Monday 6th of October 2025 06:48:28 PM

Breaking News
  • बिहार में बजा चुनावी बिगुल ,दो चरणों में होगी वोटिंग ,14 नवम्बर को आयेंगे नतीजे |
  • सनातन का अपमान नहीं सहेंगे कहते हुए वकील ने CJI गवई पर की जूता फेकने की कोशिश ,आरोपी हिरासत में लिया गया |
  • बंगाल में TMC का जंगलराज , बाढ़ पीडितो की मदद कर रहे BJP सांसद पर हमला ,खून से लथपथ |
Facebook Comments
By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 14 Oct 2023 11:47 AM |   1016 views

सिनेमा का समकाल

संचार माध्यमों की एक सशक्त विधा के रूप में सिनेमा का जन्म हुआ जिसने अपनी पहुंच बहुत कम समय में एक बड़ी जनसंख्या से बना ली और उन लोगों से भी संपर्क बना लिया जो पढ़ने- लिखने में सक्षम नहीं थे। फिल्म समाज के साथ इस कदर जुड़ गई है कि जब वह रोता है तो उसके साथ पूरा समाज रोता है और जब वह हँसता है तो पूरा समाज हँसता है। आज सिनेमा मनोरंजन का केवल साधन मात्र न रहकर उससे कई गुना आगे बढ़ गया है वह आज समाज का दर्पण बन हमारे समक्ष उपस्थित है। वह आपकी हमारी जिंदगी को पुनः रचता है, उसका सृजन करता है।
 
सिनेमा साहित्य का ही एक तकनीकी विकसित रूप है इसे एक सशक्त विधा के रूप में नए युग में देखा जाना चाहिए सिनेमा अच्छी कथा की तलाश हेतु साहित्य की तरफ जाता है सिनेमा भी साहित्य की ही भांति अपनी प्राण शक्ति समर करता है जो लोग सिनेमा और साहित्य के बीच कोई भेद नहीं मानते उनके लिए मैतालार्त का जवाब है कि “सिनेमा को साहित्य की क्रमिकता में देखना होगा।”यथार्थ के जीवन और सिनेमा के जीवन में अंतर है सिनेमा में रंजकता भरी जाती है तब जाकर सिनेमा दर्शकों को आनंद देता है|
 
सिनेमा समाज को बदलता नहीं है बल्कि बदलाव हेतु संवेदनशील बनाता है वह कोई उपदेश नहीं देता बस बदलाव हेतु संकेत मात्र दे देता है एक फिल्म आई थी टॉयलेट एक प्रेम कथा इस फिल्म ने दर्शकों को इस कदर झकझोरा कि वे स्वच्छता तथा महिलाओं के सम्मान की रक्षा हेतु शौचालय का निर्माण करें
 
हिंदी सिनेमा का शुरू से प्रयास रहा है कि वह ऐसा मिलोड्रामा पेश करे जो भारत के प्रत्येक क्षेत्र जाति समुदाय और धर्म को मानने वाले लोगों की भावनाओं के अनुरूप हो यानी कि उनके विचारों, संस्कारों और भावनाओं को आघात पहुंचाए बिना दर्शकों का मनोरंजन करें लेकिन सिनेमा के लिए यह भी जरूरी है कि वह समाज में चल रही हलचलों को भी अभिव्यक्ति दे अन्यथा दर्शकों के लिए उनके साथ तादात्म्य करना मुश्किल हो जाएगा।हिंदी फिल्मों की शुरुआत ही सांस्कृतिक मूल्यों के प्रतिपादन से हुई।
 
 उदाहरणस्वरूप सत्य हरिश्चंद्र, शकुंतला, द्रौपदी पृथ्वीराज चौहान आदि। हिंदी सिनेमा में कई बार भारत के विभिन्न राज्यों की संस्कृति की झलकियां भी देखने को मिलती हैं। विमल राय, शक्ति सामंत( अमानुष, आनंद आश्रम) ने बंगाल के ग्रामीण जीवन की झलकियां प्रस्तुत की है, वहीं निर्देशक पी. दत्ता ने ‘ बंटवारा’ में राजस्थानी जीवन को चित्रित किया है। रोहित शेट्टी ने ‘ चेन्नई एक्सप्रेस’ में तमिलनाडु राज्य के प्राकृतिक सौंदर्य को बड़ी सुंदरता से प्रस्तुत किया है।
 
भारतीय संस्कृति की सुंदर झलकियां गांव में ही देखने को मिलती हैं। गांव देश की आत्मा है। अनुभवी फिल्म समीक्षक और सत्यजीत रे पर किताबों की लेखिका शोमा ए चटर्जी का कहना है कि – ‘ पाथेर पांचाली’ ग्रामीण भारत के जीवन की कहीं अधिक यथार्थवादी और फिर भी आश्चर्यजनक रूप से सुंदर प्रस्तुति थी ,जो हमने पहले कभी नहीं देखी थी… इसने न केवल अन्य इंद्रियों को बल्कि दिल को छू लिया।’
 
इसी प्रकार फिल्मों में क्लासिकी को गढ़ने में निर्देशक,फिल्म निर्माता,अभिनेता गुरुदत्त का बड़ा योगदान है।
 
उन्हें कला की अच्छी समझ थी जिसके द्वारा उन्होंने वहीदा रहमान, अभिनेता रहमान, कुमकुम जैसी उत्कृष्ट कलाकारों को ढूंढ निकाला और हिंदी सिनेमा को नया मोड़ तथा नई तमीज दी। उनके फिल्मों की खासियत है कि कम संवाद में भी दर्शकों को मोहित कर देते हैं।
 
फिल्म प्यासा में उन्होंने एक वैश्या को पर्दे पर दिखाया जिसे कला की कदर थी, जिस कला की समझ तथाकथित अभिजात्य समाज को नहीं है। आज के दौर की फिल्मों को व्यवसायिकता से ऊपर उठकर समाज के लिए शुद्ध सांस्कृतिक फिल्मों के भी निर्माण की ओर ध्यान देना चहिए।समाज को फिल्मों द्वारा अच्छा संदेश जाए तभी सिनेमा एक सशक्त माध्यम सिद्ध होगा।
 
– स्निग्धा सिंह
सिनेमा-समीक्षिका व शोधार्थी
नव नालन्दा महाविहार सम विश्वविद्यालय, नालंदा
 
Facebook Comments