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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 31 Dec 2021 3:50 PM |   1010 views

हरित क्रांति- एक अधूरा सच

उत्पादन की अंधी दौड़ के लिए “टिकाऊ कृषि” शब्द को दशकों के विशेषज्ञों द्वारा पूरी तरह से धुंधलाया गया था। विश्व युद्ध के गैर-उपयोग किए गए बमों का उपयोग, कैंसर उत्पन्न करने वाली कोशिकाओं की  प्रत्यक्ष प्रत्यर्पण के लिए नए रसायनों का आविष्कार करने हेतू किया गया, जिसका रास्ता भारतीय कृषि में खाद, बीज, रासायनिक जहरों इत्यादिसे होता हुआ बढ़ता गया। इस प्रकार कई नई बीमारियों के साथ-साथ वर्तमान में खराब मिट्टी की स्वास्थ्य स्थितियों के लिए यह जिम्मेदार बना।
 
सायप्रस रोटंड्स (मोथा का वैज्ञानिक नाम) , अर्ज़िमोन मेक्सिकाना (सत्यानाशी का वैज्ञानिक नाम) , फ़ेलेरिस माइनर (गेहुंसा का वैज्ञानिक नाम), पार्थेनियम ( गाजरघास का वैज्ञानिक नाम) जैसे बहुत सारे रोपित किए गए विदेशी खरपतवार, उच्च उपज देने वाली किस्मों के बहुत सारे बीज के बीच भेजे गये, परिणामस्वरूप मोनसेंटो जैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के राउंडअप जैसे नई खरपतवारनाशी उत्पादों की आवश्यकता पैदा हुई। मोनसेंटो और माहीको के एक संयुक्त उद्यम ने बीटी कपास लॉन्च किया और अन्य लागत प्रभावी बनाने हेतू लिये गये ऋण के कारण भारतीय कृषि में बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या के मामले का सामना करना पड़ा। शाकनाशी, कीटनाशक, हाइब्रिड, टर्मिनेटर जीन और बहुत से अन्य तत्व हमारे भारतीय देसी बीजों और पशुधन के नस्लों  में भी गिरावट के मुख्य कारण हैं। किसी संगोष्ठी/कार्यशाला में जलवायु नियंत्रण पर व्याख्यान वातानुकूलित चेम्बरों में ही प्रस्तुत किया जा रहा है और किसानों की वर्तमान स्थिति अभी भी अंतिम स्तर पर है।
 
हाँ, बिल्कुल हमें यह याद रखना होगा कि बिना किसी योजना के काम करने से 100% असफलता मिलेगी। उत्पादन न करने के साधनों में विफलता का मूल्यांकन समग्र साधनों पर किया जाना चाहिए। कोई भी नीति किसी एक व्यक्ति द्वारा नहीं बनाई जाती है, बल्कि उस युग की समिति को भी यह पता लगाना चाहिए कि वास्तव में क्या होने जा रहा है। बेशक हमने पूर्व हरित क्रांति युग के बारे में अनुभव नहीं किया था और यहां तक ​​कि पारिस्थितिक प्रभाव, स्थानीय नस्लों के संरक्षण, कम लागत वाली देसी प्रौद्योगिकियों के बारे में इसके वास्तविक गंतव्य के प्रति अथवा इसके वास्तविक प्रभाव के बारे में कल्पना भी नहीं की थी। हम अधिक उत्पादन के लिए दौड़े, चाहे वह कैसे भी आ रहा हो। हां, मुझे यकीन है कि अगर मृदा के जैविक कार्बन को बौने जीन आवक, अन्य आनुवंशिक संशोधन इंजीनियरिंग, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, अन्य रसायनों के असुरक्षित और निरंतर उपयोग से नहीं बनाए रखा जाएगा, तो उत्पादन कम होता जायेगा, जिसमे सुरक्षित खाद्यान का नामोनिशान नही बचा है। बिहार राज्य के नालन्दा जिले में साधारण किसान ने आलू और धान (चावल) के उत्पादन के मामले में चीन का विश्व रिकॉर्ड जैविक खेती करते हुये तोड़ा है। अधिकांश तकनीकों को भुला दिया गया था और अब यह फिर से अपनाकर महसूस किया जा रहा है कि हमने उत्पादन के लिए जो कुछ भी किया है वह केवल गैर-टिकाऊ तरीके से है। जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी (जीईएसी) भी अब बीटी पेटेंट के अंतिम मामलों की तरह वर्षों की अंतिम खोज का समर्थन कर रही है और आज इसी आधार पर वर्षों से भारतीय कृषि और उपभोक्ताओं पर नजर टिकाये पड़ी बीटी बैंगन जैसी किस्मों की आवक रुकी पड़ी है।
 
बेशक, इसे दक्षिण अमेरिका और पश्चिमी देशों से प्रत्यारोपित किया गया था, लेकिन यह उस समय की जरूरत थी। हमने हरित क्रांति के पीछे लोगों की प्रशंसा की, हमने हरित क्रांति की सफलता का जश्न मनाया, हमने इसके फल का आनंद लिया। गलती यह थी कि इसके आवेदन पर कोई नियंत्रण नहीं था। किसी भी चीज की अधिकता जहर है। हम अभी इसके दुष्परिणाम से उपचार की योजना बना सकते हैं। हमें सोचना होगा कि मिट्टी की सेहत के लिए क्या किया जा सकता है। 
समय की आवश्यकता है कि हम भारत के विभिन्न हिस्सों में अपनी भूमि को कैसे संरक्षित कर सकते हैं वैसे प्रयास अपनायें।
 
देशी किस्मो का संरक्षण जैसे कि आईसीएआर के एनबीपीजीआर का प्रतिष्ठित संस्थान, पीपीवीएफआरए भी एक अन्य संस्था और अन्य कई बीज बैंक, जैविक खेती अभियान और टिकाऊ खेती प्रयास जो किसानों से स्थानीय किस्मों के संग्रह पंजीकरण और लोकप्रिय बनाने सँग भारतीय खेती की अन्तरात्मा बचाने का पुरजोर प्रयास कर रही है, को प्रोत्साहित और लोकप्रिय बनाया जाये।
 
अगले स्वस्थ भारत के निर्माण के लिये नीति निर्धारकों और विशेषकर कृषि वैज्ञानिक समुदाय को किसानों के साथ मिलकर एक नया योगदान देना होगा। 
 
डॉ. शुभम कुमार कुलश्रेष्ठ, विभागाध्यक्ष-उद्यान विज्ञान विभाग
रविन्द्र नाथ टैगोर विश्वविद्यालय,
रायसेन, मध्यप्रदेश
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