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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 28 Aug 2022 6:27 PM |   589 views

फिराक़ गोरखपुरी

” नज़्म करते कोई नई दुनिया
कि ये दुनिया हुई पुरानी भी ” 
 
 
सुकूत- ए शाम मिटाओ बहुत अँधेरा है 
सुखन की शम्-अ  जलाओ  बहुत अँधेरा है 
 
ये रात वो के सूझे जहाँ  न  हाथ को हाथ
खयालो दूर न जाओ बहुत अँधेरा है 
 
थी एक उचटती हुई नींद ज़िंदगी उसकी 
फिराक़ को ना जगाओ बहुत अँधेरा है।
 
फिराक़ गोरखपुरी की कविता अपने समय में कविता की नई  संरचना तथा नई मूल्यवत्ता  के साथ दुनिया के लिए कविता को फिर से परिभाषित करने का प्रयास करती है। 
 
उनकी कविता ”कविता की आधुनिकता को खोजने” , उसे रचने  तथा ऐसी सृजनात्मकता से सम्पृक्त है,   जिसकी सर्जना  में ‘मन की कविता’ छुपी है। उनकी  कविता कई बार लगती है कि  आत्म-वर्णना है, इसमें कवि  स्वयं को आविष्कृत कर रहा है, साथ ही,  स्वयं के आविष्कार का अवलोकन भी ।
 
 उनकी  कविता मात्र  गतिविधियों का  उत्पाद नहीं है। अतीत की अनेक अनुगूँजें फिराक़ में हैं तथा दृश्य  भी ।  कविता को फिराक़ ने  नई व अपने समय की   भाषा दी तथा  बदलते समय और चिंताओं को  काव्य भाषा में  स्थानांतरित करते हुए  प्रतिबिंबित किया । 
 
उनकी कविता  उनकी  सांवेदनिक कलात्मकता का  हिस्सा है। उनकी कविता  इस बात को संप्रेषित कर पाती है कि पुरखों से चलकर  उसे वर्तमान में बोलना है। इसी लिए  उनका कवि एक अभिनेता, संगीतकार और “अंधेरे में मेटाफिजिशियन” बन जाता है, जो अपने समय के लोगों के लिए समय-अवधि को चित्रित करने की कोशिश कर सके । 
 
ऐसा लगता है कि कवि यह कहते हुए कि कविता “एक संतुष्टि की खोज” होनी चाहिए, कभी संतुष्ट नहीं हो पाता । चिर असन्तुष्ट ।  उनके यहाँ  कविता अपने लक्ष्य के रूप में एक तरह की सांत्वना है। यह बात वॉलेस स्टीवंस के अपने काव्य सिद्धांत के प्रमुख कथन  ( ‘नोट्स इन ए सुप्रीम फिक्शन’  में )  में देखी जा सकती है, जिसमें  वह कविता के विषय में एक  तर्क विकसित करता है: कविता का प्रमुख आधार  खुशी देना होना चाहिए। फिराक़ के यहाँ कविता का  प्रवाह “मन का कार्य ही कविता है ” का एक आवश्यक हिस्सा है।
 
समग्र रूप में उनकी कविता का रूपाकार  उसकी जिद को दर्शाता है ।  तीन मुख्य बिंदुओं को उनकी कविता में समझना चाहिए।  उनकी  कविता  अतीत और वर्तमान कविता के बीच के अंतर से  प्रारम्भ होती है।  कविता  जटिल और संशयपूर्ण समय की  नई पहचान को चिह्नित करती  है। कविता संभावित समय  पर मार्मिक टिप्पणी करती है।
 
उनकी कविता के रूपक भविष्य की  दिशा को  इंगित करते हैं; वे अपनी  कविता को इस तरह से वर्णित  करने का प्रयास करते हैं जैसे अपने समय की  कविता को स्पष्टीकरण और उदाहरण दोनों बना देते  हैं।  कविता  एक थियेटर के रूप में प्रस्तुत होती जाती  है जिसमें  दृश्य सेट किया गया हो। 
 
फिराक़ की  कविता  विशेष रूप से ,  जीवन में अर्थ या तत्त्व  खोजने की प्रक्रिया की कविता है ।   पुरानी कविता से आधुनिक कविता में बदलाव को दर्शाती है , फिराक़ की कविता;  विशेष रूप से प्राचीन भारतीय रूपक,  इसके पहले शायद उर्दू कविता में इतनी सघनता से उपस्थित नहीं थे । फिराक़ के बाद उर्दू का  साहित्यिक दृश्य बदल गया । उनकी कविता हमें बताती है, “कुछ और करने के लिए।” हम आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि वास्तव में यह क्या बदल गया है- लेकिन उस प्रश्न का उत्तर ढूंढना कविता का बिंदु है। 
 
