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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 2 Feb 2025 5:49 PM |   606 views

वसंत प्रकृति के स्वाभाविक शृंगार का काल

वसंत केवल एक ऋतु नहीं , जीवन की लालित्यपूर्ण पुनर्रचना है। इसकी आभा में सजीवता का माधुर्य और काव्यात्मकता का सहज प्रवाह है। यह कालिदास की काव्य-कल्पना में शृंगार की कोमल लहरियों के रूप में अंकित होता है तो बाणभट्ट के गद्य में यह किसी भावुक चित्रकार की तूलिका से उकेरे गए रंगों की छटा के समान प्रकट होता है। यह ऋतु मानव हृदय में सुप्त पड़े उन स्वप्नों को जागृत करती है, जिन्हें शीत की कठोरता ने किसी कोने में छुपा दिया था। जब शीत ऋतु की जड़ता समाप्त होती है और वसंत अपनी मादकता से परिवेश को आलोकित करता है तो यह केवल पेड़ों पर नए पत्तों की हरियाली ही नहीं लाता बल्कि मनुष्य के अंतर्मन में भी आशाओं और आनंद की कोमल लहरें उठने लगती हैं।
 
वसंत की लय किसी संगीत-राग की तरह होती है, जिसकी स्वर-लहरियाँ हर दिशा को मंत्रमुग्ध कर देती हैं। इसकी मंद-मंद बहती वायु मानो किसी अदृश्य बाँसुरी की तान हो जो कोमलता, माधुर्य और उन्मुक्त हर्ष से भरी हुई होती है। जब आम्र-मंजरियों की सुगंध वातावरण में घुल जाती है और कोयल की कूक इस निःशब्द संगीत को अपनी मधुर वाणी में व्यक्त करने लगती है तो सम्पूर्ण प्रकृति मानो किसी सजीव काव्य की भाँति स्पंदित हो उठती है।
 
यह ऋतु प्रकृति के स्वाभाविक शृंगार का काल है। वृक्ष अपनी नूतन हरीतिमा से युक्त हो उठते हैं, पुष्प अपनी कोमल पंखुड़ियों को खोलकर धूप के आलिंगन का स्वागत करते हैं और नदियाँ अपनी तरलता में एक नई चंचलता भर लेती हैं। पक्षीगण अपने मधुर स्वर से नवजीवन की गाथा गाने लगते हैं और भौंरे फूलों के इर्द-गिर्द मंडराकर रसास्वादन का अनुरागमय आलाप गाने लगते हैं।
 
वसंत का लालित्य केवल प्राकृतिक परिवर्तनों में ही नहीं बल्कि मानवीय अनुभूतियों में भी परिलक्षित होता है। यह ऋतु प्रेम की उद्दीपन है, संयोग और वियोग दोनों की संवेदनाओं को तीव्रता प्रदान करने वाली ऋतु है। यही कारण है कि इसने कवियों, चित्रकारों और संगीतकारों को अनगिनत सृजनात्मक प्रेरणाएँ दी हैं। संस्कृत काव्य में जयदेव के ‘गीतगोविंद’ में कृष्ण और राधा का रसरंग, बिहारी के दोहों में प्रणय का मधुर क्रीड़ाभाव और विद्यापति की पदावली में वसंत के शृंगार की मोहक झाँकी देखने को मिलती है।
 
वसंत के सांस्कृतिक रूप को देखें तो यह भारतीय समाज में एक उत्सवधर्मी चेतना का विस्तार करता है। होली इस ऋतु का सबसे सजीव और रंगीन पर्व है, जिसमें मानव मन की स्वाभाविक चंचलता, प्रेम और आनंद की अभिव्यक्ति होती है। लोकगीतों में वसंत की आहट मात्र से शृंगार-रस की गूंज सुनाई देने लगती है—फगुआ, रसिया, धमार, और चैती में इस ऋतु की प्रफुल्लता स्पष्ट झलकती है। रंगों की इस छटा में जीवन का वह उल्लास प्रकट होता है, जिसे संकुचित मनोवृत्तियाँ बाँध नहीं सकतीं।
 
भारतीय कला और साहित्य में वसंत का प्रभाव केवल कविता तक सीमित नहीं बल्कि यह चित्रकला और संगीत में भी प्रवाहित होता रहा है। मुगलकालीन लघुचित्रों में कृष्ण के साथ गोपियों का वसंतोत्सव, राजस्थानी और पहाड़ी चित्रशैलियों में प्रकृति के आलंबन के रूप में वसंत का चित्रण और अजंता-एलोरा की भित्तिचित्रों में इस ऋतु की गूंज देखने को मिलती है। शास्त्रीय संगीत में वसंत से जुड़े अनेक राग हैं, जैसे कि बसंत बहार, बहार, हिंडोल और मियाँ की बसंत जो इस ऋतु की कोमलता, चंचलता और माधुर्य को स्वर में बाँधते हैं।
 
