संग्रहालय ज्ञान का वातायन‘‘ विषयक व्याख्यान का आयोजन किया गया


कार्यक्रम में मुख्य वक्ता प्रो0 राजवन्त राव, पूर्व विभागाध्यक्ष, प्राचीन इतिहास, पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग, दी0द0उ0गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर रहे।
संगोष्ठी कार्यक्रम के मुख्य वक्ता प्रो0 राजवन्त राव ने कहा कि मानव सभ्यता का इतिहास इस सत्य को उजागर करता है कि मनुष्य ने अपने अतीत को सुरक्षित रखने का प्रयास किया, क्योंकि विधाता की सृष्टि में मनुष्य उसकी सर्वश्रेष्ठ रचना है। मनुष्य वर्तमान में जीता है, परम्परा प्रेमी होने के कारण मनुष्य ने विविध रूपों में अपने अतीत को संकलित और दर्शनीय बनाने की चेष्टा की है। संग्रहालय मनुष्य के उसी चेष्टा के सबल परिणाम हंै। इतिहास केवल घटनाओं का संकलन मात्र नहीं है।
इतिहास हमें शिक्षा भी देता है और प्रेरणा भी। इतिहास अमूर्त होता है। संग्रहालय उसी इतिहास को मूर्त बनाते हैं अर्थात इतिहास के महत्वपूर्ण संदर्भों को स्थूल रूप में हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं। मनुष्य का मन अमूर्त से उतना प्रभावित नही होता, जितना मूर्त से। जब हमें साकार स्मृति अपने अतीत की दिखाई देती है, तब अतीत हमारे मन में अधिक स्पष्ट उभरता है। संग्रहालय यही कार्य करते है|
संग्रहालय के उप निदेशक डाॅ0 मनोज कुमार गौतम ने संग्रहालय पर प्रकाश डालते हुए कहा कि डनेमनउ शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के डनेपवद शब्द से हुई है जिसका अर्थ है भ्वनेम व िडनेमेम या ब्मदजनतल व िडनेमेम अर्थात जहाँ कला और विज्ञान की देवियाँ निवास करती हैं। संग्रहालय किसी न किसी रूप में प्राचीन समय से स्थापित होते रहे हैं। प्रस्तर मूर्तियाँ, हिन्दू, बौद्ध तथा जैन धर्मों के धार्मिक कृतियों से सम्बन्धित साहित्य, धर्मग्रन्थ, बर्तन तथा अन्य वस्तुएं मन्दिरों को भेंट स्वरूप लोगों द्वारा दिया जाता था और इनका उपयोग कर ये वहीं पर रख दी जाती थीं और धीरे-धीरे इन वस्तुओं ने संग्रह का रूप ले लिया। कालान्तर में इन वस्तुओं का संग्रह राजाओं एवं समाज के प्रतिष्ठित वर्ग के लोगों द्वारा किया जाने लगा।
इस तरह के संग्रहों का उल्लेख प्राचीन भारतीय इतिहास एवं साहित्य जैसे कृष्ण धर्मोत्तर पुराण आदि में चित्रशालाओं के उल्लेख मिलते हैं, जहाँ चित्र संग्रहीत किए जाते थे। महाकाव्यों में भी चित्रशाला एवं विश्वकर्मा मन्दिरों का उल्लेख मिलता है। कई सदी पूर्व से भारत में जैन भण्डारों एवं हिन्दू मन्दिरों के लिए सचित्र पोथियाँ लिपिबद्ध की जाती रही है । ये चित्र धार्मिक अंकनो के साथ-साथ कला के अप्रतिबिम्ब उदाहरण भी हैं।
भारतीय शासकों अथवा राजाओं-महाराजाओं के संग्रह पुस्तक प्रकाश, सरस्वती भण्डार, सूरतखाना आादि नामों से प्रसिद्ध रहे हैं। मुगल शासको के पुस्तकालय – कुतुबखाना एवं चित्र संग्रह – तस्वीरखाना आदि नामों से जाना जाता था। मुगलकाल में लेखकों एवं कलाकारों को राजनैतिक संरक्षण प्राप्त था। इसके पूर्व में भी समय-समय पर लेखकों और कलाकारों का आदर शासकों द्वारा किया जाता था तथा संरक्षण भी प्राप्त था।
मुगलकाल के बाद भारत में अंग्रेजी शासन की नींव पड़ी, जैसे मुगलकाल में भारतीय कला एवं संस्कृति को संरक्षण प्राप्त था उसी तरह अंग्रेजी शासनकाल में भी भारतीय कला एवं संस्कृति को संरक्षित करने के कुछ कारगर प्रयास किये गये। भारतीय सांस्कृतिक सम्पदा से प्रभावित होकर सन् 1784 ई0 में सर विलियम जोन्स ने एशियाटिक सोसायटी आफ इण्डिया की स्थापना की | इसके बाद अनेक संग्रहालयों के स्थापना की प्रक्रिया शुरू हुई। 1851 ई. में केन्द्रीय संग्रहालय, मद्रास तथा इसी वर्ष बम्बई के ग्रांट मेडिकल कालेज में एशिया का प्रथम मेडिकल संग्रहालय भी स्थापित हुआ।
इन्टैक गोरखपुर चैप्टर के सह संयोजक अचिन्त्य लाहिड़ी ने कहा कि इतिहास पढ़ने वाले विद्यार्थी इतिहास को अतीत के संदर्भ में ही पढ़ते हैं। अतीत की घटनाओं को याद कर लेना या अतीत के चरित्र की आलोचना पढ़कर याद कर लेना ही उनका उद्देश्य होता है, किन्तु अब समय आ गया है कि हम इतिहास के अध्ययन की अपनी दृष्टि बदलें। हमारा अतीत ही हमारे इस वर्तमान का जन्मदाता है और ‘‘आज‘‘ ही आगे चलकर अतीत बनेगा और भविष्य का निर्माण होगा। अतः अब अतीत को वर्तमान से जोड़कर देखने की आवश्यक्ता है। इसके लिए हमें संग्रहालयों की सहायता लेनी होगी।
उक्त कार्यक्रमों में राजेश श्रीवास्तव, सम्पादक बाल स्वर, साइन्टिस्ट शोभित कुमार श्रीवास्तव, , डाॅ0 मुमताज खान, राकेश श्रीवास्तव, राम मिश्र कृष्ण, सुभाष चंद्र चौधरी, कनक हरी अग्रवाल, राकेश उपाध्याय, रीता श्रीवास्तव, आर पी सरोज, प्रभाकर शुक्ला, प्रभात मिश्र, डॉ अनिल योगी, संदीप श्रीवास्तव, सूर्य कुमार त्रिपाठी, धीरज सिंह,अमरनाथ श्रीवास्तव, रविन्द्र मोहन त्रिपाठी, सत्यम शुक्ल, विनोद केडिया, एल एन मालवीय, विजय कुमार श्रीवास्तव एवं एम बसु मालिक आदि की उपस्थिति उल्लेखनीय रही।
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