Tuesday 7th of May 2024 07:20:43 AM

Breaking News
  • राजस्थान के स्कूलो में मोबाइल होगा बैन , मंत्री बोले फोन एक बीमारी टीचर न जाने क्या -क्या देखते हैं |
  • स्वामी प्रसाद मौर्य bsp से लड़ेंगे चुनाव |
  • समाजवादी पार्टी ने नरेश उत्तम पटेल को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाकर श्याम लाल पाल नया प्रदेश अध्यक्ष  बनाया |
Facebook Comments
By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 4 Mar 2022 7:30 PM |   761 views

शिक्षा-संस्कारों की

यह सच है कि लार्ड मैकाले की शिक्षा व्यवस्था ने भारतीय नौजवानों को गुरुकुल पद्धति और संस्कृति से एक हद तक दूर किया। सबको शिक्षा सुलभ कर आधुनिक ज्ञान विज्ञान से जोड़ा जरूर लेकिन बड़ी कीमत पर।
 
परंतु आज क्या हो रहा है? राजनीतिक स्वार्थ में उस से भी अधिक खतरनाक खेल चल रहा है। जिस जातीय विभाजन के चलते भारत 13 सौ वर्षो से लगातार कमजोर हुआ, सिकुड़ता गया, बाहरी शक्तियों के आगे झुकने को बाध्य हुआ | उसी गलती को, उसी जातीय विभाजन को आज अक्षुण्ण बनाने का उपाय चल रहा है। जिन दीन दयाल उपाध्याय ने जाति को हिंदुत्व के अनिवार्य अंग के रूप में प्रचारित किया उन्हें खूब महिमामंडित कर उनकी जीवनी अनिवार्य रूप से विद्यालयों में पढ़ा कर छात्रों में प्रकारांतर से जातीय संस्कार डाले जा रहे हैं। बाल गंगाधर तिलक का नीची जातियों के प्रति जो रवैया था उससे हम लोग अपरिचित नहीं रहे। लेकिन उन्हें भी आज की व्यवस्था नायक के रूप में प्रचारित करती है। परोक्ष रूप से इन लोगों ने ऊंची जातियों के वर्चस्व और शोषणकारी मनोवृत्ति को जीवन की गुणवत्ता और उन्नति के पथ के रूप में देखा है। क्या यह प्रवृत्ति देश और समाज को और अधिक कमजोर करने का उपाय नहीं है? 
 
महात्मा गांधी ने तो वर्णाश्रम व्यवस्था को अधिक महत्व दिया। पंडित दीनदयाल उपाध्याय भी दबे स्वर में वर्णाश्रम व्यवस्था को स्वीकार करते हैं परंतु वे आगे क्या कहते हैं: “अपने यहाँ भी जातियां बनीं किन्तु एक जाति व दूसरी जाति में संघर्ष है, उनका यह भूलभूत विचार हमने नहीं माना। हमारे वर्णों की कल्पना भी विराटपुरुष के चारों अंगों से की है ।” (एकात्म मानववाद, पृ0 49)
 
यह तो ऐसी ही मानसिकता है कि जाति रहे तो ठीक है परन्तु जातीय संघर्ष नहीं होना चाहिए। इन्होंने तो वर्ण और जाति को समानार्थी ही बना दिया।
लेकिन जाति रहेगी तो जातीय वर्चस्व भी आएगा, जातिवाद भी आएगा  और जातीय संघर्ष भी देर सवेर होना ही है।
 
इतना ही नहीं, अन्याय के विरुद्ध परिवर्तन एवं क्रांति का  विरोध, सहकारिता को अव्यवहारिक बताकर परिवार व्यवसाय पर बल–यह सब क्या है! अच्छे उदात्त विचारों की आड़ में इस तरह की बातें दूध में जहर का काम करती हैं।।  सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे कतिपय नेताओं के इस आह्वान से कि हिंदुओं को जाति छोड़नी ही होगी क्या इस जहर को प्रभावहीन कर पाना सम्भव है? कदाचित नहीं। 
 
निम्न जातियों और महिलाओं पर अपना बल दिखाओ और बाहरी शक्तियों के आगे झुक जाओ और उनसे समझौता कर लो, यही तो मानसिकता रही है पूर्व के अवसरवादी व अभिजात्यवादी सत्ताधारियों व लोभी सामंतों की जिसका पोषण तमाम बहानों से आज किया जा रहा है। 
 
अब कठोर कानूनी प्रक्रिया द्वारा ऐसी व्यवस्था कायम करनी पड़ेगी कि लोग याद करने से परहेज करें कि वह मुसलमान हैं कि ईसाई, हिंदू हैं या सिख, बौद्ध हैं  या जैन और वह भूल जाएं कि वह सवर्ण हैं कि अवर्ण, अगड़े हैं कि पिछड़े हैं। पूरी दुनिया को इस्लाम या ईसाई या कुछ अन्य बनाने की मनोवृत्ति को धूल धूसरित कर स्थानीय समाजों में मिला देना होगा। तभी यह देश आज के परिवेश में मजबूती के साथ दुनिया के सामने और साथ खड़ा हो सकेगा तथा और कुशलता और आतंकवाद से निजात पाने में दुनिया का सफल नेतृत्व कर सकेगा।
 
प्रोफेसर आर पी सिंह,
दी द उ गोरखपुर विश्वविद्यालय
Facebook Comments