” में व्यस्त थी। शायद सस्ते डेटा और महंगे रसोई गैस  का आनंद ले रही थी। मेरा मन क्या कि मेट को आवाज दूँ। पर डर लगा कहीं कोई आगे से घुमाकर पीठ पीछे चाकू न घोंप दे।  फिर सारा समाज हत्यारे के पक्ष में लामबंद हो जाए!  महंगे वकील यह साबित कर दे कि मैं जानबूझकर कर पीठ के बल चाकू पर गिरा था। जज महोदय भी तमाम गवाहों के बयानात उस निष्कर्ष पर पहुंच जाए! जज साब उस निष्कर्ष पर न पहुंचे तो हमारी पुलिस भी है। कुछ पुलिसवाले तो वैसे ही मुस्तैद और न्यायप्रिय  है। वे तो अपनी कस्टडी में ही न्याय दे देते हैं चाहे अपराध किया भी न हो बस केवल शक हो! या इतना प्रताड़ित कर देते हैं  कि बाद में सल्फास की गोलियां खाकर मरना पड़े! मैं मन में ही मुस्कराता हुआ घर की तरफ बढ़ गया। ट्रैक्टर के रास्ते जगह-जगह पगडंडियों में तब्दील  हो गए हैं।
 
घर पहुंच गया था। शाम के वक्त पुराने मंदिर में जाने का मन था पर पता चला कि गांव का सार्वजनिक मंदिर अब एक समाज विशेष का हो गया है।    पंचायत से तहसील उनकी है, पुलिस से वकील उनके हैं। वे कल्याण में लगे हुए हैं।
 
आइए आप और हम भी इस कल्याणकारी देश का कल्याण करे जैसे सरकारी प्राथमिक पाठशालाओं में माड़साब करते है या फ्री की सुविधाएं बांटकर कल्याणकारी सरकारें कर रही हैं।  कानों में गाने का शोर सुनाई दे रहा है- ” गांव के सरपंच है मेरे मामाजी..।”
 
लेखक – आनंद सिंह चौहान , बीकानेर 
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