जोशीमठ संकट

आज जब यह पूरा क्षेत्र खतरे की जद में आ चुका है तो यहां पर विकास के नाम पर चल रही परियोजनाओं तथा उनमें संलग्न एजेंसियों की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं या मानते हुए कि यह संकट इन सब की वजह से आया है कुछ लोग इसे प्राकृतिक आपदा भी मान रहे हैं।
इन सब के लिए कौन उत्तरदाई है–प्रकृति या इंसान, कितना नुकसान हुआ है या होना है इन सब की समीक्षा तो होती रहेगी। लेकिन अहम् प्रश्न इस समय है कि आगे क्या किया जाना चाहिए। इस संबंध में दो तरह के उपाय आवश्यक हैं–पहला तात्कालिक और दूसरा स्थाई समाधान।
तात्कालिक तौर पर जो लोग भी खतरे की जद में आ रहे हैं उन्हें दूसरी जगह पर बताया जाना चाहिए तथा उन्हें उचित मूल्यांकन के साथ बाजार दर पर पूरा मुआवजा सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
स्थाई समाधान के नजरिए से विकास को कोसना पर्याप्त नहीं है। अलग राज्य बना करके जो प्रशासनिक खर्चे बढ़ाए गए हैं उनकी उपेक्षा ठीक नहीं। विकास की आड़ में जो भ्रष्टाचार और कुशलता विद्यमान रही है, चाहे जो भी दल सत्ता में रहा है, उसे काबू में करना होगा।
अब तो देश के बहुतेरे स्वतन्त्र चिन्तन वाले साधू सन्त भी मुखर हो रहे हैं कि आज दुनिया का कोई भी राजनीतिक दल और नेता सत्तालोलुपता और भ्रष्टाचार से ऊपर नहीं है। सरकार नहीं व्यवस्था बदलनी होगी। राजनीति पर समाजनीति को आरूढ़ करना होगा। इस दिशा में सोचना आवश्यक है कि उत्तराखंड और हिमाचल जैसे छोटे राज्य जिनकी सम्मिलित आवादी बमुश्किल एक करोड़ 69 लाख है तथा क्षेत्रफल भी कुल मिलाकर भारत का 4% से भी कम बनता है। इनको क्यों न एक राज्य में मिला दिया जाए ताकि प्रशासनिक खर्चों का दबाव काफी कम हो जाए।
बेहतर तो यह होगा कि कश्मीर, जम्मू, लद्दाख, हिमाचल और उत्तराखंड को एक में मिलाकर सीमा पर बड़े और शक्तिशाली प्रदेश की स्थापना की जाए या एक ऐसा प्रस्ताव है जो आजादी के समय से ही कजाहिल के रूप में लंबित रहा है लेकिन इस प्रस्ताव को शीघ्र लागू कर देना ही इन क्षेत्रों के वास्तविक हित में है, और राष्ट्रहित में भी।
हालिया राजनीति का पूरा चिंतन ही विकृत रहा है। साठ लाख की छोटी सी आबादी व क्षेत्र पर अलग राज्य बना महाविनाश को निमंत्रण दे देंगे, लेकिन 27 जिलों और 6 करोड़ की आबादी पर भोजपुरी प्रदेश बनाने में इन्हें बड़ी दिक्कत होती है। उसको रोकने के लिए भोजपुरी भाषा का बखेड़ा खड़ा कर देंगे। विदर्भ और सौराष्ट्र की मांगें भी इन्हें राष्ट्रविरोधी ही लगती हैं।
प्रोफेसर आर पी सिंह
दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय।
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