आठवां सुर उस पर दसवीं ताल” नाटक का सफलतापूर्वक मंचन संपन्न
नयी दिल्ली- यहाँ बावरामन थियेटर ग्रुप एसोसिएट बॉए फेसवा फाऊंडेशन इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में “आठवां सुर उस पर दसवीं ताल” नाटक का सफलतापूर्वक मंचन संपन्न हुआ। घनघोर बारिश में भी हाऊस फुल होना और कॉमेडी का लुत्फ उठाते हुए ठहाके लगाना, दर्शकों का कलाकारों को स्टेडिंग आवेशन देना, इस नाटक के सफल होने का ज्वलंत प्रमाण था।
इस नाटक में माता-पिता द्वारा बच्चों को दुनिया का सबसे ज्यादा गुणी इंसान बनाने की इच्छा जैसी समस्या को कामेडी के माध्यम से प्रस्तुत किया गया।
इसकी कहानी कुछ इस प्रकार से है, अरेद अपनी बेसुरी गायकी को लेकर इतना आत्मविशवासी और आत्मभिमानी है कि वो अपने आगे किसी को नहीं समझता क्योंकि उसके मन में उसकी मां विरारा यह डाल चुकी है कि तू जिनियस है तू बेस्ट है। परंतु उसका पिता लवान उसके बेसुरे रागों से बहुत ही परेशान है। वह हर वक्त उसे एहसास कराता रहता है कि उसकी बेसुरी आवाज़ जरुर एक दिन इस दुनिया का खात्मा करेगी। लवान ही नहीं उसके पड़ोसियों का भी यही हाल है। इतना कि सब सोचते हैं कि“उसकी आवाज़ का टार्चर सहने से तो अच्छा है कि कोई जल्लाद उन्हें सूली पर चढ़ा दे। एक बार में ही किस्सा खत्म हो।”
वहीं उसके दोस्त उसकी इस बेसुरी गायकी को अपना रोज़गार बना लेते हैं। वह डाक्टर्स के साथ मिलकर ऐसे शो कराते हैं जहां लोगों को दवाई की नहीं ठहाकों की जरुरत है। उसके गानों पर लोग जी भर कर हंसते हैं और नींद की गोली खाए बिना आराम से सो पाते हैं। हालांकि अरेद को यह पता नहीं चलता कि लोग उसके गानों पर इतना हंसते क्यों हैं?
अमेश, जातक, कोरोके का काम सही निकल पड़ता है। बेरोजगारी के टैग को अब वो निकाल देना चाहते हैं पर एक दिन कोरोके को एहसास होता है कि वो अपने दोस्त के साथ अच्छा नहीं कर रहे। वो गायक नहीं एक कामेडियन बनकर रह गया है, लोगों के सामने और वो नारस्सिट जैसे मानसिक रोग की तरफ जा रहा है। उसके सिर पर उसकी आत्ममुग्ध रहने की सोच चढ़ चुकी है। अरेद को अपने आगे कोई सही नहीं लगता। अब तो वह मोहम्मद रफी साहब के गानों में भी ग़लतियां निकालने लगा है।
उसके बढ़ते नारस्सिज़म को देखकर उसके दोस्त उसके माता-पिता से मिलकर यह बात बताते हैं कि सही समय पर वो काऊंसलिंग करवा लें वरना अरेद के साथ आगे काफी मुश्किल हो सकती है।
इसके विपरीत विरारा अपने बेटे के बारे में कुछ भी बुरा नहीं सुनना चाहती। परंतु पिता इस बात को समझता है। नाटक का सुखद अंत होता है, इस मैसेज के साथ कि अगर आपका कोई भी अपना अपनी आत्मप्रशंसा करने वाले, अपने आगे किसी को कुछ न समझने वाले या फिर अपने लिए फेक सपने देखने वाला कोई भी मिले तो उसकी सही समय पर काऊंसलिंग करवाएं। वरना ये बीमारी बढ़ सकती है।
नाटक में प्रत्येक किरदार ने अपनी भूमिका को बाख़ूबी निभाया। अरेद की भूमिका में हार्दिक ने दर्शकों का दिल जीत लिया। उसकी मेहनत ने सच में इस नाटक में जान फूंक दीं। उसके साथ ढोलक बजा रहे केशव ने “आठवें सुर उस पर दसवीं ताल” के इस शीर्षक के साथ पूरी तरह से न्याय किया। लवान अरेद के पिता की भूमिका में गौरव ने अपने किरदार को अच्छे से निभाया। मां विरारा की भूमिका में थीं बाबुशा जो पहली बार स्टेज पर इतनी लंबी भूमिका निभा रही थीं। उनकी तारीफ़ में हर दर्शक ने कहा कि उन्हें देखकर हमें अपनी मम्मी याद आ रहीं थीं कि मेरी मम्मी भी ऐसा ही करती हैं।
पड़ोसन और लवान की मां की भूमिका में थीं रेनू चौहान जिन्होंने अपने किरदार से ये दिखा दिया की कुछ भी नया करने के लिए उम्र की नहीं जज़्बे की जरुरत होती है। ये उनका दूसरा नाटक था। उन्होंने बहुत ही ख़ूबसूरती से अपनी भूमिका निभाई और दर्शकों से वाह..वाही लूटी। चंद्रकांत उन्होंने एक आदमी, गुरु जी, पंडित जी और पिता के चरित्रों को बहुत ही स्वाभाविक रुप से निभाया। दर्शकों से बहुत तालियां बटोरी।
दोस्तों के रुप में अक्षित अमेश के रुप में, कोरोके के रुप में उत्तम, जातक के रुप में वेदांत और हार्दिक की गर्लफ्रेंड गीत के रुप में थी प्रिया। जिन्होंने अपने चरित्र के साथ न्याय किया तथा दर्शकों से बहुत तालियां बटोरी। इस नाटक को लिखा और डायरेक्ट किया था सुनीता अग्रवाल ने।
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