रात भी नींद भी कहानी भी 
हाय क्या चीज़ है जवानी भी
 
दिल -ए  बदनाम तेरे बारे में 
लोग कहते हैं एक कहानी भी
 
 नज़्म करते कोई नई दुनिया
 कि यह दुनिया हुई पुरानी भी
 
पास रहना किसी का रात की रात
मेहमानी भी मेजबानी भी ।
 
इनकी  कविता में ” मनुष्य के जीवन द्रव्य “, उसकी ‘लयात्मकता विकसित होने’ और ‘वास्तविक लोगों और घटनाओं के साथ जुड़ने की आवश्यकता’  के संघनन हैं । इसमें शामिल है, कविता में कई बार  बोलचाल की भाषा का उपयोग करते हुए  अपने आसपास के वास्तविक लोगों के साथ बातचीत करना।   यानी एक नाट्य रूपक का  दुहराव जो  यह कहता है  कि कविता को “एक नया मंच बनना चाहिए।” 
 
शायद कविता की उपर्युक्त  पंक्तियों के बारे में  कह सकते हैं कि  फिराक़  जितने प्रत्यक्ष हैं, उतने ही अप्रत्यक्ष । प्राचीनता  की धुंधली तस्वीर को वे  ताज़ा करते और अपने समय के कवियों से समय पर अपनी उपस्थिति के सकार  के लिए ‘नए सिरे से रीकॉल करने की आवश्यकता महसूस करते हैं’। वे मिथकों की भी ढूंढते हैं।  यह ढूँढना उनकी  कविता का अलग लक्ष्य निर्धारित करता है । वे भाषा में कविता को कर्तव्य भावना को बढ़ाने के लिये उद्यमशील होते हैं ताकि  जन  को लाक्षणिक रूप से  अभिव्यक्ति के लिये  शक्ति मिले । वे सोचते हैं कि  मंच मौजूद नहीं है, तो उन्हें इसका “निर्माण” करना चाहिए ताकि उनकी आवाज़ सुनी जा सके। कविता समग्र रूप से  मनुष्यता पर ध्यान देने योग्य है:  सामान्य के पक्ष में ।   विशेष रूप से समतावादी स्वर  में आम जन  का  काव्य व्यक्तित्व।
 
वे इन्सान को ही खुदा का दर्ज़ा देते हैं – 
 
गैर क्या जानिये क्यों मुझको बुरा कहते हैं
आप कहते हैं जो ऐसा तो बजा कहते हैं
 
वाक़ई तेरे इस अन्दाज को क्या कहते हैं
न वफ़ा कहते हैं जिसको न ज़फ़ा कहते हैं
 
हो जिन्हें शक, वो करें और खुदाओं की तलाश
हम तो इन्सान को दुनिया का ख़ुदा कहते हैं
 
तेरी सूरत नजर आई तेरी सूरत से अलग
हुस्न को अहल-ए-नजर हुस्ननुमाँ कहते हैं
 
शिकवा-ए-हिज़्र करें भी तो करें किस दिल से
हम खुद अपने को भी अपने से जुदा कहते हैं
 
तेरी रूदाद-ए-सितम का है बयाँ नामुमकिन
फायदा क्या है मगर यूँ ही जरा कहते हैं
 
लोग जो कुछ भी कहें तेरी सितमकशी को
हम तो इन बातों को अच्छा न बुरा कहते हैं
 
औरों का तजुरबा जो कुछ हो मगर हम तो ‘फ़िराक’
तल्ख़ी-ए-ज़ीस्त को जीने का मज़ा कहते हैं ।
 
कविता में  उल्लेखनीय रूप से उनकी भाषा की  रेखाएँ  विस्मयबोधकता का  उपयोग करती हैं – जिसका अर्थ है कि  वाक्य या वाक्यांश पंक्ति के पार वे  ले जाते हैं । ध्वनि और लय की  उनकी दृश्यात्मकता  के आधार पर  उनके  शब्द पाठक को वास्तविक अर्थों में  विचलित करने का जोखिम उठा सकते हैं ।  एक हल्के स्पर्श के साथ  सरल सत्य के रूप में सामने आती है उनकी कविता : एक मेटा-टेक्स्टुअल स्तर पर ।
 
अपने लेखन में फिराक़ शब्द – चित्रों और तकनीकों को सहज, अवचेतन तरीके से, या किसी और  विश्लेषणात्मक रूप में चुनते हैं।   वे रंगों का भी विशेष ध्यान रखते हैं जैसे  सूर्यास्त गुलाब के रूप में लाल क्यों था और किसी और तरह का  लाल क्यों  नहीं था? उनकी प्रेम कविता एक गाथा  बन जाती है !
उनकी कविताओं  पर  दृष्टि डालें तो वहाँ  शब्द, विषय या ध्वनि- पैटर्न हैं जो एक आदत के रूप में लौटते हैं  ! अपनी  कविता में  कवि के रूप में  फिराक़ स्वयं की विचार- प्रक्रियाओं के बारे में बताते हैं  और हम हैं कि उसे कविता समझते हैं : 
 
सितारों  से उलझता जा रहा हूँ 
शब- ए फुरक़त  बहुत घबरा रहा हूँ 
 
असर भी ले रहा हूं तेरी चुप का
 तुझे कायल भी करता जा रहा हूँ 
 
जो उलझी थी कभी आदम के हाथों 
 वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा  हूँ 
 
मोहब्बत अब मोहब्बत हो चली है 
तुझे कुछ भूलता -सा जा रहा  हूँ ।
 
( परिचय दास , अध्यक्ष हिंदी विभाग , नालंदा समविश्वविद्यालय नालंदा )
 
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