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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 12 Aug 2024 6:48 PM |   470 views

अनुराग और निडरता के मिशाल : काकोरी के शूरवीर

भारत की स्वतंत्रता संघर्ष केवल ब्रिटिश हूकूमत के खिलाफ नहीं थी बल्कि एक ऐसी शक्ति के खिलाफ थी जिसका जन्म औद्योगिक क्रांति का प्रतिफल था।
 
भारत की आजादी की लड़ाई साम्राज्यवादी शक्तियों के विरूद्ध संसार के सबसे प्राचीनतम् संस्कृति वाले देश का युगांतकारी उद्घोष था। इस संघर्ष ने अनेक उतार-चढ़ाव एवं नये-नये विचारों के प्रतिफल का गवाह रहा है। यहाँ एक तरफ गाँधीवादी वृत्ति एवं लक्ष्य की पवित्रता, शुद्धता की बात की थी तो वहीं अस्त्र-शस्त्र में भी संघर्ष किए गए। वर्ष 1857 के पूर्व तक आजादी के संघर्ष का स्वरूप विचित्र था।
 
कहीं भी एक रूपता नहीं दिखी। कहीं समूह ने काम किया तो कहीं विद्रोह ने। 19वीं शताब्दी में जितने भी आन्दोलन हुए वे सभी अपने अधिकारों की माँग की प्रतिबद्धता को दोहराया गया। 1857 के विद्रोह में अखिल भारतीय स्वरूप झांसी की रानी, तात्या टोपे, वीर कुँवर सिंह, बेगम हजरत महल, बहादुर शाह जफर के समय तक आन्दोलन बढ़ता-घटता रहा। लेकिन भारतीय जन ने यह स्वीकार कर लिया था कि अब विद्रोह स्वरूप चाहें जो भी रहे लेकिन विद्रोह चलता रहा। साम्राज्यवादी ताकतों का अंत तक स्वप्न की भाँति लेकिन नजर आ रहा था। 19वीं शताब्दी अंत तक यह स्वप्न साम्राज्यवाद एवं सामंतवाद दोनों में विभक्त होकर दोहरा चोट दे रहा था।
 
यह सत्य है कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 1919 तक जब महात्मा गाँधी के नेतृत्व में भारतीय जनता ने स्वतंत्रता संग्राम में सत्याग्रह एवं ब्रिटिशों की नीति को नहीं मान एक नया संघर्ष का स्वरूप विकसित किया। इस समय तक आन्दोलनों के द्वारा ब्रिटिशों को विरोध झेलना पड़ा। बंगाल के विविध स्थानों पर कुछ आन्दोलन के कारण पूरे भारत में आन्दोलन थोड़े हिंसक होने शुरु हो गये थे। जिसमें अलीपुर, पंजाब के गदर पार्टी का मोर्चा प्रथम लाहौर षड़यंत्र, मैनपुरी षड़यंत्री आदि सम्मिलित थे। 
 
भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में गाँधी जी ने असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया। असहयोग आन्दोलन प्रथम बार वैधानिक तरीके में चल रहा था। जिसमें लगभग सभी वर्ग के लोगों ने भाग लिया। 1922 के चौरी-चौरा की घटना का बाद भयानक आन्दोलन को रोकना जनमानस को अचंभित कर दिया। अब लगने लगा कि शायद आजादी हमसे बहुत दूर चली गयी है। भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में क्रांतिकारी राष्ट्रवाद का दौर प्रारम्भ हुआ। जो पहले के चल रहे आन्दोलनों से विल्कुल अलग था। और भारतीयों में घोर निराशा एवं अपेक्षा के विरूद्ध एक आवाज थी। सबका उद्देश्य एक था औपनिवेशिक सत्ता का समूल नाश।
 
फरवरी 1919 के चले विख्यात मैनपुरी षड़यंत्र केस के अन्तर्गत महान क्रांतिकारी गेंदालाल दीक्षित के साथी अभियुक्तों में राम प्रसाद बिस्मिल का नाम था। परन्तु बिस्मिल पुलिस की पकड़ में नहीं आये। आम माफी के बाद पुनः प्रकट हुए। फरारी जीवन से प्रकट के कुछ दिनों बाद पुनः सक्रिय हुए। अशफाक उल्लाह खाँ एवं राम प्रसाद दोनों असहयोग आन्दोलन में भाग लिए। अहमदाबाद के काँग्रेस के अधिवेशन में भाग भी लिए। लेकिन इनकी नीतियाँ उनको स्वीकार नहीं रही।
 
