दीपावली ज्योति के बिंबों की लड़ी है

खलिहान में धान की फसल कटकर आ जाती है। सुनहरा धान, उससे चावल निकलता है। भात तो जैसे भारत की प्राणरेखा है। धान का कुठला गाय के गोबर मिली मिट्टी से बाहर से लीप-पोतकर रख लिया जाता है। अब तो स्टील व लोहे के कुठले भी आने लगे हैं। गाँव में चहल-पहल रहती है इन दिनों। मेरे गाँव में तो इन दिनों नौटंकी की भी परंपरा है। गाँव के लड़के इसमें भाग लेते रहे हैं। अब कलाओं को समकालीन दृष्टि चाहिए। दीपावली को भी समकालीन दृष्टि चाहिए। अभी हुआ क्या है कि अब नई समझ के मुताबिक कुछ भी शाश्वत, निश्चित, असंदिग्ध या सार्वभौमिक नहीं रह गया है। दीपावली रात्रि की इंद्रधनुषी आभा है, प्रसन्नता की जिंदादिली। पेड़, नदी, पहाड़, धान के खेत, चौक-चौबारे में रोशनी की रंगत! रोशनी दीपावली में जैसे लहर की आवृत्ति लाती है। रोशनी की आंतरिकता और तरलता ही दीपावली है।
आज जबकि संबंध टूट रहे हैं, रिश्तों का व्यवसायीकरण हो रहा है, नैतिक द्विविधा और दोहरेपन से लोग ग्रस्त हैं, मनुष्य की विषमावस्था के इस दौर में अंतस् की रोशनी का महत्त्व बढ़ जाता है। क्योंकि इसी दुनिया में उदारता की सांत्वना, फूलों की सुगंध, प्रेम की अगाधता, सुंदर व्यवहार की जादुई भंगिमा और आदिम स्वभाव की सहजता चाहिए। बिना दीपावली भारतीय मन की अग्निशिखा कैसे जले? निपट एकाकीपन के वैश्विक वातावरण में एक भरोसा चाहिए, अंधकार के कोहरे से अलग एक रंगावली चाहिए।
जयप्रकाश नारायण की तरह अँधेरे के बीच भी समय को मोड़कर संरचना को नया आकार देने की सच्ची प्रामाणिकता चाहिए। हमारे समय का नायक उजाले के स्पंदन से संपृक्त होगा। रात्रि की दरी के नीचे उजाले की अग्निमयी भाषा हो, यही दीपावली का अभीष्ट है। आत्मग्लानि और क्षोभ से भरे विश्व के आकाश में रोशनी की उषा की पवित्र आभा दिखनी चाहिए। रोशनी जैसे कोई लता हो, जिसके फैलने पर हमारी आत्मा की सुगंध फैल जाती है।
दीपावली की रोशनी में हमें देखना होगा कि चीजें बदल रही हैं। इतिहास क्रमिक के बजाय अवरुद्ध, संयुक्त के बजाय विभाजित, एक के बजाय अनेक और केंद्रित के बजाय विकेंद्रित हुआ है। अब इतिहास में ‘अन्य’ को महत्त्व दिए बिना अँधेरा और घना होगा। यहाँ ‘अन्य’ का अर्थ पश्चिम नहीं, बल्कि संस्कृति के डिस्कोर्स से अलग-थलग व्यक्ति है। संदर्भ, प्रसंग और व्याख्या तीनों आयाम से दीपावली समाहित है। उपेक्षित केंद्रों का संदर्भ आवश्यक है। उन्हीं के प्रसंगों से असली दीपावली आती है।
सांस्कृतिक विकास को अकेले सत्ता के अधीन रहने देना जन सामान्य की उपेक्षा है। हमें ऐसी स्थिति लानी है कि वास्तविक विकास की अवधारणा, उसका क्रियान्वयन व अग्रगामिता में अंतिम जन का हाथ हो। इससे पूरा पाठ व उपपाठ बदलना है। सृजनात्मक उत्स, कल्पना-शक्ति, मूल्य व कलात्मक तत्त्वों को दीपावली का आधार बनाना चाहिए।
केवल विचारधारात्मकता को रचना के मूल्यांकन का तर्क बना लेना वैसा ही है, जैसे दीपावली को वर्चस्व की दृष्टि से देखना। किसी एक का वर्चस्व और दुनिया को उसी के अनुसार सोचना कला और विचार पद्धति की परस्पर अंत:क्रिया का केनन बदलना है। दीपावली से सामाजिक प्रक्रिया, लोक प्रचलित संरचना, कार्तिक के उत्सवों के अभिप्राय और अर्थवत्ता का पता चलता है। दीपावली के रूप और आयाम बदलते गए हैं।
