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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 23 May 2024 6:22 PM |   120 views

त्रिविध पावनी ” बुद्ध पूर्णिमा “

“सब्बपापस्स अकरणं,कुसलस्स उपसम्पदा।
सचित्त परियोदपनं,एतं बुद्धान सासनं।”
 
अर्थात सभी पापों का न करना, कुशल कर्मों का संचय करना और अपने चित् को परिशुद्ध करना यही बुद्धों की शिक्षा है।
 
सभी पापों का न करना, कुशल कर्मों का करना ,अपने चित् को  परिशुद्ध करना! देखने और सुनने में बहुत सरल! लेकिन क्या इतना सरल है? कुशल और अकुशल कर्म के लिए क्या आवश्यक है? क्या ऐसा हो जिससे पाप कर्म ना हो? उत्तर है प्रज्ञा। और प्रज्ञा सीधे नहीं आती! शील (सदाचरण ),समाधि (ध्यान )उसके बाद प्रज्ञा आती है। प्रारंभ  सदाचरण से करना है @ अर्थात हिंसा नहीं करनी है, चोरी नहीं करनी है ,व्यभिचार नहीं करना है, झूठ नहीं बोलना और किसी प्रकार का नशा नहीं करना है।
 
इसके बाद समाधि अर्थात ध्यान ध्यान सबसे सरल विधि से प्रारंभ करना चाहिए। ध्यान में हमेशा यह याद रखना चाहिए कि जितना कम आलंबन बाहरी चीजों का हो उतना ही बेहतर है। बाहरी आलंबन में बाहर की ध्वनि, शब्द ,मंत्र, मूर्ति हो सकते हैं प्रारंभ में एक-दो मिनट इनका प्रयोग किया जा सकता है, इसके बाद इनका आलंबन नहीं लेना चाहिए। ध्यान की बहुत विधियां हैं किंतु सबसे सरल आनापान mindfulness of breathing (सांस का आना सांस का जाना यह सजगता से जानना) और विपश्यना (मन और शरीर के संवेदनाओं को समता युक्त चित् से देखना।
 
जब सांस को देखना प्रारंभ करेंगे तो मन 1 या 2 मिनट बाद या तो भूत में या भविष्य में विचरण करने लगेगा! जिस मन को आप अपना समझते हैं वह मन 10 मिनट भी आपके अनुसार काम नहीं कर रहा! तब आप कैसे मानते हैं कि यह आपका मन है। मन तो आपका लेकिन नियंत्रण कहीं और है| इसके लिए जिम्मेदारी है आपकी, क्योंकि मन आपका है, नियंत्रण भी आपका होना चाहिए| इससे ज्यादा तेज इस यूनिवर्स में और कुछ नहीं| यह ऐसी गाड़ी है जिसके सभी ड्राइवर हैं लेकिन प्रशिक्षण बहुत कम लोगों को  है इसलिए मन रूपी ड्राइवर के एक्सीडेंट सबसे ज्यादा हो रहे है|
 
इसीलिए मन को जीतने की आवश्यकता है, जिसका मन नियंत्रण है वह व्यक्ति दुनिया का सबसे सफल और खुशहाल व्यक्ति है! मन राग,द्वेष, ईर्ष्या, अहंकार इत्यादि विकारों से ग्रसित होकर अकुशल कर्म करता है और परिशुद्ध मन  सदैव कुशल कर्म ही करता है। विकार युक्त मन से कोई भी कर्म करने पर उन कर्मों का परिणाम उसी प्रकार पीछे पीछे चलता है जैसे बैलगाड़ी के पहिए उनका अनुसरण करते हैं।
 
इसके विपरीत परिशुद्ध मनसे किया गया कोई भी कर्म का परिणाम उसी प्रकार साथ रहता है जिस प्रकार आपके साथ चलने वाली आप की छाया। यह आपके हाथ में होना चाहिए कि आप क्या करना चाहते हैं और क्या कर रहे हैं इसका नियंत्रण अन्यत्र ना हो! साथ ही हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि जो आप करते हैं वहीं कई गुना होकर आपको प्राप्त होता है, चाहे वह कुशल हो, चाहे अकुशल हो! प्रज्ञा के स्तर पर जितनी जल्दी यह समझ विकसित हो जाए उतना ही बेहतर जीवन जीने की संभावना है।
 
कर्म तीन प्रकार से ही होते हैं वाणी, शरीर और मन। वाणी और शरीर के कर्म दिखाई देते हैं इस कारण से इनके अकुशल करने से जिस देश मैं आप होंगे वहां दंडित किए जाएंगे। लेकिन मन से अकुशल करने पर स्वयं दंडित किए जाएंगे! और यदि  मन के स्तर पर ही अकुशल को रोक दिया जाए तो सबसे ज्यादा अच्छा है पर ऐसा तभी संभव है जब मन संयमित और अनुशासित हो|
 
रास्ता और विकल्प आपके पास है, चयन भी आपका होना चाहिए और सर्वोत्तम होना चाहिए और सर्वोत्तम चयन परिशुद्ध मन है। क्योंकि भगवान बुद्ध कहते हैं यदि कोई व्यक्ति अपने मन को परिशुद्ध कर ले तब उसको किसी प्रकार का दुख नहीं आ सकता।
 
श्रावस्ती में अनाथपिंडिक के द्वारा बनाए गए जेतवनाराम में देवदत्त को संबोधित करते हुए तथागत  ने कहा :-
 
“इध तप्पति पेच्च तप्पति,पापकारी उभयत्थ तप्पति।
पापं मे कतन्ति तप्पति,
भीय्यो तप्पति दुग्गतिङ्गतो।
                                – धम्मपद
 
पापकारी यहाँ संतप्त होता है, मरकर संतप्त होता है, दोनों जगह संतप्त होता है। मैंने पाप किया है,यह सोचकर संतप्त होता है और दुर्गति को प्राप्त हो और भी संतप्त होता है।
 
सुमना देवी को संबोधित करते हुए तथागत ने कहा :-
 
“इध नन्दति पेच्च नन्दति,  कतपुञ्ञो उभयत्थ नन्दति।
पुञ्ञं मे कतन्ति नन्दति,
भीय्यो नन्दति सुग्गतिंगतो ।”
                            – धम्मपद
 
जिसने पुण्य किया है,वह दोनों जगह आनंदित होता है, यहाँ आनंदित होता है, मरकर भी आनंदित होता है। मैंने पुण्य किया है,यह सोचकर आनंदित होता है। सुगति को प्राप्त हो और भी आनंदित होता है।
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