राम प्रसाद बिस्मिल ,शचीन्द्र नाथ सान्याल के साथ मिलकर संयुक्त प्रांत में सक्रिय हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सम्पर्क में आए। आगे चलकर बिस्मिल की इसी संस्था के मिलिटरी विंग हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के सेनापति हो गए। शीघ्र ही बिस्मिल अपने साथी अशफाक उल्लाह खाँ एवं आर्य समाजी ठाकुर रोशन सिंह को भी ले आये। इस एसोसिएशन का मुख्य उद्देश्य संगठन को मजबूत करना, बड़े पैमाने पर प्रचार करना, नौजवानों को जोड़ना, प्रशिक्षित करना तथा हथियार जुटान के लिए धन की व्यवस्था करना। इसीलिए हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ने सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई।
 
इसी क्रम में 9 अगस्त 1925 को क्रांतिकारियों ने लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन जो आलमनगर से 4 मील दूर स्थित है। 8 डाऊन ट्रेन को क्रांतिकारियों के द्वारा लूटा गया। उस ट्रेन के गार्ड भी जगन्नाथ प्रसाद के द्वारा लखनऊ कंट्रोल रूम को इस डकैती की सूचना दी गयी। इस ट्रेन में विभिन्न स्टेशनों से ली गयी कैश की धनराशि रखी गई थी। लगभग 4679.00 रूपये लूट लिये गये और मोहनलाल, श्यामलाल और अहमद अली को गोली लगने से मृत्यु हो गई। इसी पूरी घटनाक्रम को काकोरी कांड कहा गया।
 
यह घटना सम्पूर्ण ब्रिटिश साम्राज्य की प्रतिष्ठ पर आघात लगा सरकार स पर कठिन कार्यवाही के लिए प्रतिबद्ध हो गई। 14 अगस्त 1925 को डी.आई.जी. (सी.आई.डी. विभाग) आर.ए. हार्टन को जाँच के लिए जाँच प्रमुख बनाया गया। हार्टन ने डकैती के तरीके, असलहों, कपड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि डकैती क्रांतिकारियों के द्वारा की गई चाल है। 24 एवं 25 सितम्बर 1925 को 11 व्यक्तियों के खिलाफ वारंट भेजे गये। 26 सितम्बर तक तक 3 लोगों को गिरफ्तार भी कर लिये गये।
 
इसी गिरफ्तारी एवं कागजात के आधार पर दूसरे अन्य क्रांतिकारियों के बारे में सूचना मिली। सबसे प्रमुख कागजात 26 सितम्बर 1925 को एक पीला पम्पलेट प्राप्त हुआ जो डी.एन.चौधरी डार्क गोविन्द चरन कार के पास से रामेश्वर होटल लखनऊ में प्राप्त हुआ। जो हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का था। उसी में क्रांतिकारियों के संलिप्तता का जाँच प्रमुख को बोध हुआ। समस्त आरोपियों को खजाने की लूटने की कोशिश और यात्रियों को जान से मारने के तहत मुकदमा चलाया गया।
 
अंततः जुलाई 1927 में ए. हेमिल्टन के कोर्ट ने इस मामले पर अंतिम फैसला सुनाते हुए ग्यारह आरोपियों में से चार रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, राजेन्द्र लाहिनी और अशफाक उल्लाह खाँ को फाँसी दी गई और तीन को आजीवन कारावास सुनाते हुए जेल भेज दिया गया।
 
तीन को इस वर्ष कैद, तीन को पाँच वर्ष कैद, प्रणवेश चटर्जी को चार वर्ष और  रामनाथ पाण्डेय को तीन वर्ष का कैद सुनाया गया। हरगोविन्द, शचीन्द्र विश्वास एवं दामोदर स्वरूप सेठ को बरी कर दिया गया।
 
–प्रो हरीश श्रीवास्तव
राजकीय महिला महाविद्यालय सलेमपुर 
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