यात्रा संस्मरण-भीमताल
मैं पहाड़ियों की ओर देखता ही रह गया। इतना अच्छा दृश्य । हिमालय पर पड़ी हुई बर्फ की पर्त। बस धीरे-धीरे पहाड़ की चढ़ाई चल रही थी दाहिनी तरफ हरी-भरी घास के साथ ही लंबे लंबे चीड़ और देवदार के वृक्ष अपना मस्तक खिलाते हुए दिखाई दे रहे थे और बाएं तरफ वह घाटी थी जिसे हम गड्ढों का नाम देते हैं|
कुछ लोग अपनी आंखें मूंदे हुए थे किंतु मैं सामने की सीट पर बैठा था सुरम्य दृश्य देखकर मेरी आंखें खुली की खुली रह गई। प्रकृति कितनी सुंदर है ।हम समाचार पत्रों में, पत्रिकाओं में ,पोस्टरों में देखते हैं। उससे कई कई गुना सुंदर अपना गिरिराज। चढ़ाई शुरू हुई। उपत्यका में बसे हुए गांव को देखते देखते हमें अपना भी गांव याद आया जो नदी के कगार पर बसा है। नीचे प्रवाह मान गोमती और उसका बहता विमल जल। खाते हुए बरगद और पीपल के वृक्ष,। इसी प्रकार पर्वत की उपत्यका के गांव जहां वृक्षों के बीच में जाते हुए छोटे-छोटे घर ऊपर से लोग तो चीटियों की तरह दिखाई दे रहे थे जानवर भी कुछ इसी शक्ल में दिख रहे थे इतना अद्भुत आनंद आ रहा था। उसी समय बस के चालक ने एक चट्टी पर चाय पीने के लिए बस को रोक दिया। कुछ लोग चाय पीने के लिए उतर गए सामान्य बाजार की दर से ही इतनी ऊंचाई पर भी चाय और खाने की वस्तुएं मिल रही थी जिसको जो भी लेना था ले लिया।
यात्रा पुनः प्रारंभ हुई दूर से ही देखने में नव कुचिया ताल, भीमताल ,और नल दमयंती ताल सामने से गुजरे। उनका नीला जल उसमें जागते हुए छोटे-छोटे पर्वत शिखर, दो- चार नौकाओं का धीरे-धीरे संतरण करना बहुत ही आनंददायक लगा लोगों ने बताया– सेब का बाग है, साथ मे आडू (पहाड़ी खट्टा फल) और खुबानी भी खाने को मिलती है ।यह चीजें जो मैदानी इलाके में महंगी मिलती हैं, उनका यहां उनकी यहां कम कीमत देनी पड़ती है। कुछ समय बाद अपना गंतव्य भीमताल आ गया।
वहां भी बस ने जहां छोड़ा वहां से कुछ दूर पर अपने लिए एक विद्यालय का आवास था जो कम से कम 200 फीट ऊंचाई पर था किसी तरह एक पहाड़ी व्यक्ति से बात की गई वह सामान ऊपर ले गया मजदूरी पर पूछने पर उसने कहा बाबूजी जो इच्छा हो दे दीजिए सन उन्नीस सौ छिहत्तरमें50रूपये मैंने उसे दिए। उसने कहा-” मेरे पास टूटे नहीं है कि मैं आपको रु 30 लौटा दूँ।”
मैंने कहा–“रख लो भैया”। उसने कृतज्ञता पूर्वक हाथ जोड़ा और नीचे चला गया।
कुछ दिन बाद मैं खंड विकास अधिकारी के यहां जा रहा था अपने आवास से नीचे उतरने पर उस पहाड़ी आदमी जिसका नाम परमेश्वर था मिल गया।” बाबूजी कहां जाएंगे”?।
मैंने कहा–” ब्लॉक जाऊंगा ।वहां के अधिकारी से मिलना है। अपने स्कूल की टीम को बुला कर वहां वृक्षारोपण कराना है ।”
आज ही जाइएगा” ?।
“हां मामला पहले तय कर लूँ।”
“गरीब के घर कब आइएगा?”
