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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 24 Nov 2020 6:23 PM |   679 views

हाय रे मोबाइल

मैं पत्र लिख रहा था। मेरे एक मित्र आए और कहने लगे “ऐ मेरे अठारहवीं शताब्दी के मित्र,कब तक बैकवर्ड रहोगे। आजकल कोई पत्र लिख कर कागज़,स्याही,समय और पैसे की बर्बादी करता है करता? 
       “तो क्या करें ?”
         “मोबाइल खरीदो और वह भी स्मार्ट ।”
          “तो उससे क्या लाभ होगा?”
          “तुम्हारी ऐक्टिविटी बढ़ जाएगी, पूरी दुनिया तुम्हारी मुट्ठी में आ जाएगी।
 
इस तरह मुझे समझाते हुए मेरा मित्र मुझे एक दुकान पर ले गया और पहुंचते ही दुकानदार से बोला”एक चलायमान दे दो और वह भी आकर्षक।
 
दुकानदार मेरा मुंह देखने लगा तब मेरे मित्र ने कहा” अरे भाई इनका मतलब है कि मोबाइल दे दो और वह भी स्मार्ट।”मैं भी मन ही मन सोचने लगा कि यह कैसा हिन्दुस्तान है कि कोई हिन्दी नहीं समझता और अंग्रेजी तुरंत। मेरे मित्र मुझसे बीस हजार का आकर्षक चलायमान खरीदवा दिया।दो तीन दिन बाद मैं उस मित्र के घर जाकर कहा”अरे यार इसमें तो कोई आकर्षण नहीं है और यह एकदम चलायमान नहीं है,यह एकदम काला कलूटा स्थिर है।”मित्र ने कहा कि”मैं तो तुम्हारी हिन्दी से परेशान हूं।इस पर फेसबुक शुरू करो तब न तुम मोबाइल हो जाओगे।
 
मैंने एक पुस्तक अपने चेहरे से सटा कर कहा कि”लो चेहरा पुस्तक ये रहा,अब क्या करें?” मेरा मित्र झल्लाते हुए बोला कि”अगर तुम इस तरह हिंदी की टांग तोड़ना नहीं छोड़ोगे तो मैं तुम्हरा मोबाइल ही तोड़ कर फेंक दूंगा”इतना सुनते ही मुझे इसकी कीमत बीस हजार की याद आ गई। इस लिए हिंदी छोड़ कर बोला कि”तो ठीक है अंग्रेजी में ही बताओ कि मेरा फेस और यह बुक मोबाइल के अंदर कैसे जाएगा ताकि फेसबुक बन सके?”
 
मुझे चुप कराते हुए मित्र ने मुझे फेसबुक,ह्वाट्स ऐप,शेयर चैट आदि को समझाया और क‌ई दिनों तक आ आ कर मुझसे अभ्यास भी कराया और मैं धीरे धीरे अभ्यस्त हो गया।
 
मुझसे दोस्ती करने में जहां मेरे पड़ोसी भी कतराते थे वहीं फेसबुक पर हजारों हजार दोस्त हो ग‌ए कुछ देशी कुछ बिदेशी। उसमें भी खास बात यह कि पुरुष कम और महिलाए ज्यादा दोस्त हैं। मुझे भी आनंद आने लगा। फेसबुक पर चाहे खुशी का समाचार हो चाहे दुःख का समाचार हो सबको अंगूठा छूकर लाइक यानी केवल पसंद करना है। यहां तक कि किसी के घर कोई मर गया और वह लाश का चित्र फेसबुक पर डाल दिया तो उसे भी लोग लाइक कर रहे हैं।अब संवेदना व्यक्त करने किसी के घर नहीं जाना है।
 
मैं दिन भर उसी में उलझा रहता हूं।न कहीं जाने की फुर्सत न किसी को बुलाने की इच्छा।चिट्ठी पत्री भेजने के लिए डाकघर भी नहीं जाना है।बस मोबाइल से सन्देश भेज देना है।इस तरह जो थोड़ा बहुत चलना फिरना था वो सब बन्द हो गया है।
 
इस यंत्र का नाम है मोबाइल अर्थात चलायमान लेकिन यह तो खुद भी स्थिर है और मुझे भी स्थिर कर दिया। मोबाइल का मतलब डायनेमिक होना चाहिए लेकिन यह तो पूर्णरूप से मुझे स्टेटिक बना दिया है।यह तो अपने नाम का एकदम विपरीत है।यही सोचते हुए एक दिन मेरे मुंह से अचानक निकल गया कि”हाय रे मोबाइल।
   
  ( डॉ भोला प्रसाद , आग्नेय बलिया ) 
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