भारतीय पर्व, लोक श्रुतियाँ व विश्वास कोई जड़ व्यवस्था नहीं। उनमें समय सापेक्ष परिवर्तन व गतिशीलता आती रहती है। अँधेरा हमारे समय की दुविधा की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है कि आप अपने बारे में स्वयं सोचें। कई बार हम दूसरों के सोचे हुए को अपना रास्ता बनाते हैं। मार्ग वही उपयुक्त है, जिसमें आपकी अपनी प्रज्ञा और सामाजिक यथार्थ जुड़ा हो। मिट्टी के दीये वास्तव में ‘मिट्टी के माधो’ नहीं। उनकी ज्योति आपकी अंत:चेतना का ही प्रकारांतर बिंब है। उद्यत समय में धीरोदात्त की तरह है दीपावली का प्रकाश।
आजकल अपने बारे में बखान करना, अतिरेकपूर्वक हठधर्मिता से बात मनवाने का चलन है। इससे आदमी के संकोच और शील के गुरुत्वाकर्षण को नकारा जा रहा है। सारे प्रश्नों के उत्तर नहीं आ सकते। अनुत्तरित प्रश्न हमें अपनी आत्मा के उजाले में ढूँढ़ने होंगे। अंधकार और प्रकाश के युग्म का रूपक हमें बताता है कि दुनिया को यंत्र की तरह नहीं, विचार की तरह समझना पड़ेगा। केवल राजसत्ता किसी व्यवस्था को नहीं सँभाल सकती। अब उसे समूहों, उपसमूहों तक बहुवचनात्मक तरीके से ले जाना होगा। अब एक नहीं अनेक को, केंद्र नहीं परिधि को महत्त्व देना होगा। दीपावली का उजाला हमारे समकाल में परंपरा के साथ परंपरा का विपर्यय भी करने में समर्थ है।
अब जबकि हम अक्टूबर में प्रवेश कर रहे हैं, शरद ऋतु आ गई है। दिन लंबे समय तक अंधेरे होते जा रहे हैं, इसलिए हम अपने प्रकाश- स्रोत के लिए रोशनी की ओर रुख करेंगे। अंधकार अंधकार को दूर नहीं कर सकता; केवल प्रकाश ही ऐसा कर सकता है। घृणा घृणा को दूर नहीं कर सकती; केवल प्रेम ही ऐसा कर सकता है।
शाप देने से बेहतर है मोमबत्ती जलाना-
हम उस बच्चे को आसानी से माफ कर सकते हैं जो अंधेरे से डरता है; जीवन की असली त्रासदी तब होती है जब लोग प्रकाश से डरते हैं । जीतने से अच्छा है, सच्चा होना। मुझे उस प्रकाश के अनुसार जीना चाहिए जो मेरे पास है।
प्रकाश की कविता हमें उस छोटे से चमकते हुए कण को याद करने के लिए कहती है जो हमारी गहरी ब्रह्मांडीय सांसों में बहता है। प्रकाश की कविता के लिए धैर्य, ध्यान की अवधि, परिवर्तन की सूक्ष्मताओं को उसके चकाचौंध करने वाले ऐंठन से परे संलग्न करने की इच्छा की आवश्यकता होती है ताकि हम इसके शांत संयोजनों को देख सकें।
अंधकार की कितनी ज़रूरत है-
सिनेमा में जब मुख्य फीचर दिखाया जाने वाला होता है, तो रोशनी कम कर दी जाती है। दूसरी फिल्मों के प्रीव्यू और जिस फिल्म को आप देखने वाले हैं, उसके शुरू होने के बीच के अंतराल में, अंधेरे का एक छोटा सा हिस्सा होता है जिसका आनंद लिया जा सकता है।
प्रकाश और अंधकार न केवल एक छवि के निर्माण और विकास में भूमिका निभाते हैं, जैसा कि मैंने ऊपर उल्लेख किया है, बल्कि छवि को प्रस्तुत करने में भी – खासकर यदि कोई प्रक्षेपण के रूप का उपयोग करता है।
प्रकाश और अंधकार के बारे में लिखते समय मेरे सामने तुरंत यह सवाल आता है कि क्या मुझे वास्तविक प्रकाश और अंधकार( जिस तरह का प्रकाश आप दीपक को जलाकर और बुझाकर बनाते हैं ) या रूपक प्रकाश और अंधकार (जो अधिक आंतरिक, अधिक मानसिक होता है) के बीच अंतर करना चाहिए।
-परिचय दास , नालंदा समविहार विश्वविद्यालय,नालंदा
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