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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 4 May 2025 4:33 PM |   1203 views

कृषि स्नातक स्वयं खेती क्यों नही करना चाहते

भारत जैसे कृषि-प्रधान देश में यह एक विडंबना है कि कृषि की पढ़ाई करने वाले युवा खुद खेती करने से कतराते हैं। यह सवाल केवल एक प्रवृत्ति नहीं, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था, सामाजिक सोच, और सरकारी नीतियों के गहन विश्लेषण की मांग करता है। आइए, इस स्थिति के पीछे छिपे विभिन्न पहलुओं को समझें:
 
1. आंतरिक साहस और जोखिम लेने की प्रवृत्ति की कमी-
खेती एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें असफलता की संभावना अधिक है और सुरक्षा कवच बहुत कम। कृषि स्नातकों के सामने जब जोखिम उठाने और सुरक्षित जीवन जीने के बीच चुनाव होता है, तो वे प्रायः दूसरा रास्ता चुनते हैं। पारिवारिक और सामाजिक दबाव भी उन्हें जोखिम लेने से रोकता है।
 
2. सफेद शर्ट और ऑफिस नौकरी की प्राथमिकता-
हमारा समाज ‘सफेद कॉलर’ नौकरियों को ज़्यादा प्रतिष्ठा देता है। खेत की मिट्टी, धूल-धूप और श्रम से भरे जीवन की बजाय कृषि स्नातक भी अक्सर ऐसी नौकरी की ओर आकर्षित होते हैं जिसमें ए.सी. ऑफिस हो और सामाजिक पहचान बढ़े।
 
3. पूर्व के सामाजिक अनुभव-
कई युवाओं ने बचपन से खेती को संघर्ष और हानि से जुड़ा कार्य देखा है। वे अपने माता-पिता या गांव के किसानों की मेहनत और घाटे के अनुभवों से यह निष्कर्ष निकालते हैं कि खेती “लायक काम” नहीं है। यह मानसिकता भी उन्हें खेती से दूर करती है।
 
4. आय की अनिश्चितता और मौसम पर निर्भरता-
खेती पूरी तरह मौसम, कीट, सिंचाई, और बाजार मूल्य पर निर्भर होती है। इसमें मेहनत तो है, लेकिन आमदनी सुनिश्चित नहीं। एक अच्छी फसल के बावजूद यदि बाजार मूल्य गिर जाए तो किसान को भारी नुकसान हो सकता है। यह अनिश्चितता उन्हें पीछे हटने को मजबूर करती है।
 
5. खेती को बिजनेस न मानने की मानसिकता-
भारत में खेती को एक पारिवारिक परंपरा या आजीविका का माध्यम माना जाता है, बिजनेस नहीं। बैंक, नीति निर्माता और यहां तक कि खुद किसान भी इसे एक ‘लाभ आधारित उद्यम’ के रूप में नहीं देखते। इससे कृषि स्नातकों को यह क्षेत्र आकर्षक नहीं लगता।
 
6. पूंजी, लोन और सरकारी सहायता में कठिनाई-
खेती के लिए शुरुआती पूंजी की जरूरत होती है – जैसे कि ज़मीन, बीज, उर्वरक, मशीनें आदि। लोन पाने के लिए अक्सर ज़मानत, जमीन के कागजात और सरकारी जटिलताएं बाधा बनती हैं। कृषि स्नातकों के पास ये संसाधन नहीं होते, जिससे उनका आत्मविश्वास डगमगाता है।
 
7. बाजार का अभाव और मूल्य निर्धारण की समस्या-
कई बार किसान को उसकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिलता। मिडलमेन, बिचौलियों और मंडियों की सीमित पहुँच के कारण किसान का लाभ हाशिये पर चला जाता है। कृषि स्नातकों को यह व्यावसायिक असंतुलन एक बहुत बड़ी बाधा के रूप में दिखता है।
 
8. प्रशिक्षण और व्यावहारिकता में अंतर-
कॉलेज में पढ़ाई गई कृषि की तकनीकी जानकारी को ज़मीनी स्तर पर लागू करने के लिए संसाधन और मार्गदर्शन चाहिए। प्रशिक्षण और हकीकत के बीच की खाई भी कई बार छात्रों को हतोत्साहित करती है।
 
9. नीति और सिस्टम का अस्पष्ट समर्थन-
योजनाएं तो बहुत हैं – प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि, कृषि यंत्र अनुदान, जैविक खेती प्रोत्साहन आदि – लेकिन ज़मीनी क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार, जानकारी की कमी और प्रक्रियात्मक जटिलता के कारण युवा इनसे लाभ नहीं उठा पाते।
 
निष्कर्ष:
कृषि स्नातक खेती से नहीं भाग रहे, वे अवसरों, संसाधनों और समर्थन की कमी से जूझ रहे हैं। यदि सरकार और समाज उन्हें आत्मनिर्भर कृषि-उद्यमी बनाने की दिशा में वास्तविक मदद करें – जैसे प्रशिक्षण, आसान ऋण, बाज़ार संपर्क और तकनीकी सहायता – तो वे खेती को ना केवल अपनाएंगे, बल्कि भारत की कृषि को नवाचार से भी जोड़ पाएंगे।
 
विषय कविता- 
न नौ से पाँच की नौकरी, न ऊँचे महल का मान,
एक बीज बो दे धरती में, बस इतना है अरमान।
मिट्टी से रिश्ता जोड़ सके, सूरज की किरणें पी ले,
ऐसी खेती हो जीवन में, जो उम्मीदों से जी ले।
पर क्या मिले उसे साधन, ना लोन, ना बाजार,
नीति में उलझा किसान अब, देखे बस दीवार।
कृषि स्नातक सोच रहा है, क्यों अपनाऊँ यह राह?
सपनों के संग सोना भी है, पर डर बन गया चाह।
उठो जवानों! मिट्टी बुलाए, अब वक्त है कुछ करने का,
खेत को स्टार्टअप मानो, नव बीज भविष्य गढ़ने का।
जब हल बने हो कम्प्यूटर सा, और बैल बने ड्रोन,
तब कृषक बन विज्ञान चले, ना कोई रहे अब मौन।
 
– डॉ. शुभम कुम़ार कुलश्रेष्ठ, विभागाध्यक्ष -उद्यान विभाग,रविन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय, ऱायसेन, मध्य प्रदेश
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