वसंत केवल एक भौतिक अनुभूति नहीं है बल्कि यह एक दार्शनिक सत्य का बोध भी कराता है। यह ऋतु हमें स्मरण कराती है कि परिवर्तन संसार का शाश्वत नियम है। यह हमें बताती है कि शीत का कठोर अनुशासन अनिवार्य हो सकता है परंतु उसके बाद वसंत का उल्लास अवश्य आता है। यह ऋतु हमें यह भी सिखाती है कि जीवन में सौंदर्य और लालित्य केवल बाह्य जगत में नहीं बल्कि हमारे अंतर्मन में भी होता है। जब तक हृदय में प्रेम, करुणा, सौंदर्यबोध और काव्यात्मकता का भाव जीवित है, तब तक प्रत्येक ऋतु में वसंत का अनुभव किया जा सकता है।
 
वसंत का आह्वान केवल बाहरी जगत तक सीमित नहीं रहता बल्कि यह आत्मा के कोमलतम तारों को भी झंकृत करता है। यह हमें स्मरण कराता है कि जीवन में एक विशिष्ट संगीतमय लय होनी चाहिए, जिसमें कोमलता और शक्ति का संतुलन बना रहे। वसंत का सौंदर्य तभी सार्थक है जब हम उसकी लालित्यपूर्ण अनुभूति को आत्मसात करें, जब हम प्रकृति के इस उत्सव का अंग बनें और उसकी मधुर ध्वनि को अपने हृदय में अनुगूँजित होने दें।
 
वसंत केवल फूलों का खिलना नहीं, यह मनुष्य की चेतना में भी एक नवस्फूर्ति, एक नया उल्लास और एक नया संगीत भरने का माध्यम है। यह हमें प्रेम और आनंद की उस धारा से जोड़ता है, जिसे किसी भी सीमा में बाँधा नहीं जा सकता। यह ऋतु हमें सिखाती है कि जीवन केवल जीने के लिए नहीं बल्कि अनुभव करने, सरसता से भरने और सौंदर्य को आत्मसात करने के लिए भी है। यही कारण है कि वसंत न केवल प्रकृति का, बल्कि मानवीय संवेदनाओं का भी सबसे मधुर और कोमल स्वरूप है।
 
वसंत की आहट मात्र से मनुष्य का अंतर्मन पुलकित हो उठता है। यह ऋतु शीत के कठोर अनुशासन से मुक्त होकर प्रकृति के नवजीवन का उत्सव है। ऋतुओं के चक्र में वसंत को जीवन का मधुरतम संगीत कहा जा सकता है, जिसमें पृथ्वी स्वयं एक नवोन्मेषी कवि की भाँति सृजन और सौंदर्य का अनवरत आलाप गाती है। वसंत न केवल प्रकृति का एक संधिस्थल है बल्कि यह भारतीय साहित्य, कला, लोक-संस्कृति और काव्य में एक जीवंत प्रेरणा-स्रोत रहा है। इसकी अनुभूति मात्र से अंतर्मन में एक नया उत्साह जाग्रत होता है और हृदय में कोमलता एवं माधुर्य का संचार होने लगता है।
 
यह ऋतु जैसे ही अपने चरण धारण करती है, वैसे ही समस्त जीव-जन्तु और पेड़-पौधों में एक नवचेतना का संचार हो उठता है। शीत की जड़ता को छोड़कर सूर्य अपनी किरणों में एक सौम्यता भर लेता है और दिशाएँ स्वर्णाभा से आलोकित हो उठती हैं। आम के वृक्षों पर मंजरियाँ खिल उठती हैं, अशोक के वृक्ष रक्तिम पुष्पों से भर उठते हैं और पलाश के दहकते पुष्प धरती के कैनवास पर अनगिनत रंग भर देते हैं। सरसों के खेतों में मानो स्वर्ण-रश्मियों की वर्षा हो रही हो। वसंत का यह रंगोत्सव केवल वनस्पति तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि पशु-पक्षी भी इसके आनंद में विभोर हो उठते हैं। कोयल की कूक प्रकृति के इस उत्सव का उद्घोष करती है और भँवरे पुष्पों के इर्द-गिर्द मधुर राग छेड़ देते हैं।
 
भारतीय साहित्य में वसंत को सदैव एक विशेष स्थान प्राप्त हुआ है। संस्कृत साहित्य में इसे ऋतुराज कहा गया है। कालिदास के ‘ऋतुसंहार’ और ‘कुमारसंभव’ में वसंत का अप्रतिम चित्रण मिलता है। उनकी दृष्टि में वसंत केवल प्राकृतिक परिवर्तन नहीं, बल्कि एक भावनात्मक उल्लास और प्रेम का विस्तार है। जयदेव के ‘गीतगोविंद’ में वसंत के आगमन के साथ नायक-नायिका के प्रेम का उत्कर्ष होता है। विद्यापति और बिहारी के पदों में वसंत की आभा चंद्रमा की चाँदनी की भाँति झिलमिलाती है। सूरदास और मीरा के भजनों में भी वसंत के रंग प्रेम और भक्ति के भाव से सराबोर मिलते हैं। तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ में भी वसंत का उल्लेख है, जहाँ वनवासी राम का चित्रण इस ऋतु की सुगंध और रंगों में लिपटा हुआ प्रतीत होता है।
 
