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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 12 Jun 2020 4:24 PM |   547 views

मुक्तक

 
 
जीवन की कड़ुवी घूंट पिए जा रहा हूं
पैबन्द पर पैबन्द सिए जा रहा हूं
घुट घुट कर मरता हूं हर रोज हर कदम
फिर भी न जाने क्यूं मैं जिए जा रहा हूं
             
गुजरे हुए लम्हों को अफसाना समझिए
दिल दर्द से खाली हो तो वीराना समझिए
पत्थर तो जमाने में चलते ही रहते हैं
ज़ख्मों का महज दिल में ठिकाना समझिए
              
अंदाजे बयां कुछ ऐसा विचित्र हो गया
दुश्मन भी लगता है कि मित्र हो गया
डूबा हुआ था जो पाप के समंदर में
फीता काटने के लिए वही पवित्र हो गया
            
ले रहा था जाम मैं तो जुनुने इश्क में
नजरों का सागर माहरू ने बढ़ा दिया
गिरा पैमाना हाथ से छूट कर ज़मीं पर
नजरों से पिला के नशा और चढ़ा दिया
 
( डाॅ0 भोला प्रसाद आग्नेय, बलिया )
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