भिक्खुनी धम्मदिन्ना
धम्मदिन्ना का जन्म राजगीर (राजगृह) के वैश्य कुल में हुआ था। वह सुंदर,सुशील एवं बुद्धिमान बालिका थी। जब बड़ी हुई उसका विवाह विशाख नाम के श्रेष्ठी के साथ हुआ। पति-पत्नी आनंद के साथ संसारिक जीवन जी रहे थे।
एक दिन विशाख ने तथागत की धम्म वाणी सुनी। भगवान की धम्म वाणी सुनते-सुनते वह ध्यान में खो गया। उसे रूप,शब्द, गंध, रस और स्पर्श से विरक्ति हो गई। वह समझ गया कि जहां ये सब हैं, बस वही तृष्णा है, वहां ही दु:ख है। विशाख गम्भीर ज्ञान दृष्टि लेकर घर लौटा।
प्रतिदिन की तरह उसकी पत्नी धम्मदिन्ना ने हंस कर उसका स्वागत किया। किन्तु विशाख ने अपनी पत्नी के प्रेम भाव पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की और न कुछ बोला। वह गम्भीर होकर बैठा रहा। धम्मदिन्ना ने विशाख का व्यवहार देखकर पुछा-
स्वामी! क्या बात है? क्या मुझ से कोई अपराध हो गया?
विशाख- धम्मदिन्ना, तुमसे कोई भूल नहीं हुई है।
धम्मदिन्ना ने विशाख से पूछा – आप आज क्यों इतने गम्भीर हो गए हो? क्या कोई मुश्किल बात हो गई है?
नहीं ? धम्मदिन्ना, ऐसी कोई बात नहीं है, विशाख ने उत्तर दिया। आज मैंने भगवान बुद्ध का उपदेश सुना, मुझे इन्द्रियों के सुख की निस्सारता समझ में आई। मैं आज से स्त्री शरीर का स्पर्श नही करूँगा और न ही भोजन में स्वाद लोलुपता रखूँगा।
अब यदि तेरी इच्छा हो तो तू इस घर में रह अन्यथा अपने माता-पिता के पास चली जा। मैंने प्रव्रजित होने का संकल्प ले लिया है।
पति के वचन सुनकर धम्मदिन्ना प्रसन्न हुई। उसने पति के निर्णय की प्रशंसा की और वह भी प्रव्रजित होने के लिए तैयार हो गई। तब विशाख ने धम्मदिन्ना को समझाने का प्रयास किया कि प्रव्रजित जीवन कष्टदायक होता है। वहां भोजन आदि सुविधाओं से वंचित रहना पडता है, वह कष्ट सहन नहीं कर पाएगी। धम्मदिन्ना प्रव्रजित जीवन में कष्ट आए तो भी कष्ट सहन कर लेने के लिए तैयार थी। उसने भी प्रव्रजित होने का निश्चय किया।
विशाख और धम्मदिन्ना दोनों वेळुवन की ओर चल पडे।उस समय तथागत राजगृह के वेळुवन में विहार कर रहे थे। दोनों ने तथागत से प्रव्रजित लेने के लिए प्रार्थना की। भगवान ने दोनों को प्रव्रजित किए। अब विशाख और धम्मदिन्ना क्रमशः भिक्खुसंघ और भिक्खुणीसंघ में अलग-अलग रह कर धम्म की शिक्षा ग्रहण करने लगे।
भिक्खुणी धम्मदिन्ना तथागत की धम्म प्रचारक भिक्खुणियों में प्रथम और अग्र मानी जाती है। भिक्खुणी धम्मदिन्ना ने राजा बिम्बिसार की शंकाओं बड़े बुद्धिवादी ढंग से समाधान किया था। जिसकी प्रशंसा स्वयं तथागत ने की थी।
भिक्खुणी धम्मदिन्ना ने एकान्त, निर्जन स्थान में साधना की। उसने वर्ण,जाति और गोत्र के सभी बन्धनों को नकारा। उसने सभी प्रकार की मिथ्या धारणाओं और अन्धश्रद्धाओं का त्याग किया। मनुष्य- मनुष्य के बीच मानवता को स्वीकार किया।
निर्वाण प्राप्ति के मार्ग में अग्रसर होने के लिए जब वह पुरूषार्थ कर रही थी, तब उसने कहा था-
“छन्दजाता अवसायी,
मनसा च फुटो सिया।
कामेसु अप्पटिबद्धचित्तो,
उद्धंसोतोति वुच्चती’ति।।”
– जिसके मन में सर्वोत्तम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इच्छा उत्पन्न हुई है और इस इच्छा ने जिसके पूरे चित्त को भर दिया है, जिसका चित्त कभी काम-भोगों में बंधा नहीं, वह उर्ध्व स्त्रोता कहलाती है।
– डॉ नन्द रतन थेरो ,कुशीनगर
Facebook Comments