“कल तुम जब भी आ जाओगे तुम्हारे साथ ही चलूंगा।”
दूसरे दिन बाद 10:00 बजे के लगभग आया। मैं पहले तो नीचे उतरा और दूसरे पहाड़ की चोटी के बीच में उसका अपना घर था। जहां सात आठ घरों की बच्ची थी। मुझे चढ़ने में कठिनाई हो रही थी। लेकिन वह लगता था जैसे बिना प्रयास का दौड़ते हुए चला जा रहा है। आवाज से उतरते ही मैंने कुछ चॉकलेट के पैकेट ले लिए थे उन्हें चुपचाप अपने पाकिट में रख लिया था। पहुंचा परमेश्वर का पूरा परिवार जैसे भगवान आए हो ।हाथ जोड़कर सामने खड़ा हो गया। उसके दो छोटे छोटे प्यारे बच्चे और एक बेटी थी ।बच्चों ने भी अपनी मुस्कान से स्वागत किया। मैंने चॉकलेट के पैकेट बच्चों को पकड़ा दिया थोड़ी देर बैठने के बाद काली चाय पीने को मिली ,खा रे बिस्कुट के साथ। चाय में ना जाने क्या मिला था मेरे शरीर की सारी थकान निकल गई। आधे घंटे तक बच्चों के साथ उनकी पढ़ाई, उनका नाम, स्कूल कब जाते हो? क्या क्या पढ़ते हो? पूछता रहा।
थोड़ी देर में उसकी पत्नी ने कहां -“चलिए भोजन कर लीजिए “।मैंने कहा-” रहने दीजिए। बाद में नीचे खा लूंगा होटल में ।उसने कहा–” नहीं, मेरे यहां ही खा लीजिए।” पीढ़ा पर बैठा। सामने एक छोटी सी चौकी के ऊपर भोजन और पानी का गिलास या दिया गया।
मैंने परमेश्वर से कहा-” भैया आप भी अपना भोजन ले आइए साथ-साथ खाएंगे।”शर्माते हुए हो अपना भोजन ले आया। मोटी मोटी मक्के की रोटी, लहसुन और मिर्ची की चटनी, एक कटोरी में लाल लाल गरम-गरम गाय का दूध जिसमें गुड पड़ा हुआ था। बहुत अच्छा लगा जैसे भोजन नहीं मैं अमृत पी रहा हूं।
थोड़ी देर बाद वह मुझे मेरे आवास तक छोड़ गया।
पन्द्रह दिन बाद जब मैं वापस जाने वाला था, वह कृतज्ञ भाव से आया। मेरा सारा सामान बस स्टेशन तक पहुंचाया। लौटते समय मैंने उसे रु 200 दिए। उसका प्रेम आंखों से छलक आया। बस चल दी बहुत दूर तक जब तक वादी बस देखती रही वह बस को निहारता रहा जब वह ओझल हुआ तो मैंने भी अपना सिर बस के अंदर कर लिया किंतु परमेश्वर का प्रेम उसके परिवार का आदर बच्चों की आत्मीयता आज भी नहीं भूल पाया।
दूसरी बार जब मैं सन 90 में भीमताल गया, लोगों से पता चला– सरेनी गांव का विनाश हो गया, बादल के फटने से। कोई भी जीवित नहीं बचा ।अब मेरी आंखों से अनवरत टप टप टप आंसू गिर रहे थे। उन समस्त परिवारों को याद करके ।वहां केवल परमेश्वर के परिवार ने ही नहीं अपना प्रेम नहीं दिया सारे गांव के लोग आए थे बाबूजी- बाबूजी कह के मिले थे। सभी ने आग्रह किया था-” चलिए मेरे घर चाय पी लीजिए”। पर मेरे पास समय कहाँ था और आज जब समय लेकर आया, तो लोग नहीं थे….।
( नादान परिंदे साहित्यिक मंच से डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी शैलेश )
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