“हिंदी और आधुनिक सांस्कृतिक चुनौती विषय पर ब्याखान आयोजित
कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग और मालवीय मिशन शिक्षक प्रशिक्षण केंद्र के संयुक्त तत्वावधान में चल रहे पुनश्चर्या कार्यक्रम के अंतर्गत प्रोफेसर रवींद्र नाथ श्रीवास्तव “परिचय दास” का आभासी व्याख्यान आयोजित किया गया। कार्यक्रम में विभागाध्यक्ष प्रो. राजश्री शुक्ल और डॉ. रामप्रवेश रजक उपस्थित थे। आरम्भ में प्रो. राजश्री शुक्ल ने प्रो. परिचय दास व विषय का परिचय दिया।परिचय दास के व्याख्यान का विषय था — “हिंदी और आधुनिक सांस्कृतिक चुनौती”। अपनी सहज, सजीव और ललित हिंदी शैली में उन्होंने कहा कि हिंदी केवल भाषा नहीं बल्कि भारत की आत्मा की आवाज़ है। इसमें लोकजीवन, आस्था, संघर्ष और स्मृति के स्वर बसते हैं किंतु आज का समय इस आत्मा को बाज़ार, तकनीक और उपभोक्तावाद के बीच जकड़ रहा है।
उन्होंने कहा कि हिंदी के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती है — अंग्रेज़ी का दबाव और हिंदी का स्वयं ‘हिंग्लिश’ रूप धारण कर लेना। शहरों की हिंदी कृत्रिम हो चुकी है और गाँव की हिंदी हाशिए पर चली गई है। डिजिटल युग में मंच तो बढ़े हैं किंतु गहराई घट गई है। शब्द अब भाव के नहीं, बल्कि ‘वायरल’ होने के साधन बन गए हैं।
परिचय दास ने कहा कि हिंदी की असली शक्ति उसके लोक में है — लोकगीतों, कहावतों, कथाओं और उपमाओं में। तुलसीदास से लेकर प्रेमचंद और निराला तक सबने लोक और आधुनिकता के बीच एक सेतु बनाया। आज फिर से उसी सेतु के निर्माण की आवश्यकता है। जब तक हिंदी शिक्षा, विज्ञान, तकनीक और राजनीति की भाषा नहीं बनती, तब तक आधुनिकता से उसका सच्चा संवाद संभव नहीं।
उन्होंने यह भी कहा कि हिंदी का शिक्षण अब परीक्षा का विषय बन गया है, जीवन का माध्यम नहीं। विद्यार्थियों का उससे भावनात्मक जुड़ाव घट रहा है। भाषा को अनुभव से जोड़ना आवश्यक है ताकि संस्कृति पुनर्जीवित हो सके।
व्याख्यान के दूसरे खंड में उन्होंने भाषाई उपनिवेशवाद पर चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि आज भी अंग्रेज़ी बोलने वाले को आधुनिक माना जाता है और हिंदी बोलने वाले को ‘स्थानीय’। यह मानसिकता देश के आत्मविश्वास पर गहरी चोट है।
सोशल मीडिया पर ‘हिंग्लिश’ के बढ़ते प्रचलन से हिंदी की आत्मा दो भागों में विभक्त हो रही है। शब्दों की गरिमा घट रही है पर उनका प्रभाव बढ़ रहा है। सिनेमा और विज्ञापन में हिंदी के कई नए रूप सामने आए हैं — कहीं लोक से जुड़ते हुए, कहीं बाज़ार में बिकते हुए। उन्होंने चेताया कि जब भाषा वस्तु बन जाती है, तब संस्कृति का भाव मर जाता है।
हिंदी साहित्य में नारीवादी, दलित और आदिवासी विमर्श ने नई ऊर्जा प्रदान की है पर विभाजन भी बढ़ गया है। अब समय समावेश का है — भाषा वही जीवित रहती है जो जोड़ती है, तोड़ती नहीं। उन्होंने कहा कि शिक्षा और पत्रकारिता में अंग्रेज़ी का बढ़ता वर्चस्व ज्ञान की असमानता को जन्म दे रहा है। पत्रकारिता अब लोकसेवा से ‘ब्रांडिंग’ तक सीमित हो चुकी है।
वैश्विक स्तर पर हिंदी के बढ़ते प्रभाव पर परिचय दास ने कहा कि यह सुखद है पर खतरा यह भी है कि कहीं वह अपनी लोक आत्मा न खो दे। भाषा का प्रसार तभी सार्थक है जब वह मनुष्यता के मूल्यों से जुड़ा रहे।
व्याख्यान के समापन में उन्होंने कहा — “हिंदी की असली शक्ति उसके लोक, उसकी कविता, उसकी लय और उसके प्रेम में निहित है। यह भाषा मनुष्य की आत्मा से जुड़ी है। जब तक इसमें लोक का रस और नैतिक चेतना जीवित हैं, तब तक कोई भी चुनौती इसे परास्त नहीं कर सकती। हिंदी भारत की जीवन-रेखा है — और यह जीवन-रेखा हर युग में नया जीवन पाती रहेगी।”
कार्यक्रम के अंत में डॉ. रामप्रवेश रजक ने प्रो. परिचय दास के प्रति आभार व्यक्त किया और कहा कि यह व्याख्यान शिक्षक प्रशिक्षण के प्रतिभागियों को भाषा, संस्कृति और समाज की गहराई से जोड़ने वाला सिद्ध हुआ।
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