शेक्सपियर ऑफ भोजपुरी – भिखारी ठाकुर
भिखारी ठाकुर, एक ऐसा व्यक्ति जो गांव के सामान्य परिवार में जन्म लिया।नौ साल की उम्र में स्कूल पढ़ने गया। एक साल बाद भी अक्षर ज्ञान हासिल नहीं कर सका। पुनः घर गृहस्थी के काम में लग गया। रोजी-रोटी के तलाश में बाहर जाता है। वहां भी मन नहीं लगता है और घर चला आता है।नाच मंडली का गठन करता है। क्यों कि नाच और रामलीला देखने का शौक था। कौन जानता था कि यह व्यक्ति बहुआयामी प्रतिभा का धनी है? अपनी प्रतिभा से भोजपुरी माटी का सपूत अपनी मातृभाषा भोजपुरी को इस तरह सवारा कि लोग इसे भोजपुरी का शेक्सपीयर कहने लगे।
इस समर्थ साहित्य कार का जन्म 18 दिसम्बर 1887 को छपरा जिला दियारा के एक गांव कुतुब पुर में हुआ था। साहित्यकार के भीतर में स्थित सृजनात्मक शक्ति लोक से जुड़कर जब साहित्य सृजन करती हैं तो वह साहित्य अमरता को प्राप्त करता है। और साहित्य कार अपनी अमिट छाप आने वाली पीढ़ी पर छोड़ देता है।
प्रतिभा ये किसी नाम,पद,समाज की मुहताज नहीं होती है। अपनी प्रतिभा की सुगंध से धरती को सुगंधित कर देती है।उस महान व्यक्ति का नाम भिखारी ठाकुर था। भिखारी ठाकुर अपनी साहित्य सृजन का माध्यम मातृभाषा भोजपुरी को ही बनाया। और सार्थक अमर साहित्य का सृजन किया।ये लोक कलाकार, रंग कर्मी,लोक जागरण के संदेश वाहक थे। समाज की गहरी समझ रखने वाला इनका हृदय देवत्व का महासागर था।
इनके साहित्य में सामाजिक बुराईयों के प्रति लोगों को सजग करने का स्पष्ट संदेश था। स्वतंत्रता के लिए जनजागरण का अभियान था। नाटक, लोकगीत,भजन कीर्तन के कुशल और सक्षम साधक थे। प्रमुख नाटकों में विदेशिया, बेटी बेचवा,गबंरघीचोर ने तो तहलका मचा दिया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि नाटक लिखते थे। निर्देशन करते थे, और स्वयं अभिनय भी करते थे।ऐ सी प्रतिभा बिरले ही मिलेगी।
बेटी बेचवा नाटक का एक गीत है जि सको सुनते ही लोग भावुक हो जाते हैं।
गीत है-रूपया गिनाई लिहल,
पगहा धराई दिहल,
शेरिया के छेरिया,
बनवल हों बाबू जी
भिखारी ठाकुर के समझ और सोच के आगे समाज नतमस्तक है। अंग्रेजों ने इनको रायबहादुर और भारत सरकार ने पद्म श्री सम्मान से नवाजा |
आज भोजपुरी की अस्मिता पर उठ रहे सवाल, भोजपुरी भाषा के प्रति उपेक्षा, साहित्य कारों की निर्दयता, गीत कारों की अश्लील लता पर भिखारी ठाकुर की आत्मा स्वर्ग में भी पुकार फारकर रो रही होगी।
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