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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 8 Dec 2022 5:04 PM |   238 views

युवा भारत और बुजुर्ग

वृद्धाश्रम के गेट पर अपनी माँ को छोड़ कर रवि मुड़ गया और अपनी माँ से कहा- मै आता रहूंगा “। तभी माँ ने उसको बीच में ही रोक कर कहा | सुन बेटा तू अपने दिल पर बिल्कुल बोझ मत रखना | मुझे ये सजा तो मिलनी ही थी। तुझे पाने के लिए मैने तीन- तीन अजन्मी बच्चियों को पेट में ही मरवा दिया था | सजा तो मिलनी ही चाहिए।” कह कर माँ रोते हुए वहीं बैठ गई |

“बाबू जी  आप यहाँ रसोई में क्या कर रहे है? आपसे चुप चाप एक जगह बैठा नही जाता क्या? रमा ज़ोर से चिल्लाई ।  कुछ खाने को दे दो, दवा खानी है । बाबू जी धीरे से  बोले । हाँ हाँ पता है। अभी बच्चो को और इनको भेज कर दे दूंगी आपको भी नाश्ता | तब तक सब्र कीजिए|

यह तो एक छोटी सी झलक थी भारत में बुजुर्गो की स्थिति की |स्थिति और भी भयावह हो सकती है क्योकि भारत में बुजुर्गो की संख्या पहले के मुकाबले तिगुनी हो गयी है |जिनमे से ज्यादातर बुजुर्गो का दायित्व सरकार उठाती है। लेकिन बुजुर्गों की बढ़ती तादात से आज सरकारी व्यवस्था भी कम पड़ रही है।हैं भारत वर्तमान समय का  सबसे युवा देश है । प्राचीन काल से ही ये देश, ज्ञान, विज्ञान, संस्कृति मूल्यों और परपराओं के लिए जाना जाता रहा है ।  

क्या कारण है कि आज का युवा वर्ग अपनी उन्ही परम्पराओं और मूल्यों को छोड़कर पाश्चात्य सभ्यता की ओर भाग रहा है ? क्यों परिवार संयुक्त से एकल हो रहें हैं |

कहीं ऐसा तो नहीं कि हम आज की युवा पीढ़ी को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं उस स्थिति को उत्पन्न करने वाले  उनकेअभिभावक ही हो ।अपनी अपूर्ण आकांक्षाओं और महत्वाकाक्षाओं को पूरा करने  के लिए  अपने बच्चों के मन में ये धारणा डाल देते हैं कि बड़े होकर तुम्हे अच्छी नौकरी करनी है। धनवान बनना है। बाहर /  विदेश उच्च शिक्षा लेनी है आदि इन सबमें वो मूल्यों को ताक पर रख देते है और फिर वही, बच्चे अपने बूढ़े होते माँ -बाप को छोड़ कर विदेशो में बस जातें है।

जिस उम्र में माता-पिता के बच्चो का साथ चाहिए उस उम्र  में वे अकेलेपन के महा दानव से जूझ रहे होते हैं। मध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय परिवारों के बुजुर्गो की तो इससे भी दयनीय स्थिति है।

जिन माता-पिता ने अपने पाँच-पाँच बच्चों को पालने में अपना तन, मन और धन लुटाने में जरा भी संकोच नही किया उन्ही को अपने ही घर में कुछ माँगने में संकोच होता है। कितने ही बुजुर्ग है जो घर में होने वाले अपमान से बचने के लिए ज्यादातर समय पार्क में या मन्दिरों में बैठ कर बिताते हैं। उन्हें घर की बेकार वस्तु की तरह देखा जाता है। किसी को भी उनको अनुभव नही चाहिए, उनका अर्जित ज्ञान नही चाहिए।

आज के युवा वर्ग के पास हाथ में मोबाइल है जिसे वह अपनी दुनिया समझ बैठा है। उसके पास अपने माता पिता के लिए समय नहीं है तो दादा – दादी तो दूर की बात है |

आज की भागती दौड़ती दुनिया में सबको जल्दी से जल्दी दौलत  शोहरत नाम चाहिए जिसको पाने की होड़ में संयुक्त परिवार टूर रहे हैं। सहनशक्ति का ह्रास हो चुका है दौड़ प्रतियोगिता का परिणाम कुछ भी हो लेकिन दुष्परिणाम बुजर्गों से ही चुकाना पड़ चुकाना पड़ रहा है | तभी तो समाज को जहाँ एक ओर नैतिक पतन हो रहा है वहीं मानसिक और शारीरिक रुग्णता भी आ रही है। लोग अकेलेपन से जूझ कर मानसिक रोगी भी हो रहें हैं |

हमारे समाज की प्राचीन परम्परा में इसलिए  संयुक्त परिवार को मुख्य धारा में रखा गया था जिसमे  बच्चे से लेकर बूढ़े तक उचित स्थान और सम्मान था | तब कोई वृद्धाश्रम नहीं होते थे । घर की समस्या सबकी समस्या होती थी और सब मिल-  जुल कर  हल कर लेते थे |

 जिस प्रकार बच्चे सुनहरे भविष्य की नींव है उसी प्रकार बुजुर्ग भी उस सुनहरे  भविष्य को सवारने और सशक्त बनाने वाले नीव के पत्थर है। अपने बड़े बुजुर्गो के अनुभव को लेकर ही हम देश को आगे बढ़ा सकते है।

वृद्धाश्रम बनने चाहिए लेकिन ऐसे जहाँ वृद्ध जाकर अपना मनोरंजन कर सके, योगाभ्यास कर सके , संकीर्तन कर सके और पुन अपने परिवार में आकर अनुभव बाट सकें ।-

-रश्मि राज  रोहिणी नई दिल्ली |

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