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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 14 Mar 2025 2:19 PM |   455 views

रंगरेज़ ज़िंदगी

कभी कोई गुलाल-सा उड़ता
हवा में घुलकर गुम हो जाता
कोई अबीर-सा झरता हथेलियों पर
मन की रेखाओं में भर जाता।
 
कुछ लोग
पानी के रंगों जैसे होते हैं
जिनसे भी मिलो
उनके ही रंग में बहते जाते हैं
कुछ लोग
सूखी धरती के कच्चे रंग होते हैं
पहली ही बौछार में घुल जाते हैं।
 
रंग, जो बस छूकर निकलते हैं
और रंग, जो भीतर उतरते हैं
कोई मन की दीवारों पर
चटक लाल, गहरा नीला, उजास पीला
छाप कर चला जाता है
तो कोई फीकी उदासी का
धूसर धब्बा छोड़ जाता है।
 
कौन अपना? कौन पराया?
ये रंग ही तो बताते हैं—
कोई होली में साथ खेलता है
तो कोई होली के बाद याद आता है।
 
कभी धूप में जलते सपनों का
केसरिया उड़ जाता है
तो कभी सावन की हल्की फुहार में
भीतर कोई हरियाली उग आती है।
 
ज़िंदगी की पिचकारी से
हर दिन नए रंग फूटते हैं
कोई नीला—गहरा ठहराव लिए
कोई गुलाबी—सहज मुस्कान भरे।
 
कुछ लोग बस चटक रंगों की तरह होते हैं
दिखते हैं दूर से, मगर छूते नहीं
कुछ लोग बेसुरे रंग होते हैं
बिना किसी मेल के बिखर जाते हैं।
 
फिर भी हर कोई
अपने हिस्से का कोई न कोई रंग छोड़ ही जाता है।
कभी आँचल पर, कभी आँखों में
कभी बस यादों की कोरी दीवारों पर।
 
होली हो या न हो
जिंदगी हर दिन रँगती है हमें
बस फर्क इतना है कि
किसी का रंग धुल जाता है
किसी का रंग रह जाता है।
 
                                                                  — परिचय दास 
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