संग्रहालय: ज्ञान का वातायन

इतिहास केवल घटनाओं का संकलन मात्र नहीं है। इतिहास हमें शिक्षा भी देता है और प्रेरणा भी। इतिहास अमूर्त होता है। संग्रहालय उसी इतिहास को मूर्त बनाते हैं अर्थात इतिहास के महत्वपूर्ण संदर्भों को स्थूल रूप में हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं।

इतिहास पढ़ने वाले विद्यार्थी इतिहास को अतीत के संदर्भ में ही पढ़ते हैं। अतीत की घटनाओं को याद कर लेना या अतीत के चरित्र की आलोचना पढ़कर याद कर लेना ही उनका उद्देश्य होता है, किन्तु अब समय आ गया है कि हम इतिहास के अध्ययन की अपनी दृष्टि बदलें। हमारा अतीत ही हमारे इस वर्तमान का जन्मदाता है और ‘‘आज‘‘ ही आगे चलकर अतीत बनेगा और भविष्य का निर्माण होगा। अतः अब अतीत को वर्तमान से जोड़कर देखने की आवश्यक्ता है। इसके लिए हमें संग्रहालयों की सहायता लेनी होगी। शिक्षण संस्थाओं एवं संग्रहालयों को जोड़े बगैर यह क्रान्तिकारी परिवर्तन नही हो सकता।
संग्रहालय की उत्पत्ति एवं विकास:
Museum शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के Musion शब्द से हुई है जिसका अर्थ है House of Musese या Century of Musese अर्थात जहाँ कला और विज्ञान की देवियाँ निवास करती हैं।
संग्रहालय किसी न किसी रूप में प्राचीन समय से स्थापित होते रहे हैं। प्रस्तर मूर्तियाँ, हिन्दू, बौद्ध तथा जैन धर्मों के धार्मिक कृतियों से सम्बन्धित साहित्य, धर्मग्रन्थ, बर्तन तथा अन्य वस्तुएं मन्दिरों को भेंट स्वरूप लोगों द्वारा दिया जाता था और इनका उपयोग कर ये वहीं पर रख दी जाती थीं और धीरे-धीरे इन वस्तुओं ने संग्रह का रूप ले लिया। कालान्तर में इन वस्तुओं का संग्रह राजाओं एवं समाज के प्रतिष्ठित वर्ग के लोगों द्वारा किया जाने लगा।
इस तरह के संग्रहों का उल्लेख प्राचीन भारतीय इतिहास एवं साहित्य जैसे कृष्ण धर्मोत्तर पुराण आदि में चित्रशालाओं के उल्लेख मिलते हैं, जहाँ चित्र संग्रहीत किए जाते थे। महाकाव्यों में भी चित्रशाला
एवं विश्वकर्मा मन्दिरों का उल्लेख मिलता है। कई सदी पूर्व से भारत में जैन भण्डारों एवं हिन्दू मन्दिरों के लिए सचित्र पोथियाँ लिपिबद्ध की जाती रही हैं। ये चित्र धार्मिक अंकनो के साथ-साथ कला के अप्रतिबिम्ब उदाहरण भी हैं।
भारतीय शासकों अथवा राजाओं-महाराजाओं के संग्रह पुस्तक प्रकाश, सरस्वती भण्डार, सूरतखाना आादि नामों से प्रसिद्ध रहे हैं। मुगल शासको के पुस्तकालय – कुतुबखाना एवं चित्र संग्रह – तस्वीरखाना आदि नामों से जाना जाता था। मुगलकाल में लेखकों एवं कलाकारों को राजनैतिक संरक्षण प्राप्त था। इसके पूर्व में भी समय-समय पर लेखकों और कलाकारों का आदर शासकों द्वारा किया जाता था तथा संरक्षण भी प्राप्त था।

इसके बाद अनेक संग्रहालयों के स्थापना की प्रक्रिया शुरू हुई। 1851 ई. में केन्द्रीय संग्रहालय, मद्रास तथा इसी वर्ष बम्बई के ग्रांट मेडिकल कालेज में एशिया का प्रथम मेडिकल संग्रहालय भी स्थापित हुआ।
सन् 1863 ई0 में राज्य संग्रहालय, लखनऊ की स्थापना हुई जो उ0 प्र0 का पहला संग्रहालय है, 1865 में राजकीय संग्रहालय, मैसूर, 1874 ई. में राजकीय संग्रहालय मथुरा इत्यादि संग्रहालयों की स्थापना हुई। जब 1887 ई. में महारानी विक्टोरिया की जुबली मनायी गयी उस समय भारत में तीव्र गति से संग्रहालयों की स्थापना की गयी और सन् 1900 ई0 के पूर्व त्रिचुर, उदयपुर, भोपाल, जयपुर, राजकोट, भावनगर, त्रिचनापल्ली इत्यादि विभिन्न स्थानों पर लगभग 26 संग्रहालय स्थापित हो चुके थे।
1900 के बाद तथा 1947 के पूर्व संग्रहालयों के निर्माण को बहुत प्रोत्साहन मिला। 1861 ई0 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की स्थापना हुई और सर जॉन मार्शल ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का विकास कर खुदाई से प्राप्त पुरा महत्व की वस्तुएं संरक्षित करने के उद्देश्य से अधिक संग्रहालय स्थापित किये। जिसमें 1901 में जूनागढ़, 1902 में धार, 1903 वारिपथ, 1904 में सारनाथ, 1906 आगरा, 1907 पेशावर, 1909 जोधपुर, 1910 खजुराहो, पूना, ढाका इत्यादि जगहों पर संग्रहालयों की स्थापना हुई।

1950 के आस-पास देश में संग्रहालयों की नयी भूमिका महसूस की जाने लगी और कई बहुआयामी संग्रहालयों की स्थापना हुई। 1955 में राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली की नींव पड़ी तथा 1960 में अपने नवनिर्मित भवन में आया जो जनपथ, नई दिल्ली में स्थित है। 1963 में राष्ट्रीय बाल संग्रहालय की स्थपना हुई।
इस तरह से आज तक भारत में लगभग 400 से अधिक संग्रहालयों की स्थापना हो चुकी है और लगातार संग्रहालयों की संख्या बढ़ती जा रही है।
– डॉ. मनोज कुमार गौतम ,उप निदेशक,राजकीय संग्रहालय, झाँसी
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