लोककाव्य और लोकसंस्कृति में वसंत का उल्लास भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होता है। होली वसंत की सर्वाधिक प्रचलित उत्सवधर्मी अभिव्यक्ति है। उत्तर भारत के ग्रामीण अंचलों में होली केवल रंगों का त्यौहार नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण भी है। इस अवसर पर फगुआ, चौताल, धमार, होरी और रसिया जैसे गीत गाए जाते हैं, जिनमें वसंत की मादकता, प्रेम और उल्लास की झलक मिलती है। मल्हार, कजरी और चैती की भाँति वसंत पर भी विशिष्ट राग-रागिनियों की परंपरा रही है, जिनमें प्रकृति और मानव के अंतरसंबंधों का मनोहारी चित्रण किया गया है।
 
वसंत केवल काव्य और संगीत तक सीमित नहीं है, बल्कि यह ललित कलाओं में भी अपनी अमिट छाप छोड़ता है। भारतीय चित्रकला में वसंत को एक विशेष भावभूमि के रूप में देखा गया है। मुगल और राजस्थानी लघुचित्रों में वसंतोत्सव के दृश्य अत्यंत मनोहारी हैं। इन चित्रों में कृष्ण गोपियों के साथ होली खेलते हुए या वन में बांसुरी बजाते हुए दिखाई देते हैं। अजंता और एलोरा की गुफाओं की भित्तिचित्रों में भी वसंत की कोमलता और प्रेम का संकेत मिलता है। नृत्य की शैलियों में भी वसंत की झलक मिलती है। कथक, भरतनाट्यम और मणिपुरी जैसे शास्त्रीय नृत्यों में वसंत के सौंदर्य को अभिव्यक्त किया गया है।
 
संस्कृत साहित्य में ऋतुओं का उल्लेख व्यापक रूप से मिलता है और वसंत का स्थान इनमें सर्वोच्च है। अमरुशतक, शृंगारशतक, माघकाव्य और भवभूति के ग्रंथों में वसंत की शोभा का विस्तृत वर्णन मिलता है। बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’ और ‘कादंबरी’ में वसंत का अत्यंत काव्यात्मक चित्रण हुआ है। बाण की भाषा में वसंत मानो स्वयं सजीव हो उठता है और उसके विभिन्न रंग शब्दों में उतर आते हैं।
 
वसंत की महत्ता केवल साहित्य और कला में ही नहीं बल्कि यह भारतीय जीवन दर्शन का एक अभिन्न अंग भी है। यह ऋतु नवजीवन और नवीकरण का प्रतीक है। भारतीय संस्कृति में इसे आध्यात्मिक जागरण से भी जोड़ा जाता है। इस ऋतु में वसंत पंचमी का पर्व मनाया जाता है, जो विद्या, कला और ज्ञान की देवी सरस्वती को समर्पित है। इस दिन पीले वस्त्र पहनने की परंपरा है, जो वसंत के स्वर्णिम सौंदर्य को प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त करता है।
 
भारतीय समाज में वसंत की भूमिका केवल ऋतुचक्र के परिवर्तन तक सीमित नहीं, बल्कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक ऊर्जा के पुनर्संयोजन का काल भी है। कृषि प्रधान देश में वसंत का आगमन एक विशेष उल्लास लेकर आता है, क्योंकि यह खेतों में फसलों के पकने और नए अन्न के आगमन का सूचक होता है। भारतीय किसानों के लिए यह आशा और समृद्धि का संदेशवाहक है।
 
वसंत की यह आभा केवल भारत तक सीमित नहीं है। विश्व साहित्य में भी इसका व्यापक प्रभाव देखने को मिलता है। वर्ड्सवर्थ, कीट्स, शैली और ई.ई. कमिंग्स जैसे कवियों ने वसंत को अपने काव्य में एक नए जीवन के प्रतीक के रूप में चित्रित किया है। शेक्सपियर के नाटकों में वसंत के सौंदर्य और उल्लास का उल्लेख मिलता है।
 
समय के साथ वसंत के प्रति मानव की अनुभूति में परिवर्तन हुआ है। आज की शहरी भागदौड़ और कृत्रिम जीवनशैली में वसंत का आगमन कई बार अनदेखा रह जाता है। किंतु प्रकृति अपने चक्र में निरंतर गतिशील है। पेड़-पौधे, फूल-पत्तियाँ, पशु-पक्षी, नदी-नाले, पर्वत-घाटियाँ, सब अपने मौन संगीत में वसंत का स्वागत करते रहते हैं।
 
वसंत के रंग केवल बाहरी दुनिया तक सीमित नहीं, बल्कि यह मनुष्य के आंतरिक संसार में भी खिलता है। यह प्रेम, सौंदर्य, उल्लास और नवजीवन का संदेश लेकर आता है। यह ऋतु हमें याद दिलाती है कि प्रकृति की हर हलचल में जीवन का संगीत स्पंदित होता रहता है और हमें चाहिए कि हम भी इस संगीत का हिस्सा बनें, इसकी लय में आप्लावित हों और जीवन की इस  सुऋतु के वैभव में खो जाएँ।
 
-प्रो. रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव ‘परिचय दास’
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